स्वप्निल संसार। प्रसिद्ध गणितज्ञ और दार्शनिक गॉटफ्राइड विल्हेम लिबनिज़ ( 1जुलाई 1646 – 14नवम्बर 1716) की 372 वीं जयंती के अवसर पर गूगल ने डूडल बनाकर उन्हें श्रद्धांजलि दी है। गाटफ्रीड विलहेल्म लाइबनिज जर्मनी के दार्शनिक, वैज्ञानिक, गणितज्ञ, राजनयिक, भौतिकविद्, इतिहासकार, राजनेता, विधिकार थे। उनका पूरा नाम ‘गोतफ्रीत विल्हेल्म फोन लाइब्नित्स’ था। गणित के इतिहास तथा दर्शन के इतिहास में उनका प्रमुख स्थान है।लैबनीज का जन्म जर्मनी के लिपजिग में 01 जुलाई 1646 को हुआ था। उनके पिता मोरल फिलॉसफी के प्रोफेसर थे। 1652 में छह वर्ष की अवस्था में लाइबनिज को लिपजिग स्थित निकोलाई स्कूल में पढ़ने के लिये भेजा गया। परन्तु दुर्भाग्यवश उसी वर्ष उनके पिता की मृत्यु हो गयी। इसके कारण उनकी पढ़ाई में काफी व्यवधान आने लगा। वह कभी स्कूल जाते थे तो कभी नहीं जा पाते थे । अब वह प्राय स्वाध्याय द्वारा विद्या-अर्जन करने लगे । पिता से उन्होंने इतिहास संबंधी काफी जानकारी प्राप्त की थी। इसके कारण उनकी अभिरुचि इतिहास के अध्ययन में काफी बढ़ गयी थी। इसके अलावा विभिन्न भाषाओं को सीखने में उनकी काफी अभिरुचि थी। आठ वर्ष की अवस्था में उन्होंने लैटिन भाषा सीख ली। बारह वर्ष की अवस्था में उन्होंने ग्रीक भाषा सीख ली। लैटिन में उसने कवितायें भी लिखनी शुरू कर दीं।
15 वर्ष की अवस्था में लाइबनिज ने लिपजिग विश्वविद्यालय में कानून के विद्यार्थी के रूप में प्रवेश पाया। इस विश्वविद्यालय में प्रथम दो वर्ष उन्होंने जैकौब योमासियस के निर्देशन में दर्शनशास्त्र के गहन अध्ययन में व्यतीत किये। इसी दौरान उसे उन प्राचीन विचारकों के बारे में जानकारी प्राप्त हुई जिन्होंने विज्ञान तथा दर्शन के विकास में क्रान्ति लाने का काम किया। इन महान विचारकों में शामिल थे फ्रैंसिस बैकन, केप्लर, कैम्पानेला तथा गैलीलियो इत्यादि।
अब लाइबनिज की अभिरुचि गणित के अध्ययन की ओर मुड़ गयी। इस उद्देश्य से उन्होंने जेना निवासी इरहार्ड वीगेल से सम्पर्क किया। वीगेल उस काल के महान गणितज्ञ माने जाते थे । कुछ समय तक वीगेल के अधीन गणित का अध्ययन करने के बाद उन्होंने अगले तीन वर्षों तक कानून का अध्ययन किया। उसके बाद उन्होंने डॉक्टर ऑफ लॉ की डिग्री हेतु आवेदन पत्र जमा किया। परन्तु उम्र कम होने के कारण लिपजिग विश्वविद्यालय ने उन्हें इसकी अनुमति प्रदान नहीं की। अत उसने लिपजिग विश्वविद्यालय छोड़ दिया तथा अल्ट डौर्फ विश्वविद्यालय में डॉक्टर ऑफ लॉ की डिग्री हेतु आवेदन जमा किया। यहाँ उसका आवेदन स्वीकार कर लिया गया तथा 1666 के नवम्बर में उसे डॉक्टर ऑफ लॉ की डिग्री प्रदान की गयी।हालाँकि लाइबनिज मूलत कानून का विद्यार्थी रह चुका था परन्तु उनकी अभिरुचि विज्ञान के विभिन्न विषयों (विशेषकर गणित) में काफी अधिक थी। 1669 में उन्होंने जैकौब थोमासियस को पत्र लिखा जिसमें बताया कि अरस्तू द्वारा प्रतिपादित भौतिकी के सिद्धांत प्राकृतिक क्रियाकलापों की व्यवस्था संतोजाजनक ढंग से करते हैं। परन्तु इन सिद्धांतों में अभी संशोधन की आवश्यकता है। 1671 में लाइबनिज ने `हाइपोथेसिस फिजिका नौवा’ शीर्षक से अपना शोधपत्र प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने विचार व्यक्त किया कि सभी खगोलीय क्रियाकलापों में ईथर की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
1671 में ही वह अपने शोधों के सिलसिले में पेरिस जाकर एंटोइन आर्नौल्ड, निकोलस मैलेब्रांके तथा क्रिश्चियन हॉयजन प्रमुख वैज्ञानिकों से मिले । उन्होंने गणित, यंत्र शास्त्र, ऑप्टिक्स, हाइड्रोस्टैटिक्स, न्युमैटिक्स तथा नौटिकल साइंस जैसे विषयों से संबंधित अनेक शोध पत्र प्रकाशित किये। इन शोधों में सबसे प्रमुख था `’कैलकुलेटिंग मशीन’ का आविष्कार। इस यंत्र के द्वारा अनेक प्रकार की गणनायें की जा सकती थीं। इस मशीन को लाइबनिज ने पेरिस में `एकेडमी डेस साइंसेज’ तथा लन्दन की `’रॉयल सोसायटी’ के समक्ष प्रस्तुत किया। इसके फलस्वरूप लाइबनिज को 1673 में रॉयल सोसायटी का सदस्य मनोनीत किया गया। इसी प्रकार 1700 में उन्हें `एकेडमी प्रेस साइंसेज’ का विदेशी सदस्य भी नियुक्त किया गया।
