कहते हैं अत्याचार और अन्याय को सहन करना भी अन्याय के बराबर होता है। मुगलों की बर्वरता से जब गुरुतेगबहादुर को बलिदान देना पड़ा तब उनके बेटे गोविन्दराय के मन में यही बात कांटे की तरह चुभने लगी। उसी समय उन्होंने संकल्प लिया था कि समय आने पर वह निर्बलों और पीड़ितों की रक्षा के लिए एक ऐसा संगठन खड़ा करेंगे जो शेरों की तरह निर्भीक और निडर होगा। यह अवसर मुगलांे के बढ़ते अत्याचार ने उत्पन्न किया। गोविन्द राय जिन्हें बाद में गुरु गोविन्द सिंह कहा जाने लगा था, उन्होंने वैशाखी के दिन आनंदपुर में सिखों को एकत्र किया। गुरु गोविन्द सिंह ने वहां एकत्र लोगों से कहा कि मुझे पांच ऐसे युवक चाहिए जो धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए अपनी जान देने को तैयार हों, उनका सिर काटा जाएगा। गुरु जी ने कहा कि बलिदान से ही धर्म और दीन-दुखियों की रक्षा हो सकेगी।
गुरु गोविन्द सिंह के आह्नान पर एक बार तो सन्नाटा छा गया। कुछ देर बाद लाहौर निवासी भाई दयाराम खड़े हुए। गुरू गोविन्द सिंह दयाराम को एक बंद अहाते में ले गये। तलवार चलने की आवाज आयी और पनाले से रुधिर बहकर बाहर आया। खून से सनी तलवार लेकर गुरुगोविंद सिंह बाहर आये ओर कहा कि अभी चार ऐसे ही युवक और चाहिए। उस समय सचमुच सादस की परीक्षा हो रही थी लेकिन भारत के युवाओं में साहस की कमी नहीं रही है। गुरु गोविंद सिंह के हाथ में खून से सनी तलवार देखने के बाद भी धर्मदास, मोहकमचंद, जगन्नाथ और साहब ने अपने को पेश किया। गुरु जी उन्हें बारी-बारी से अहाते में ले गये। इसके बाद वहां उपस्थित लोग यह देखकर दंग रह गये कि गुरु गोविन्द सिंह उन पांचों युवाओं को जीवित लेकर अहाते से बाहर आये। अहाते में पांच बकरों की बलि दी गयी थी। गुरू गोविन्द सिंह ने उन पांचों निर्भीक युवाओं को पंच प्यारे की संज्ञा दी और उनके माध्यम से खालसा पंथ की स्थापना हुई। खालसा पंथ अन्याय, अधर्म तथा उत्पीड़न के विरुद्ध सतत संघर्ष के लिए वचनवद्ध हुआ। इसलिए वैशाखी को खालसा पंथ की स्थापना के रूप में मनाया जाता है। इसके साथ पर्व में रबी की फसल तैयार होने की खुशी भी जुड़ गयी है। फसल तैयार होने पर देश भर में पर्व मनाया जाता है। इस प्रकार बैसाखी एक राष्ट्रीय त्योहार है जिसे देश के भिन्न-भिन्न भागों में रहने वाले सभी धर्मपंथ के लोग अलग-अलग तरीके से मनाते हैं। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार बैसाखी पर्व हर साल 13 अप्रैल को मनाया जाता है। वैसे कभी-कभी 12-13 वर्ष में यह त्योहार 14 तारीख को भी आ जाता है। रंग-रंगीला और छबीला पर्व बैसाखी अप्रैल माह के 13 या 14 तारीख को जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है, तब मनाया जाता है। इस वर्ष 14 अप्रैल को यह मनाया जाएगा।