हिंदी सिनेमा बदलाव के दौर से गुज़र रहा है और इसमें सबसे बड़ा बदलाव भाषा के स्तर पर महसूस हो रहा है। हिंदी सिनेमा में हिंदी कितनी बची है इस पर काफी समय से टिप्पणियां और चर्चाएं हो रही हैं। सिनेमा वह मंच है जहाँ कहानियाँ, भावनाएँ, संघर्ष, मनोरंजन और सपने दर्शकों तक पहुँचते हैं। मगर “हिंदी सिनेमा” की आंतरिक कार्यप्रणाली में हिंदी भाषा कहीं पीछे छूटती जा रही है। देवनागरी स्क्रिप्ट तो बहुत पहले ही पीछे छूट छुकी है। आजकल हिंदी फिल्मों की स्क्रिप्ट, स्क्रीनप्ले, और शूटिंग संबंधी नोट्स अंग्रेज़ी में होते हैं। गीत और संवाद भले ही हिंदी में हों, पर उन्हें भी रोमन लिपि में लिखा जाता है।
बहुभाषी भारत में सिनेमा का प्रारंभ हुआ, तब इसका अधिकांश काम मिली जुली हिंदी, उर्दू भाषा में देवनागरी या फारसी लिपियों के माध्यम से में होता था। फिल्मों में कहानी के परिवेश, पात्रों की भूमिका और परिस्थितियों को देख कर ही भाषा का प्रयोग होता रहा है। इसके तहत ही हिंदी फिल्मों में भोजपुरी, हरियाणवी, पंजाबी और अवधी का प्रयोग होता रहा है और अब भी हो रहा है और इस प्रक्रिया में लगातार बदलाव जारी है।
1931 में बनी पहली बोलती फिल्म आलम आरा के संवाद और गीत पारंपरिक हिंदी-उर्दू में थे। यही भाषा हिंदुस्तानी के नाम से चर्चित हुई। इससे पहले भारत में मनोरंजन के शक्तिशाली शाधन के तौर पर पारसी थियेटर और उसी शैली की नौटंकी का दबदबा था। इनकी भाषा उर्दू या हिंदी और उर्दू से मिली भाषा थी। उस दौर में फिल्म लेखक प्रायः साहित्य और रंगमंच की दुनिया से आते थे। स्क्रिप्ट और संवाद कागज़ पर हाथ से लिखे जाते थे। तब लिपि की कोई समस्या नहीं होती थी। लीपि की समस्या तब होती थी जब ग़ैर हिंदी भाषी या विदेशी फिल्मकार और टेक्नीशियन हिंदी फिल्म से जुड़ता था। इसका समाधान रोमन लीपि के जरिये निकाला गया। इस लीपि ने हिंदी सिनेमा की भाषा को ना जानने वालों को बहुत राहत पहुंचायी। लेकिन किसी को यह गुमान भी नहीं था कि एक दिन रोमन लीपि ही हिंदी सिनेमा में काम मन करने वालों के लिये मुख्य लीपि बन जाएगी। इस समय सूरते हाल यही है कि हिंदी सिनेमा का सारा काम या तो अंग्रेजी या फिर रोमन लीपि में हो रहा है।
दरअसल ग़ौर करने वाली बात यह है कि हिंदी सिनेमा में हिंदी अब बोली के तौर पर बची हुई है। यह बोली भी देवनागरी के स्थान पर रोमन लीपि में लिखी जा रही है। हिंदी सिनेमा के कर्णधार अंग्रेजी भाषी ही नहीं बल्कि भारतीय अंग्रेज है। इन भारतीय अंग्रेज़ों की संख्या इतनी बढ़ गयी है कि इनके प्रभाव से केवल हिंदी ही नहीं दूसरी कई भारतीय भाषाओं को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इस मौहाल की बुनियाद पर नज़र डालें तो पाएंगे कि लगभग 1970 और 80 के दशक में भारत में शिक्षा प्रणाली में अंग्रेज़ी का प्रभाव बढ़ने लगा था। फिल्म निर्माण में जब नई पीढ़ी के निर्देशक, लेखक और तकनीकी के जानकार लोग आने लगे, तो वे अंग्रेज़ी भाषा में अधिक सहज