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राजकपूर की फिल्मो की लोकप्रियता जितनी देश मे थी उससे कहीं अधिक विदेशों मे सराहा गया खासतौर पर सोवियत रूस मे आज भी लोग जितना अभिनेता राजकपूर को जानते हैं उतना अन्य किसी भारतीय फिल्म अभिनेताओं को नहीं। रूसी जनता श्री राजकपूर को भारतीयता की प्रतिमूर्ति के रुप मे मानती गुनती है।
देश को अंग्रेजी शासन से आजादी मिलने के लगभग आठ साल बाद राज कपूर की श्री 420 प्रदर्शित हुयी थी जो कि उनके निर्देशन में बनने वाली चौथी फ़िल्म थी| भारत का अपना संविधान लागू हुए भी पांच साल हो चुके थे| पहली पांच वर्षीय योजना के भी तीन साल पूरे हो चुके थे और देश में भाखडा नांगल और हीराकुडजैसे विशालकाय बाँध बनाए जाने के संकल्प पर कार्य चलने लगा था, पांच बड़े स्टील उधोगों की स्थापना का संकल्प ले लिया गया था| निकट भविष्य में देश भर में पांच आई.आई.टी खोले जाने की योजना भी ठोस रूप लेने लगी थी| यूजीसी का प्रारूप सामने आने लगा था| देश के सामने स्वप्न थे देश को आत्मनिर्भर,आधुनिक, एवं खुशहाल बनाने के।
गांधी नहीं रहे थे और उनके पूर्ण स्वराज, ग्राम स्वराज और पूर्णतः स्वदेशी जैसे सपने भले ही पृष्ठभूमि में चले गए हों पर देश ने आत्मनिर्भर होने का सपना तो नहीं छोड़ा, फिर शैलेन्द्र ने राज कपूर की इस बड़े फलक वाली समाजवादी स्वर वाली फ़िल्म के लिए यह क्या लिख दिया–मेरा जूता है जापानी,ये पतलून इंगलिस्तानी सर पे लाल टोपी रूसी,फिर भी दिल है हिंदुस्तानी।
जबकि भारतीय जज्बा यही था कि सब कुछ स्वदेश में ही निर्मित हो और भारतीय लोग भारत में बने सामान को इस्तेमाल करने में फख्र महसूस करें तब जापानी जूते,अंगरेजी पतलून और रूसी टोपी आयात करके स्वाभिमान की रक्षा कैसे हो सकती थी?
क्या यह एक साधारण सा गीत है जिसे राज कपूर, चार्ली चैप्लिन सरीखे मस्ती भरे अंदाज़ में परदे पर प्रस्तुत करते हैं? या कि शैलेन्द्र और राज कपूर इस गीत के माध्यम से कुछ कहना चाहते थे उस समय के भारत से?
यह गीत फ़िल्म की शुरुआत होने के एकदम बाद ही परदे पर आ जाता है| एक लंबी सड़क पर चल रहे थकान से भरे हुए राज (राज कपूर) को कोई भी वाहन लिफ्ट नहीं देता और तब वह चालाकी से सेठ सोनाचंद धरमचंद (नीमो) की कार के सामने गिर पड़ता है और सेठ के आदेशानुसार कार में लाया जाता है पर हकीकत बयान करने पर राज को कार से बाहर कर दिया जाता है।
यह भूला नहीं जा सकता और न ही फ़िल्म यह बात भूलने ही देती है कि यह राज कपूर की फ़िल्म है जिनकी फ़िल्म में हर बात बामकसद ही मौजूद रह सकती है| हर दृश्य की कुछ सार्थकता है, पूरे कथानक से कुछ महत्वपूर्ण जुड़ाव है| बल्कि फ़िल्म के दृश्य आगे आने वाले दृश्यों के लिए उर्वरा भूमि तैयार करते रहते हैं और एक श्रंखला की महत्वपूर्ण कड़ियाँ बनते चले जाते हैं।
फ़िल्म में आगे ऐसा दिखाया भी जाता है कि सेठ सोनाचंद धरमचंद चुनाव लड़ रहा है और चुनावी सभा को संबोधित कर रहा है और उसकी सभा के सामने ही राज भी दन्त मंजन बेचने के लिए मजमा लगाए खड़ा है।
सेठ सोनाचंद धरमचंद बड़े फख्र से अपनी पोशाक का जिक्र करता है और कहता है सर से पाँव तक वह खादी के वस्त्र धारण किये हुए है और वह पूर्णतः स्वदेशी की बात छेडता है| दूसरी और राज जनता को अपनी लगभग फटेहाल वेशभूषा का परिचय गीत के मुखड़े के रूप में ही देता है।
मेरा जूता है जापानी,ये पतलून इंगलिस्तानी सर पे लाल टोपी रूसी,फिर भी दिल है हिंदुस्तानी
क्या शैलेन्द और राज कपूर ने सत्ता की तरफ लपकने वाले सदैव स्वहित की बात करने वाले अवसरवादी लोगों की तरफ इशारा किया जो अंगरेजी कला में तो खादी से नफ़रत करते थे अपर जब भारतीय राज की पुनर्स्थापना हुयी तो देश और जनता का मूड भांप कर वे खादी की बात करने लगे| खादी ने जो सम्मान हासिल किया था संघर्ष के दशकों में उसने उसे राजनेताओं के लिए एक सम्मानीय वेशभूषा बना दिया था और राजनीति में आने वालों के लिए एक तरह से सुरक्षित कवच का काम करने लगी थी।
