पुण्य तिथि पर विशेष-फ़ारुख़ शेख़ अभिनेता, समाज-सेवी और टेलीविजन प्रस्तोता थे। कला सिनेमा में अपने कार्य के लिए प्रसिद्ध थे जिसे समानांतर सिनेमा भी कहा जाता है। उन्होंने सत्यजित राय और ऋषिकेश मुखर्जी जैसे महान फि़ल्म निर्देशकों के निर्देशन में भी काम किया। फि़ल्मों के माध्यम से अपनी छवि को आमजन से जोडऩे वाले फ़ारुख़ शेख़ का जन्म 25 मार्च, 1948 को अमरोली (गुजरात ) में मुस्तफ़ा और फऱीदा शेख़ के परिवार में हुआ। उनका नाता जमींदार परिवार से था। फ़ारुख़ शेख़ अपने पांच भाइयों में सबसे बड़े थे। मुंबई के सेंट मैरी स्कूल में शुरुआती शिक्षा ग्रहण करने के साथ ही उन्होंने यहां के सेंट जेवियर्स कॉलेज में आगे की पढ़ाई की। बाद में उन्होंने सिद्धार्थ कॉलेज ऑफ लॉ से कानून की पढ़ाई की।
फ़ारुख़ स्कूली दिनों से न केवल क्रिकेट के दीवाने थे, बल्कि अच्छे क्रिकेटर भी थे। उन दिनों के विख्यात टेस्ट क्रिकेटर वीनू मांकड़ सेंट मैरी स्कूल के दो सर्वश्रेष्ठ क्रिकटरों को हर साल कोचिंग देते थे और हर बार उनमें से एक फ़ारुख़ हुआ करते थे। जब वह सेंट जेवियर कॉलेज में पढऩे गए तो उनका खेल और निखरा। सुनील गावस्कर का शुमार फ़ारुख़ के अच्छे दोस्तों मे होता है। फ़ारुख़ शेख़ अपने कॉलेज के दिनों को हमेशा शिद्दत से याद करते थे। वहां उनके दोस्तों का बड़ा समूह था। यहीं उनकी मुलाकात रूपा जैन से हुई, जो आगे चल कर उनकी जीवन संगिनी बनीं। फ़ारुख़ और रूपा ने नौ साल तक एक-दूसरे से मेल-मुलाकातों के बाद शादी का फैसला लिया था। दोनों ही परिवार उनकी दोस्ती से वाकिफ थे और किसी ने विरोध नहीं किया। हालांकि रूपा के परिजन इस बात से जरूर थोड़ा चिंतित थे कि फारुख, जो उन दिनों एक उभरते ऐक्टर थे और ज्यादातर रंगमंच पर काम करते थे, उनकी बेटी का खयाल कैसे रख पाएंगे। लेकिन फ़ारुख़ को जल्द ही मिली कामयाबी के बाद वे निश्चिंत हो गए।
फ़ारुख़ के जीवन पर पिता का गहरा प्रभाव था और यही कारण था कि उन्होंने वकालत की पढ़ाई की। उनका इरादा पिता की विरासत को आगे ले जाने का था। मुंबई के सिद्धार्थ कॉलेज ऑफ लॉ से उन्होंने कानून की पढ़ाई की। लेकिन वकील बनने के बाद जल्द ही उन्हें महसूस हुआ कि यह पेशा उनके जैसे इंसान के लिए ठीक नहीं है। उनका कहना था कि ज्यादातर मामलों के फैसले अदालत में नहीं बल्कि पुलिस थानों में तय होते हैं। इसके बाद ही उन्होंने ऐक्टिंग को तवज्जो देनी शुरू की। फ़ारुख़ कॉलेज के दिनों में नाटकों में काम किया करते थे और यहां शबाना आजमी उनकी अच्छी दोस्त थीं। दोनों ने कई नाटक साथ किए थे। कॉलेज के बाद शबाना जब फि़ल्म इंस्टीट्यूट में पढ़ाई के लिए पूना जाने लगीं तो उन्होंने फ़ारुख़ से भी चलने को कहा। परंतु उन्हें वकालत की पढ़ाई करनी थी।
वकालत से मोहभंग के बाद वे ऐक्टिंग कॅरियर पर ध्यान देने लगे। उन्होंने अपनी पहली फि़ल्म ‘गरम हवा में मुफ़्त में काम करने को हामी भरी थी। रमेश सथ्यू यह फि़ल्म बना रहे थे और उन्हें ऐसे कलाकार चाहिए थे, जो बिना फीस लिए तारीखें दे दें। खैर, इस फि़ल्म के लिए फ़ारुख़ शेख़ को 750 रुपये मिले, वह भी पांच साल में। फ़ारुख़ शेख़ के वकालत छोड़ कर फि़ल्मों में काम करने से उनके माता-पिता को आश्चर्य तो हुआ लेकिन उन्होंने बेटे के फैसला का विरोध नहीं किया। वे उनके साथ खड़े रहे। फ़ारुख़ के अनुसार उन दिनों तक यह बात ख़त्म चुकी थी कि फि़ल्मों में काम करना बुरा है। ‘गरम हवा की रिलीज के बाद फ़ारुख़ के पास दूसरी फि़ल्मों के ऑफर आने लगे।
