।महान गुरु श्री श्री परमहंस योगानन्द ने, जिनका शिष्य समुदाय मानवजाति के सभी वर्ण- वर्गों में फैला हुआ है, और जिनकी इस जगत में उपस्थिति ने अगणित लोगों के लिये ईश्वर- साक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त कर दिया, उच्चतम सत्यों को ही अपना जीवन बनाया और उन्हीं की शिक्षा दी।
आत्मानुसंधान केंद्र की निदेशिका पारोमिता सरकार ने बताया कि परमहंस योगानन्द जी का जन्म 5 जनवरी, 1893 को एक बंगाली परिवार मे गोरखपुर में हुआ। माता-पिता ने उनका नाम मुकुन्द लाल घोष रखा। जन्म के कुछ समय पश्चात् उनकी माताश्री उन्हे इपने गुरु श्री श्री लाहिडी महाशय के आशिर्वाद के लिए वाराणसी ले गई। महान गुरु ने उनकी माताश्री से कहा ‘छोटी माँ, तुम्हारा पुत्र एक योगी होगा। एक आध्यात्मिक इंजन की तरह वह अनेकानेक लोगों को ईश्वर के अधिराज्य में ले जायेगा।’’ योगानन्द जी में जन्म से ही ईश्वर- प्राप्ति की परम आकांक्षा बनी हुई थी। परमसत्य की खोज के क्रम में वे अपने गुरु श्री युक्तेश्वर गिरि जी के पास पहुँचे। सन् 1915 में 10 वर्षाें के आध्यात्मिक प्रशिक्षण के बाद के योगानन्द जी ने संन्यास का स्वामी पद ग्रहण किया। युवकों की शिक्षा में परमहंस जी की गहन अभिरूचि थी। सन् 1918 में कासिम बाजार के महाराज के महाराज श्री मणीन्द्र चन्द्र नंदी ने राँची में अपने महल व पच्चीस एकड़ भूमि आश्रम एवं विद्यालय के रूप मे
दी, जिसे योगदा सत्संग ब्रह्मचर्य विद्यालय कहा जाता था। तत्पश्चात् यह योगदा सत्संग शाखा मठ बना जो पत्राचार कार्यालय और योगदा सत्संग पाठशाला एवं योगदा सत्संग सोसाइटी आॅफ इण्डिया (वाई. एस. एस.) को एक असांप्रदायिक और धर्मार्थ संस्था के रूप में पंजीकृत करवाया। वाई. एस. एस. का पंजीकृत मुख्य कार्यालय योगदा सत्संग मठ है, जो कि दक्षिणेश्वर,डी कोलकाता में गंगा के किनारे स्थित है। 1920 में उन्हें उन्हेें गुरु ने अमेरिका में हो रहे उदारवादी के विश्व धर्म सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधि के रूप में भेजा। सम्मेलन के पश्चात बोस्टन, न्यूयाॅर्क, फिलाडेल्फिया में दिये गये उनके व्याख्यानों का अत्यंत उत्साह के साथ भव्य स्वागत हुआ, और 1924 में उन्होंने सम्पूर्ण अमेरिका में दौरे करते हुए व्याख्यान दिये। अगले दशक में परमहंस जी ने व्यापक यात्राएँ की जिनमें उन्होंने अपने व्याख्यानों और कक्षाओं के दौरान हजारों नर-नारियों को ध्यान के यौगिक विज्ञान एवं संतुलित आध्यात्कि जीवन की शिक्षा प्रदान की। 1917 में योगदा सत्संग सोसाइटी आॅफ इण्डिया तथा 1925 में लाॅस एंजिलिस (यू.एस.