बेहद अमीर सेठ सोनाचंद धरमचंद भी नेता बनने के लिए जनता में खादी की साख को भुनाना चाहता है, जबकि खादी की आड़ में वह जमाखोरी, काला बाजारी और तमाम तरह के काले धंधों में लिप्त रहता है।
गरीब बेरोजगार राज के लिए खाने पहनने का संकट है और फ़िल्म क्या यह बताने की कोशिश करती है कि वह पूर्णतः स्वदेशी की शुद्धतावादी प्रकृति, अगर वह मंहगी पड़ती है, पर निर्भर नहीं हो सकता? या कि जापानी जूते, इंगलिस्तानी पतलून, और रूसी टोपी के रूपक के माध्यम से कुछ और सन्देश फ़िल्म देती है। एक दशक पहले हिरोशिमा-नागासाकी की बर्बरता झेल कर अपनी कर्मठता और जुझारूपन के बलबूते जापानी लोग अपने देश को तरक्की की राह पर अग्रसर कर रहे थे और इस तथ्य को मद्देनज़र रखते हुए जूतों को, जिन्हें पहनकर मनुष्य कहीं से कहीं पहुँच जाता है, जापानी पहचान देना एक आकर्षक प्रयोग हो सकता था उस काल में ।
गर्म जलवायु वाले और मिजाज से शांत देश भारत में रहने वाले लोग अधिकतर ढीले – ढाले वस्त्र ही पहनते रहे थे और यही स्वाभाविक भी था, पतलून पहनने वाले अंग्रेजों ने भारत पर लगभग दो सौ साल तक अपना राजीनतिक-सैन्य और आर्थिक कब्जा बनाए रखा| क्या इसी तथ्य को ध्यान में रखकर इंग्लिस्तानी पतलून की बात की गयी?
पचास के दशक से पहले ही भारत का रुझान समाजवाद की और था और साम्यवादी रूस से अच्छे तालुक्कात देश के बने हुए थे। भारत में भी साम्यवाद के लाल झंडे को फहराने की कोशिशे राजनीतिक स्वतंत्रता के बाद भी बंद नहीं हुयी थीं। फ़िल्म के लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास घोषित रूप से साम्यवादी थे और शैलेन्द्र भी इप्टा के सक्रिय सदस्य थे और यह स्वाभाविक था उन दोनों के लिए कि वे अपने विचारों के सामाजिक और राजनीतिक रुझानों को अपने रचनात्मक कर्मों में ढालने की कोशिश करते।
या कि गीत का मुखडा शुरुआत में उद्घृत महात्मा गांधी की कही बात के सन्देश को प्रचारित करने की कोशिश करता है कि भारत किसी भी देश की अच्छी बातों को स्वीकार करने और अपनाने के लिए तैयार था और बाहर से बहुत कुछ अपनाने के बावजूद भी दिल हिन्दुस्तानी ही था! हो सकता है कि ख्वाजा अहमद अब्बास, शैलेन्द्र और राज कपूर के दिमाग में ऐसी सभी संभावनाएं रही हों। बहरहाल मुखड़े के उपरान्त अंतरों में गीत अपने अलग रंग में आ जाता है
निकल पड़े हैं खुली सड़क परअपना सीना ताने मंज़िल कहाँ,कहाँ रुकना है ऊपर वाला जाने
बढ़ते जायें हम सैलानी, जैसे एक दरिया तूफ़ानी सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी
ऊपर नीचे नीचे ऊपर लहर चले जीवन की नादाँ हैं जो बैठ किनारे पूछें राह वतन की।
चलना जीवन की कहानी, रुकना मौत की निशानी सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी
गीत के उपरोक्त्त दोनों अंतरे जीवन में दर्शन के प्रभाव से भी बहुत प्रभावित दिखाई देते हैं| जीवन में उतारा-चढ़ाव् तो आयेंगे ही पर उनसे घबराकर रुक जाने से न केवल जीवन में प्रगति की राह बाधित हो सकती है बल्कि जीवन ही रुक सकता है| कहीं किसी खास मंजिल पर पहुँचने के लिए चलना तो शुरू करना ही पड़ता है।
अंतिम अंतरे में गीत एक तरह से व्यक्तिवादी हो जाता है। गीत अब भी एक तरह के बहुत सारे व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है।
होंगे राजे राजकुँवर हम बिगड़े दिल शहज़ादे हम सिंहासन पर जा बैठे जब जब करें इरादे
सूरत है जानी पहचानी, दुनिया वालों को हैरानी सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी
अंतिम मुखडा लोकतंत्र की वकालत करता है और एक साधारण व्यक्ति के भी शीर्ष स्थान पर जा पहुँचने की संभावना की बात करता है। यह विरासत में धन- और सुख सुविधा पाकर सत्ता पर काबिज व्यक्तियों के विरुद्ध आम जन की शक्ति की बात करता है| यह साधारण व्यक्ति की ठसक है, यह स्वाभिमानी व्यक्ति का फक्कड़पन है, चाहे तो सिंहासन धुल कर दे या धुल की माफिक समझ ले और चाहे तो सताधारियों को सत्ताच्यूत करके सुशासन की स्थापना करने के लिए जनता का शासन ले आये। सत्य दर्शन