थे। उन्हें देवनागरी लिपि में संवाद पढ़ने और लिखने में कठिनाई होती थी। इसके परिणामस्वरूप, रोमन लिपि का प्रयोग बढ़ा और धीरे-धीरे यह सामान्य हो गया। उदारीकरण के बाद से मध्यमवर्गीय और उच्च वर्गीय परिवारों में अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाई ना केवल सामान्य बात हो गई है बल्कि ज़रूरत बन गयी है। इसी वर्ग के शिक्षित लोग देश की तमाम संस्थाओं का संचालन कर रहे हैं जिनमें फिल्म उद्योग भी शामिल है और ज़ाहिर है कि इनकी भाषा अंग्रेज़ी हो चुकी है।
जब शिक्षा का अंग्रेजीकरण हो चुका है तो यह सामान्य सी बात है कि शिक्षित भारतीय अंगेरजी में ही दक्ष हो रहे हैं। हिंदी भाषी क्षेत्रों के हिंदी माध्यम से पढ़े युवाओं को जब इस नयी पीढी के शिक्षित वर्ग से मुकाबला करना होता है तो वे खुद को असहाय पाते हैं और वे भी अंग्रेजी भाषा सीखने लगते हैं। हिंदी सिनेमा के किसी भा बड़े समारोह में संवाद अंग्रेजी में ही होता है। हिंदी जानने वाले और रोज़मर्रा की ज़रूरतों में हिंदी बोलने लिखने वाले फिल्मी दुनिया के लोग ऐसे समारोहों में अंगंरेज़ी में ही बात करते हैं। संक्षेप में भारत में रोज़गार की प्रमुख भाषा अंग्रेजी हो चुकी है। जिस समाज में हिंदी वर्णमाला की पूरी जानकारी ना रखने वाले शिक्षित युवाओं की विशाल संख्या हो वहां कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे हिंदी टाइपिंग जानने लगें। अपने घर और मोहल्ले के आस पास सर्वेक्षण करके देख लीजिए कि कितने शिक्षित युवा या तो हिंदी टाइपिंग जानते हैं या उसमें सहज हैं। और यही युवा तो फिल्म क्षेत्र में पहुंच रहे हैं।
सिनेमा में हिंदी भाषा को लेकर जो बुनियादी कमज़ोरियां, कमियां और ज़रूरतें हैं उन पर ईमानदारी से ध्य़ान दिए बिना सिनेमा के अंग्रेजीदां लोगों को कोसने भर से हालात में बदलाव संभव नहीं। ईमानदारी की बात तो यह है कि कंप्यूटर, लैपटॉप और मोबाइल डिवाइसों के युग में स्क्रिप्ट और संवाद अब डिजिटल रूप में लिखे जाने लगे हैं। अंग्रेज़ी टाइपिंग सभी की पहुँच में है, जबकि हिंदी टाइपिंग के लिए विशेष कीबोर्ड, सॉफ्टवेयर और कौशल की ज़रूरत होती है। इसके चलते लेखक, निर्देशक और सहायक कर्मी संवादों को रोमन लिपि में लिखना अधिक सुविधाजनक समझते हैं जो सभी के लिए पढ़ने योग्य होता है। आज का शहरी भारत जिस भाषा में बात करता है, वह विशुद्ध हिंदी नहीं, बल्कि ‘हिंग्लिश’ है यानी हिंदी और अंग्रेज़ी का एक अनौपचारिक मिश्रण। फिल्मों की स्क्रिप्ट में यह शैली बहुत आम हो गई है। इसलिए संवाद लेखन में भी वही लहजा अपनाया गया है।हिंग्लिश संवादों को रोमन में लिखना, संवाद अदायगी और रिहर्सल के दौरान अधिक व्यावहारिक बन गया है।