निर्देशक सत्यजित रे को उनका काम इतना पसंद आया कि अपनी फि़ल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी में उन्हें एक रोल ऑफर कर दिया। जब सत्यजित रे ने फोन किया तो फ़ारुख़ कनाडा में थे। उन्होंने कहा कि मुझे लौटने में एक महीने का वक्त लगेगा। सत्यजित रे ने कहा कि वे इंतजार करेंगे।
फ़ारुख़ शेख़ को फि़ल्में मिलने लगीं जिसमें 1979 में आई ‘नूरी, 1981 की चश्मे बद्दूर जैसी फि़ल्में शामिल हैं। दीप्ति नवल और फ़ारुख़ शेख़ की जोड़ी सत्तर के दशक की सबसे हिट जोड़ी रही। दर्शक इन्हें फि़ल्मों में एक साथ देखना चाहते थे। इन दोनों ने एक साथ मिलकर कई फि़ल्में की इसमें चश्मे बद्दूर, साथ-साथ, कथा, रंग-बिरंगी आदि प्रमुख हैं। फ़ारुख़ शेख़ अपने किरदारों में जुझारू, मध्यमवर्गीय और मूल्यजीवी इन्सान के साथ-साथ मनुष्य की फितरत को भी अभिव्यक्त करने के लिए जाने जाते हैं। उनकी अंतिम कुछ फि़ल्मों में सास बहू और सेंसेक्स, एक्सीडेंट ऑन हिल रोड और लाहौर जैसी फि़ल्में रहीं। इन फि़ल्मों में भी एक बार फिर उनकी परिपक्व छवि दिखी। अभिनेता फ़ारुख़ शेख़ ऐसे कलाकारों में शुमार हैं जो बड़े और असाधारण श्रेणी के फि़ल्मकारों की फि़ल्मों में एक ख़ास किरदार के लिए पहचाने जाते हैं या फिर उसी ख़ास किरदार के लिए बने हैं। ऐसे अभिनेता पर्दे पर केवल अभिनय नहीं करते बल्कि उस अभिनय को जीते हैं। ऐसे किरदार ही आपके जहन में इतना प्रभाव छोड़ जाते हैं कि आप उन्हें लम्बे समय तक याद रखते हैं।
सहज और विनम्र से दिखाई देने वाले फ़ारुख़ शेख़ ने अपने समय के चोटी के निर्देशकों के साथ काम किया है। उन्होंने सत्यजित रे, मुजफ्फर अली, ऋषिकेश मुखर्जी, केतन मेहता, सई परांजपे, सागर सरहदी जैसे फि़ल्मकारों का अपने अभिनय की वजह से दिल जीत लिया।
फ़ारुख़ एक बेहतरीन कलाकार तो थे ही लेकिन उससे कहीं आगे वह एक बेहतरीन इंसान थे। फ़ारुख़ शेख़ संपन्न परिवार से जरूर थे मगर पिता के निधन के बाद उन्होंने छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी को अपने कंधों पर उठाया। उन्होंने रेडियो और टीवी पर कार्यक्रम किए, लेकिन सिर्फ पैसों की खातिर फि़ल्मों में काम करना उन्हें मंजूर न था। इसीलिए जिस जमाने में अभिनेता एक साथ दर्जनों फि़ल्में साइन करते थे, फ़ारुख़ शेख़ एक बार में दो से ज्यादा फि़ल्मों में काम नहीं करते थे।
1978 में ‘नूरी की कामयाबी के बाद कुछ ही महीनों में उनके पास कऱीब 40 फि़ल्मों के प्रस्ताव आए। लेकिन उन्होंने सारे के सारे ठुकरा दिए क्योंकि वे सब ‘नूरी की ही तरह थे। फ़ारुख़ शेख़ का नाम कभी किसी विवाद में नहीं आया। न ही किसी सह-अभिनेत्री या हीरोइन से उनका नाम जुड़ा। वे पूरी तरह से पारिवारिक इंसान थे। उनकी दो बेटियां हैं। उन्होंने ईश्वर में सदा विश्वास किया। वे कहते थे कि एक शक्ति है जो ऊपर से हमें संचालित कर रही है। धर्म और जाति के नाम पर बंटवारे या भेदभाव उन्हें कभी गवारा न थे। उन्होंने सदा कहा कि गुजर जाने के बाद दुनिया में याद किए जाने की ख्वाहिश उनमें नहीं है। वह कहते थे कि यह जि़ंदगी एक उत्सव है और अपने रियलिटी शो ‘जीना इसी का नाम है में मैं जि़ंदगी का ही जश्न मना रहा हूं।
फ़ारुख़ शेख़ का 27 दिसम्बर, 2013 की रात दुबई में दिल का दौरा पडऩे से निधन हो गया। मीडिया को यह जानकारी उनकी मित्र एवं अभिनेत्री दीप्ति नवल ने दी थी । दुबई में जरूरी औपचारिकता पूरी करने के बाद उनका शव अंतिम संस्कार के लिए मुंबई लाया गया। मुंबई में ही उनका अंतिम संस्कार किया गया था। एजेंसी