ए) में सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप के अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय की स्थापना के साथ जो कार्य उन्होंने शुरू किया, वह आज श्री श्री दया मता के मार्गदर्शन में चल रहा है। परमहंस योगानन्द जी की रचनाएँ, उनके व्याख्यान, कक्षाएँ, अनौपचारिक भाषण इत्यादि का प्रकाशन करने के साथ-साथ (जिसमें क्रिया योग ध्यान पर विस्तृत पाठशाला शामिल है), यह सोसाइटी योगदा सत्संग/सेल्फ-रियलाइज़ेशन मंदिरों, आश्रमों एवं ध्यान केन्द्रों की देखभाल करती है जो सारे विश्व में फैले हुए हैं। इसके अलावा यह संन्यास प्रशिक्षण कार्यक्रम एवं विश्व प्रार्थना मंडल का भी संचालन करती है जो आवश्यकताग्रस्तों की देवी सहायता तथा सारे विश्व के लिये सामजस्य एवं शांति के माध्यम का कार्य करती है।
परमहंस योगानन्द के जीवन एवं उनकी शिक्षाओं का वर्णन उनकी आत्मकथा ‘योगी कथामृत’ में उपलब्ध है, कोलकाता विषश्वविद्यालय के स्नातक श्री योगानन्दजी का यह ग्रन्थ अविस्मरणीय निष्ठा, प्रखर ज्ञान और दैवी उत्साह से भरपूर है। उनकी यह पुस्तक एक उत्कृष्ट ग्रन्थ सिद्ध हुई और 21 भाषाओं में अनुवादित हो चुकी है। जो 1946 में उसके प्रकाशन के बाद आध्यात्मिक क्षेत्र में गौरव ग्रन्थ बन गयी है तथा अब विश्व तथा भारत भर में कई महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में पाठ्य-पुस्तक तथा सन्द्र्भ-ग्रन्थ के रूप में प्रयोग में लायी जा रही है। परमहंस जी द्वारा रचित पाठशाला, पुस्तकों एवं प्रवचनों में धर्म निरपेक्ष, आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ स्वस्थ एवं नैतिक जीवन जीने के लिए सही मार्गदर्शन भी मौजूद। आधुनिक भाषा में लिपटे गहरे अर्थों एवं वैज्ञानिक मीमांसा से युक्त उनकी पाठमाला सच्चे साधकों को घर बैठे अध्ययन के लिए डाक द्वारा भेजी जाती है। इसमें सब धर्मों की एकता, मानवमात्र में बंधुत्व की भावना का महान संदेश और परमात्मा की अनन्यता का ज्ञान एवं अनुभूति प्राप्त होती है वे अपने श्रोताओं को निरंतर स्मरण कराते रहे कि बंधु-बांधवों की सेवा द्वारा हम अपने ही व्यापक आत्म को सुखी करते है। क्रियायोग की प्रक्रियाओं के शिक्षण से दीक्षित साधकों को बाहरी एवं आंतरिक तनावों, भ्रांत धारणाओं, घृणा, भय और असुरक्षा से विदीर्ण जगत में आंतरिक शांति, आनंद, विवेक, प्रेम और परिपूर्णता को पाने की कुंजी प्राप्त हुई। अपने जीवन काल में और उसके बाद भी अपने आध्यात्मिक संदेश को दूर-दूर तक प्रसारित करने और अपने मिशन के उत्तरोतर विकास को एक सुदृढ़ संगठनात्मक आधार प्रदान करने के लिए उन्होंने भारत में योगदा सत्संग सोसायटी और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में सेल्फ रियलाइजेषन फैलोशिप की स्थापना की जिसकी शाखाएं समूचे संसार में हैं। परमहंस योगानन्द जी द्वारा प्रतिपादित आदर्श जीवन-पद्धति पर आधारित विद्यालय तथा अन्य शिक्षा- संस्थानों का संचालन इन गतिविधियों में से एक है। योगदा सत्संग सेवा श्रम (अस्पताल) तथा अनेक अन्य निःशुल्क स्वास्थ्य केन्द्रों के माध्यम से निर्धनों की स्वास्थ्य सेवओं में भी संलग्न है। कुष्ट रोगियों, तपेदिक के रोेगियों तथा निर्धनों की चक्षु-शल्य-चिकित्सा की ओर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। एक अन्य अनूठी एवं उत्कृष्ट सेवा जो यो.