आज हिंदी फिल्में सिर्फ भारत तक सीमित नहीं हैं। वे दुनियाभर में रिलीज़ होती हैं, विदेशी निवेशकों के साथ बनती हैं, और अंतरराष्ट्रीय महोत्सवों में दिखाई जाती हैं। अंग्रेज़ी भाषा में स्क्रिप्ट या रोमन में संवाद लिखने से विदेशी निर्माता, वितरक और तकनीशियन उसे समझ पाते हैं। यह वैश्विक संचार की दृष्टि से फायदेमंद है, पर यह भी सच है कि इसके कारण मूल भाषा का सौंदर्य कहीं ना कहीं कम होता है। जब संवाद देवनागरी लिपि में लिखे जाते हैं, तो भाषा की लय, भाव और उच्चारण स्वाभाविक होते हैं। मगर रोमन लिपि में लिखने से कई बार भावार्थ बदल जाता है या गहराई कम हो जाती है। खासकर गीतों, कविताओं और गहरे भावनात्मक संवादों में यह अधिक महसूस होता है। यह एक सांस्कृतिक नुकसान भी है, क्योंकि भाषा केवल शब्द नहीं, बल्कि संस्कृति, संवेदना और पहचान का माध्यम होती है।
पिछली पीढ़ी के गीतकार जैसे , प्रदीप, शैलेंद्र, योगेश, साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी, शकील बदायूनी, मजरूह सुल्तानपुरी, राजेंद्र कृष्ण, अंजान, इंदीवर और गुलज़ार जैसे लेखक जिस साहित्यिक पृष्ठभूमि से आए वहां उर्दू और हिंदी का मिला जुला माहौल होता था। आज प्रसून जोशी, राजशेखर, इरशाद कामिल, अमिताभ भट्टाचार्य, मनोज मुंतशिर जैसे गीतकार हिंदी और अंग्रेज़ी के मिले जुले साहित्ययिक परिवेश से आए हैं। यही सूरते हाल संवाद लेखन में भी है। लेकिन हिंदी सिनेमा की भाषा को लेकर महत्वपूर्ण बदलाव यह आया है कि आजकल ज़्यादातर फिल्म मेकर और पटकथा लेखक फिल्म स्कूलों या वर्कशॉप्स से आते हैं, जहाँ अंग्रेज़ी में ट्रेनिंग दी जाती है। परिणामस्वरूप, स्क्रिप्ट भी अंग्रेज़ी में ही लिखी जाती है। सिनेमा अपने समाज का सच्चा प्रतिनिधित्व माना जाता है और समाज में जो हो रहा है वह सिनेमा में दिखायी सुनाई पड़ रहा है। साहित्यिक हिंदी की गूंज तो हमारे समाज में ही अब पहले जैसी नहीं रही इसलिये फिल्मों में भी कम सुनाई दे रही है।
हिंदी सिनेमा में अंग्रेज़ी और रोमन लिपि का उपयोग एक व्यावहारिक निर्णय हो सकता है, लेकिन यह अनिवार्य नहीं है। यदि हम अपनी भाषा, लिपि और सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करना चाहते हैं, तो हमें फिल्मों के निर्माण में देवनागरी लिपि को सम्मानजनक स्थान देना होगा। सरकार और फिल्म संस्थानों को चाहिए कि वे हिंदी टाइपिंग, देवनागरी लिपि के उपयोग और हिंदी संवाद लेखन को प्रोत्साहित करें। इससे नई पीढ़ी के लेखकों को भी दिशा मिलेगी और भाषा का संरक्षण होगा।
यह काम मुश्किल भी नहीं हैं। तकनीक अब इतनी विकसित हो चुकी है कि हिंदी में टाइप करना पहले से कहीं आसान हो गया है। हिंदी भाषा क्षेत्र के कुछ लेखक अब देवनागरी लिपि में स्क्रिप्ट लिखने लगे हैं, खासकर जो डिजिटल प्लेटफॉर्म्स या वेब सीरीज़ के लिए काम करते हैं। इस दौर में हिंदी सिनेमा में दूसरे बदलावों के साथ भाषा का बदलाव अच्छा है या बुरा, सही है या ग़लत, ज़रूरी है या ग़ैरज़रूरी इस पर चर्चा और बहसें होती रहेंगी लेकिन सबसे बड़ा सच यह है कि हिंदी फिल्मों ने बोलचाल की हिंदी भाषा के विस्तार में अभूतपूर्व योगदान दिया है और अब इस योगदान की रफ्तार बहुत सुस्त होती जा रही है। इक़बाल रिज़वी