भारत भर में बैसाखी का पर्व सभी जगह मनाया जाता है। इसे दूसरे नाम से खेती का पर्व भी कहा जाता है। कृषक इसे बड़े आनंद और उत्साह के साथ मनाते हुए खुशियों का इजहार करते हैं। बैसाखी मुख्यतः कृषि पर्व है। पंजाब की भूमि से जब रबी की फसल पककर तैयार हो जाती है तब यह पर्व मनाया जाता है। इस कृषि पर्व की आध्यात्मिक पर्व के रूप में भी काफी मान्यता है। केवल पंजाब में ही नहीं बल्कि उत्तर भारत के अन्य प्रांतों में भी बैसाखी पर्व उल्लास के साथ मनाया जाता है। सौर नववर्ष या मेष संक्रांति के कारण पर्वतीय अंचल में इस दिन मेले लगते हैं। लोग श्रद्धापूर्वक देवी की पूजा करते हैं तथा उत्तर-पूर्वी सीमा के असम प्रदेश में भी इस दिन बिहू का पर्व मनाया जाता है। उत्तर भारत में विशेष कर पंजाब बैसाखी पर्व को बड़े हर्ष और उल्लास के साथ मनाता है। ढोल-नगाड़ों की थाप पर युवक-युवतियां प्रकृति के इस उत्सव का स्वागत करते हुए गीत गाते हैं एक-दूसरे को बधाइयां देकर अपनी खुशी का इजहार करते हैं और झूम-झूमकर नाच उठते हैं। अतः बैसाखी आकर पंजाब के युवा वर्ग को याद दिलाती है। साथ ही वह याद दिलाती है उस भाईचारे की जहां माता अपने दस गुरुओं के ऋण को उतारने के लिए अपने पुत्र को गुरु के चरणों में समर्पित करके सिख बनाती थी।
वैसे तो भारत में महीनों के नाम नक्षत्रों पर रखे गए हैं। बैसाखी के समय आकाश में विशाखा नक्षत्र होता है। विशाखा युवा पूर्णिमा में होने के कारण इस माह को बैसाखी कहते हैं। इस प्रकार वैशाख मास के प्रथम दिन को बैसाखी कहा गया और पर्व के रूप में स्वीकार किया गया। बैसाखी के दिन ही सूर्य मेष राशि में संक्रमण करता है अतः इसे मेष संक्रांति भी कहते हैं। सिखों के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह ने बैसाखी के दिन ही आनंदपुर साहिब में 1699 में खालसा पंथ की नींव रखी थी। इसका खालसा खालिस शब्द से बना है जिसका अर्थ- शुद्ध, पावन या पवित्र होता है। खालसा-पंथ की स्थापना के पीछे गुरु गोबिन्द सिंह का मुख्य लक्ष्य लोगों को तत्कालीन मुगल शासकों के अत्याचारों से मुक्त कर उनके धार्मिक, नैतिक और व्यावहारिक जीवन को श्रेष्ठ बनाना था। इस पंथ के द्वारा गुरु गोबिन्द सिंह ने लोगों को धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव छोड़कर इसके स्थान पर मानवीय भावनाओं को आपसी संबंधों में महत्व देने की भी दृष्टि दी। सिख धर्म के विशेषज्ञों के अनुसार पंथ के प्रथम गुरु नानक देवजी ने वैशाख माह की आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से काफी प्रशंसा की है। पंजाब और हरियाणा सहित कई क्षेत्रों में बैसाखी मनाने के आध्यात्मिक सहित तमाम कारण हैं। इस दिन सिख गुरुद्वारों में विशेष उत्सव मनाए जाते हैं। खेत में खड़ी फसल पर हर्षोल्लास प्रकट किया जाता है। बैसाखी पर्व के दिन समस्त उत्तर भारत की पवित्र नदियों में स्नान करने का माहात्म्य माना जाता है। अतः इस दिन प्रातःकाल नदी में स्नान करना हमारा धर्म हैं। दरअसल बैसाखी एक लोक त्योहार है जिसमें फसल पकने के बाद उसके कटने की तैयारी का उल्लास साफ तौर पर दिखाई देता है। मुख्य रूप से खालसा पंथ की स्थापना की याद दिलाने वाला यह पर्व है और अत्याचार, अन्याय का वीरतापूर्वक विरोध करने की शिक्षा देता है। (हिफी)