लाइबनिज वैज्ञानिक शोध के प्रति स्वयं तो पूरी तरह समर्पित थे ही, उन्होंने अन्य लोगों को भी इसके लिए प्रेरित किया। इसी उद्देश्य को ध्यान में रख कर उन्होंने 11 जुलाई 1700 को ‘बर्लिन एकेडमी’ की स्थापना की। इस एकेडमी के वह प्रथम अध्यक्ष चुने गये । इस एकेडमी का कार्यकलाप तथा इसके सदस्यों की संख्या दिन दूनी-रात चौगुनी बढ़ती गयी।
गणित के क्षेत्र में लाइबनिज द्वारा किये गये शोध काफी महत्वपूर्ण रहे हैं। उसने कैलकुलस के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। हालांकि कैलकुलस की शुरुआत काफी पहले ही यूनानी गणितज्ञों द्वारा वृत्त के क्षेत्रफल तथा बेलन, शंकु एवं गोलों के आयतन की गणना हेतु की जा चुकी थी, परन्तु वह कैलकुलस बिल्कुल प्रारम्भिक स्तर का था। लाइबनिज द्वारा कैलकुलस के विकास की दिशा में जो शोध किये गये वे मील के पत्थर साबित हुए। उन्होंने अवकलन (डिफरेंशियशन) तथा समाकलन (इंटेग्रेशन) संबंधी जो संकेत शुरु किये उनका उपयोग आज तक किया जा रहा है।
सिर्फ विज्ञान के क्षेत्र में ही नहीं, अपितु अध्यात्म तथा दर्शन के क्षेत्र में भी लाइबनिज का योगदान काफी महत्वपूर्ण था। इस दिशा में उसके द्वारा अधिकांश कार्य 1685 से 1716 के बीच किये गये। उन्होंने दर्शन संबंधी अपने सिद्धांतों के लेखन का कार्य 1686 में ही पूरा कर लिया था जब उन्होंने ‘डिस्कोर्स मेटाफिजिक’ पांडुलिपि का लेखन कार्य पूरा किया। परन्तु दुर्भाग्यवश उनके द्वारा लिखित इस पांडुलिपि का प्रकाशन उसकी मृत्यु के लगभग 130 वर्षों के बाद 1846 में किया जा सका। उसके जीवन काल में उसकी सिर्फ एक ही कृति प्रकाशित हो पायी थी जिसका नाम था ‘एस्सेज डि थियोडिसी सुरला बोंटे डि डिउला लिबर्टी डि एल हिम्मे’। यह पुस्तक 1710 में दो खंडों में प्रकाशित हुई थी। हालांकि लाइबनिज द्वारा लिखित पुस्तकें अधिक प्रकाशित नहीं हुईं, परन्तु उसके द्वारा लिखे गये शोध पत्र समय-समय पर कई प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे। जिन पत्रिकाओं में उसके शेध पत्र प्राय प्रकाशित होते थे, उनमें प्रमुख थीं- लिपजिग से प्रकाशित होने वाला ‘ऐक्टा इरुडिटोरम’ तथा पेरिस से प्रकाशित होने वाला ‘जर्नल डि सावन्त्स’। इन प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित उसके शोध पत्रों ने उसे वैज्ञानिक जगत में काफी अच्छी ख्याति दिलायी।
लाइबनिज ने अपने समकालीन दार्शनिकों तथा वैज्ञानिकों को जो पत्र लिखे थे वे भी शोध स्तर के थे। उदाहरणार्थ उसने सैम्युएल क्लार्क को जो पत्र लिखे थे उनमें ईश्वर, आत्मा, काल एवं स्थान इत्यादि के संबंध में प्रतिपादित उसके सिद्धांतों की विस्तृत चर्चा की गयी थी। इन पत्रों में उसके द्वारा जो विचार व्यक्त किये गये थे वे सब के सब उच्च स्तर के दर्शन से संबंधित मालूम पड़ते हैं।
लाइबनिज की अधिकांश कृतियाँ उसके निधन के बाद ही प्रकाशित की जा सकीं। उदाहरणार्थ 1765 में लिपजिग से ‘बाउविओक्स एस्से सुर एल इंटेडमेंट ह्युमेन’ पुस्तक प्रकाशित हुई। 1718 में ‘प्रिंसिपेस डिला नेचर एट डेला ग्रेस फौंड्स इन राइसन’ ग्रंथ प्रकाशित किया गया।
लाइबनिज के जीवन का अन्तिम कुछ समय बहुत ही दयनीय एवं दुखद स्थिति में गुजरा। 1692 से 1716. तक वह प्रायः रोगग्रस्त ही रहे । अन्त काल में उसकी सुध लेने वाला या सेवा-सुश्रुषा करने वाला कोई नहीं था। अन्त में उनकी मृत्यु 14 नवम्बर 1716 ई. को हैनोवर में हो गयी। उनके अन्तिम संस्कार में बहुत ही कम लोग शामिल हुए थे.