अहिंसा परमो धर्म अर्थात अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है. शांति और आत्म-नियंत्रण ही सही मायने में अहिंसा है. समय-समय पर देश-काल और हालात के अनुरूप भारत में कई दिव्य व्यक्ति अवतरित हुए, जिन्होंने समाज को एक नई और सार्थक दिशा दी। भगवान महावीर भी ऐेसे ही अवतारी पुरुष हुए।महावीर जयन्ती का पर्व महावीर स्वामी के जन्म दिन चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को मनाया जाता है। भगवान महावीर स्वामी, जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे जिनका जीवन ही उनका संदेश है। उनके सत्य, अहिंसा, के उपदेश एक खुली किताब की भाँति है। जो सत्य आम आदमी को कठिन प्रतीत होते हैं। महावीर ने एक राजपरिवार में जन्म लिया था। उनके परिवार में ऐश्वर्य, धन-संपदा की कोई कमी नहीं थी, जिसका वे मनचाहा उपभोग भी कर सकते थे किंतु युवावस्था में क़दम रखते ही उन्होंने संसार की माया-मोह, सुख-ऐश्वर्य और राज्य को छोड़कर यातनाओं को सहन किया। सारी सुविधाओं का त्याग कर वे नंगे पैर पैदल यात्रा करते रहे।मानव समाज को अन्धकार से प्रकाश की ओर लाने वाले महापुरुष भगवान महावीर का जन्म ईसा से 599 वर्ष पूर्व चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में त्रयोदशी तिथि को बिहार में लिच्छिवी वंश के महाराज ‘श्री सिद्धार्थ’ और माता ‘त्रिशिला देवी’ के यहां हुआ था। जिस कारण इस दिन जैन श्रद्धालु इस पावन दिवस को ‘महावीर जयन्ती’ के रूप में परंपरागत तरीके से हर्षोल्लास और श्रद्धाभक्ति पूर्वक मनाते हैं। बचपन में भगवान महावीर का नाम वर्धमान था। जैन धर्मियों का मानना है कि वर्धमान ने कठोर तप द्वारा अपनी समस्त इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर जिन अर्थात विजेता कहलाए। उनका यह कठिन तप पराक्रम के सामान माना गया, जिस कारण उनको महावीर कहा गया और उनके अनुयायी जैन कहलाए।
वर्धमान नाम
जन्मोत्सव पर ज्योतिषों द्वारा चक्रवर्ती राजा बनने की घोषणा की गयी। उनके जन्म से पूर्व ही कुंडलपुर के वैभव और संपन्नता की ख्याति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती गई। अत: महाराजा सिद्धार्थ ने उनका जन्म नाम ‘वर्धमान’ रखा। चौबीस घंटे दर्शनार्थिंयों की भीड़ ने राज-पाट की सारी मयार्दाएँ तोड़ दी। वर्धमान ने लोगों में संदेश प्रेरित किया कि उनके द्वार सभी के लिए हमेशा खुले रहेंगे।
वीर नाम
जैसे-जैसे महावीर बड़े हो रहे थे, वैसे-वैसे उनके गुणों में बढ़ोतरी हो रही थी। एक बार जब सुमेरू पर्वत पर देवराज इंद्र उनका जलाभिषेक कर रहे थे। तब कहीं बालक बह न जाए इस बात से भयभीत होकर इंद्रदेव ने उनका अभिषेक रुकवा दिया। इंद्र के मन की बात भाँप कर उन्होंने अपने अँगूठे के द्वारा सुमेरू पर्वत को दबा कर कंपायमान कर दिया। यह देखकर देवराज इंद्र ने उनकी शक्ति का अनुमान लगाकर उन्हें ‘वीर’ के नाम से संबोधित करना शुरू कर दिया।
सन्मति का नाम
बाल्यकाल में महावीर महल के आँगन में खेल रहे थे। तभी आकाशमार्ग से संजय मुनि और विजय मुनि का निकलना हुआ। दोनों इस बात की तोड़ निकालने में लगे थे कि सत्य और असत्य क्या है? उन्होंने ज़मीन की ओर देखा तो नीचे महल के प्राँगण में खेल रहे दिव्य शक्तियुक्त अद्भुत बालक को देखकर वे नीचे आएँ और सत्य के साक्षात दर्शन करके उनके मन की शंकाओं का समाधान हो गया है। इन दो मुनियों ने उन्हें ‘सन्मति’ का नाम दिया और खुद भी उन्हें उसी नाम से पुकारने लगे।
पराक्रम ने बनाया अतिवीर
युवावस्था में लुका-छिपी के खेल के दौरान कुछ साथियों को एक बड़ा फनधारी साँप दिखाई दिया। जिसे देखकर सभी साथी डर से काँपने लगे, कुछ वहाँ से भाग गए। लेकिन वर्द्धमान महावीर वहाँ से हिले तक नहीं। उनकी शूर-वीरता देखकर साँप उनके पास आया तो महावीर तुरंत साँप के फन पर जा बैठे। उनके वजन से घबराकर साँप बने संगमदेव ने तत्काल सुंदर देव का रूप धारण किया और उनके सामने उपस्थित हो गए। उन्होंने वर्द्धमान से कहा- स्वर्ग लोक में आपके पराक्रम की चर्चा सुनकर ही मैं आपकी परीक्षा लेने आया था। आप मुझे क्षमा करें। आप तो वीरों के भी वीर ‘अतिवीर’ है।