बाल दिवस पर विशेष
बाल दिवस बच्चों को समर्पित भारत का राष्ट्रीय त्योहार है, पर साल दर साल बाल दिवस एक भयावह तस्वीर के साथ आता है। बाल दिवस बच्चों के लिए त्योहार की तरह माना जाता है लेकिन आज के दिन भी हजारों लाखों नौनिहाल ढाबों-दुकानों व कारखानों में बर्तन मांजते दिखाई दे जाएंगे। इन बच्चों को पता तक नहीं होता है कि आज बाल दिवस है और उसके क्या मायने होते हैं। बाल अधिकारों की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। उनके बचपन के सपनों को रौंदा जा रहा है लेकिन सुध लेने वाला कोई नहीं। जुबानी और कागजी कार्रवाई की कमी नहीं है। सालों से सर्व शिक्षा अभियान के नाम पर इनके साथ भद्दा मजाक किया जा रहा है। करोड़ों बच्चे आज भी शिक्षा से महरूम हैं। सर्व समानता शिक्षा से ही बाल दिवस के मायने समझे जाएंगे। समाज के उच्चवर्ग ने गरीब बच्चों को शिक्षा से एक तौर पर बहिष्कृत ही कर दिया है, ऐसे में शोषित बच्चों के लिए बाल दिवस महज मजाक बन जाता है।
बाल अधिकारों पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की हालिया पेश रिपोर्ट तो और भी डरावनी है। यह रिपोर्ट बताती है कि देश में हर वर्ष 44 हजार बच्चे लापता हो जाते हैं। बच्चों के गायब होने की अगली कड़ी में आते हैं, निठारी कांड जैसे सच! जहां सैकड़ों बच्चों के कंकाल मिले थे। आज तक नहीं पता चल सका कि वे कंकाल किन बच्चों के थे। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय का कहना है कि देश के 53-22 फीसद बच्चे किसी न किसी रूप में यौन शोषण का शिकार हो रहे हैं। इस शोषण के दायरे में सभी बच्चे आ जाते हैं।
उनके बीच किसी तरह की कोई सीमा रेखा नहीं है। बच्चों के यौन शोषण के खतरे जितने तंग बस्तियों में हैं, उससे अधिक कहीं आलीशान इमारतों, बंगलों में हैं।
देश तरक्की कर रहा है और बचपन पिछड़ रहा है। गरीब बच्चों के चेहरे से मासूमियत खत्म होती जा रही है। भारत की आधी सदी के बाद और शेयर बाजार के पचास हजार के जादुई आंकड़े को छूने, विकास दर के दस फीसदी के नजदीक मंडराने के बाद भी झुग्गियो, असंगठित श्रमिकों के बच्चों के रहन- सहन में कोई बदलाव नहीं आया है। कॉलोनियों के बाहर पड़े कूडेदानों में जूठन तलाशते मासूमों, पन्नी बटोरने वालों की संख्या करोड़ों में है। मां-बाप के प्यार से वंचित, सरकारी अनुदानों, राहतों की छांव से विभिन्न कारणों से दूर इन बहिष्कृत बच्चों को दो वक्त की रोटी तक नसीब नहीं है। इस मामले में पूरी दुनिया की स्थिति गंभीर है। गरीब बच्चों को यह तक नहीं पता है कि बाल दिवस क्यों मनाया जाता है और इसके क्या मायने होते हैं?