स.सो. प्रदान कर रही है, वह है- ‘विश्व-व्यापी प्रार्थना-समूह’। परमहंस योगानन्द जी ने योगदा सत्संग आॅफ इंडिया/रीयलाइजेषन फैलाेशिप के सन्यासी शिष्यों में एक प्रार्थना सभा यो.स.सों./सै.री.फै. के सदस्यों एवं मित्रों में एक विश्व-व्यापी प्राथना समूह की स्थापना की जिसके अन्तर्गत प्रतिदिन ये भक्त उन सब के लिए गहन प्रार्थना करते है, जिन्हें प्रभु की सहायता की आवश्यकता है। इस के माध्यम से संहस्त्रों जन शारीरिक मानसिक तथा आध्यात्मिक लाभ प्राप्त कर चुके हैं। महान गुरु की महासमाधि ऐसा कहा जाता है कि एक ईश्वर-प्राप्त योगी अपने भौतिक शरीर का आकस्मिक रूप से त्याग नहीं करता। उनको पृथ्वी से अपने महाप्रयाण के समय का पूर्व ज्ञान होता है। अपने अंतिम वर्षों से परमहंस जी ने अंतरंग शिष्यों को कई संकेत दिये कि वे मार्च 1952 में शरीर छोड़ देंगे। 7 मार्च, 1952 को भारतीय राजदूत श्री विनय रंजन सेन के सम्मान में आयोजित भोज के अवसर पर भाषण के लिए परमहंस योगानन्द जी को आमंत्रित किया गया था। महान गुरु पूरी तरह से स्वस्थ प्रतीत हो रहे थे। उनका भाषण संक्षिप्त था। पूरे सभागार में एक गहरी शान्ति छा गई। ऐसा लगता था जैसे पूरी सभा महान गुरु के शान्ति तथा प्रेम के अपूर्व सपंदनों के प्रभाव में थी। उन्होंने अपने भाषण को अपनी कविता ‘मेरा भारत’ की कुछ पंक्तियों से समापन किया: ‘जहाँ गंगा, वन, हिमालय की गुफायें और जहाँ मानव ईश-चिन्तन में डुबा हुआ’…. और इन शब्दों के साथ परमहंस जी परम शान्ति में विलिन हो गये: उनके चेहरे पर एक मोहक मुस्कान थी।जीवन एवं मृत्यु में योगी परमहंस योगानन्द जी ने जीवन में ही नहीं वरन मृत्यु में भी सिद्ध कर दिया कि वे महान योगी थे। उनके देहावसान के कई सप्ताह बाद भी उनका अपरिवर्तित चेहरा अक्षयता की दिव्य कान्ति से देदीप्यमान था। फाॅरेस्ट लाॅन मेमोरियल-पार्क लाॅस ऐंजेलिस (जहां महान् गुरु का पार्थिव शरीर अस्थायी रूप से रखा गया है) के निदेशक श्री हैरी टी रौवे ने सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप को एक प्रमाणित पत्र भेजा था, जिसके कुछ अंश इस प्रकार है: ‘शवागर के इतिहास में जहाँ तक विदित है, पार्थिव शरीर के ऐसे परिपूर्ण संरक्षण की यह अवस्था अद्वितीय है।’ इस ईश्वर-विहित कार्य, एक दृढ़ आध्यात्मिक संकल्प, ईश्वर के लिए अप्रतिबंधित संपूर्ण समर्पित जीवन, पूर्व और पश्चिम के बीच एक सजीव सेतु-ये विशिष्टताएं परमहंस योगानन्द जी के जीवन और कार्य का सारांश प्रस्तुत करती हैं।