– वीर विनोद छाबड़ा
पचास का दशक था वो। आठ-दस साल के रहे होंगे हम। लखनऊ के आलमबाग की चंदर नगर मार्किट के ऊपर रहते थे। सामने से गुज़रती कानपुर रोड की दूरी अधिक से अधिक पचास-साठ की मीटर रही होगी। वहां से जितने भी वीआईपी गुज़रते थे, उन्हें हम आसानी से देख सकते थे। लेकिन ज्यादा नज़दीक से देखने की हसरत हमें सड़क किनारे खींच लाती। दो दिन पहले से अमौसी एयरपोर्ट से ही सड़क के दोनों तरफ बल्ली-ठड्डी बैरिकेडिंग कर दी जाती थी। स्कूल में छुट्टी कर दी जाती। हमें बताया जाता – चाचा नेहरू आ रहे हैं।
चाचा नेहरू खुली कार में आते थे। सड़क के दोनों तरफ अथाह भीड़ जमा हो जाती थी। एक झलक पाने को दुकानदार भी थोड़ी देर के लिए दुकान छोड़ कर आ जाते थे। हमने दो बार देखा है उन्हें। बिलकुल सुर्ख़ चेहरा। शेरवानी और गुलाब का फूल। ये पहचान थी उनकी। हमें नहीं मालूम था कि वो देश के प्रधानमंत्री हैं। हमारे लिए वो बस चाचा नेहरू ही थे।
हमें याद है कि चाचा नेहरू का भाषण सुनने झंडेवाला पार्क या बेगम हज़रतमहल पार्क में भारी भीड़ जमा होती थी। एक बार पिताजी ने कंधे पर बैठा कर दिखाया था – वो देखो चाचा नेहरू। चाचा नेहरू का भाषण 15 अगस्त को रेडियो से प्रसारित होता था। उन दिनों हमारे घर में रेडियो नहीं था। रेडियो होना धनाढ्य अथवा बड़ा अफ़सर होने की निशानी होती थी। एक बार उनके भाषण के बाद हमारे घर बैठक जमी। यों भी हमारा घर अदबी बैठकों के लिए मशहूर था। उस दिन तमाम अड़ोसी-पड़ोसी जमा हुए। नेहरू जी के भाषण पर जम कर बहस हुई। उन्होंने क्या कहा और उसका मतलब क्या है? इसका असर कहां तक पहुंचेगा? इस दौरान एक पड़ोसी ने नेहरूजी को बुरा-भला कह दिया था। इस पर दूसरा पड़ोसी नाराज़ हो गया। महीनों उनमें कुट्टी रही। फिर उनमें सुलह कराने के लिए एक और बैठक बुलाई गयी। बाक़ायदा जश्न मना कर सुलह हुई।
14 नवंबर को बाल दिवस होता था। सफ़ेद कुरता पायजामा और नेहरू टोपी पहन हम स्कूल जाते थे। मास्टरनियां आह्लादित होकर कहती थीं – देख कैसे गुड्डे गुड्डियां लग रहे हैं सब बच्चे। पायजामे बार बार सरकते थे। मास्टरनियां को उन्हें कस कर बांधना पड़ता था। वहां बच्चे मिठाई और समोसा खाते थे और चलते वक़्त दो लड्डू लिफाफे में रख दिए जाते। उस दिन बच्चों के साथ-साथ माता-पिता के दिलों में भी उत्साह होता था। शाम को स्कूल में खास प्रोग्राम होते। ड्रामा, चुटकुले, नाच के साथ गाना और संगीत। सब बच्चे ही करते थे। इनमें बच्चों के माता-पिता भी बड़ी ख़ुशी-ख़ुशी सम्मिलित होते थे। बाज़ दुकानदार बच्चों को मुफ़्त टॉफी-बिस्कुट भी बांटते थे।
जगह-जगह लॉउडस्पीकर से बच्चों को भले लगने वाले गाने सुनाये जाते। ओ मेरे प्यारों ज़मीं के तारों जाना तुम्हें है कहां…हम लाये हैं तूफानों से कश्ती निकाल के.…नन्हा-मुन्ना राही हूं मैं, देश का सिपाही हूं.…मगर सबसे प्रिय था, बूट पालिश (1953) का ये गाना – नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है.…शैलेंद्र के इस गीत की ये अंतिम दो पंक्तियां बहुत अच्छी लगती थीं और आज भी जब-तब गुनगुनाता हूं -आने वाली दुनिया में सबके सर पे ताज होगा न भूखों की भीड़ होगी न दुखों का राज होगा बदलेगा ज़माना ये सितारों पे लिखा है.… आप भी गुनगुनाइए। अच्छा लगेगा, गारंटी है।