बच्चों के बचपन को बचाने के लिए हमारे समक्ष नई चुनौतियां हैं। हिंदुस्तान के शहरी, ग्रामीण और अमीर-गरीब की विभाजक रेखा ने बच्चों को दो हिस्सों में बांट दिया है। पहली श्रेणी में वे हैं, जो सुबह तैयार होकर, टिफिन लेकर स्कूल के लिए रवाना होते हैं, तो दूसरी कतार में वे बच्चे हैं, जिनको सुबह से ही दोपहर की एक अदद रोटी की तलाश में घरों से बाहर निकलना पड़ता है। दोनों वर्गों के बच्चें सुबह घरों से बाहर जरूर निकलते हैं पर राहें दोनों की जुदा होती हैं। तो जाहिर सी बात है कि दूसरी राह में जाने वाले बच्चों के लिए बाल दिवस के लिए कोई महत्व नहीं है। बाल दिवस उनके लिए है, जो अपने लंच बॉक्स में फॉस्ट फूड ठूंस-ठूंस कर ले जाते हैं। महानगरों के मोटियाते बच्चों के लिए बाल दिवस पर चाचा नेहरू के विचारों को रटना अब एक फैशन है। स्टेट्स सिंबल है। सो बाल दिवस इन्हीं बच्चों का है।
चौदह नवंबर को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन होता है। इसे बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है क्योंकि उन्हें बच्चों से बहुत प्यार था और बच्चे उन्हें चाचा नेहरू पुकारते थे। देश की आजादी में भी नेहरू का बड़ा योगदान था।
प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने देश का उचित मार्गदर्शन किया था। बाल दिवस बच्चों के लिए महत्वपूर्ण दिन होता है। इस दिन स्कूली बच्चे बहुत खुश दिखाई देते हैं। वे सज-धज कर विद्यालय जाते हैं। विद्यालयों में बच्चे विशेष कार्यक्रम आयोजित करते हैं। अच्छा तब होगा जब इस दिन को पूरे देश के सभी बच्चे एक साथ और एक जैसे मनाएं। इसके लिए इच्छाशक्ति की जरूरत है।
केंद्र सरकार व राज्य सरकारें सर्व शिक्षा अभियान की सफलता की बात करती हैंं। लेकिन सच्चाई मौजूदा स्थिति से कितनी जुदा हैं उनको भी पता है। गरीब बच्चों के लिए कागजों में खूब काम होते हैं लेकिन धरातल पर कुछ नहीं। नेता अपने घरों के सामने ईंट और रेती उठाते मजदूरों के बच्चों को देख आँखें मूँद लेते हैं। क्या बाल मजदूर शिक्षा के अधिकारी नहीं है? क्या आज बच्चों की प्रगति का सपना केवल कागजों पर ही पूरा हो रहा है या फिर हकीकत में इनके सपने सच होते नजर आ रहे हैं। कारखानों में बच्चे शोषण के शिकार हो रहे हैं। उनकी कोई सुध नहीं लेने वाला?
मौजूदा आंकड़ों पर गौर करें तो इस समय लगभग 25 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं, जो चाय की दुकानों पर नौकरों के रूप में, फैक्ट्रियों में मजदूरों के रूप में या फिर सड़कों पर भटकते भिखारी के रूप में नजर आ ही जाते हैं। इनमें से कुछेक ही बच्चे ऐसे हैं, जिनका उदाहरण देकर हमारी सरकार सीना ठोंककर देश की प्रगति के दावे को सच होता बताती है। मजदूरी करने वाले बच्चों में लगभग 53-22 प्रतिशत बच्चे शोषण का शिकार होते है। इनमें से अधिकांश बच्चे अपने रिश्तेदारों या मित्रों के यौन शोषण का शिकार है। अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञता व अज्ञानता के कारण ये बच्चे शोषण का शिकार होकर जाने-अनजाने कई अपराधों में लिप्त होकर अपने भविष्य को अंधकारमय कर रहे हैं।
ध्यान इस बात पर होना चाहिए कि बाल दिवस सभी बच्चों के लिए एक समान होना चाहिए। सुविधासंपन्न बच्चे तो सब कुछ कर सकते हैं परंतु यदि सरकार देश के उन नौनिहालों के बारे में सोचे, जो गंदे नालों के किनारे कचरे के ढेर में पड़े हैं या फुटपाथ की धूल में सने हैं। उन्हें न तो शिक्षा मिलती और न ही आवास। सर्व शिक्षा के दावे पर दम भरने वाले भी इन्हें शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ नहीं पाते। पैसा कमाना इन बच्चों का शौक नहीं बल्कि मजबूरी है। अशिक्षा के अभाव में अपने अधिकारों से अनभिज्ञ ये बच्चे एक बंधुआ मजदूर की तरह अपने जीवन को काम में खपा देते हैं और इस तरह देश के नौनिहाल शिक्षा, अधिकार, जागरुकता व सुविधाओं के अभाव में अपने अशिक्षा व अनभिज्ञता के नाम पर सपनों की बलि चढ़ा देते हैं। वक्त का तकाजा है कि अगर हमें बाल दिवस मनाना है तो सबसे पहले हमें गरीबी व अशिक्षा के गर्त में फँसे बच्चों के जीवनस्तर को ऊँचा उठाना होगा तथा उनके अँधियारे जीवन में शिक्षा का प्रकाश फैलाना होगा। यदि हम सभी केवल एक गरीब व अशिक्षित बच्चे की शिक्षा का बीड़ा उठाएँगे तो नि:संदेह भारत प्रगति के पथ पर अग्रसर होगा तथा हम सही मायने में बाल दिवस मनाने का हक पाएंगे। (हिफी)