बनारसीदास चतुर्वेदी प्रसिद्ध पत्रकार और शहीदों की स्मृति में साहित्य प्रकाशन के प्रेरणास्त्रोत थे। उनकी गणना अग्रगण्य पत्रकारों और साहित्यकारों में की जाती है। यद्यपि हिन्दी साहित्य के प्रति अनुराग और लेखक की अभिरुचि के लक्षण उनमें पत्रकार बनने से पहले ही दिखाई दे चुके थे। 1914 से ही वे प्रवासी भारतीयों की समस्याओं पर लिखने लगे थे। बनारसीदास बारह वर्ष तक राज्य सभा के सदस्य भी रहे थे। उन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा 1973 में ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया।
बनारसीदास चतुर्वेदी का जन्म 24 दिसम्बर, 1892 को फ़िरोजाबाद,में हुआ था। उन्होंने 1913 में अपनी इंटर की परीक्षा पास की थी। इसके बाद उन्होंने कुछ समय तक फर्रूखाबाद के हाईस्कूल में अध्यापन कार्य किया। फिर इंदौर के डेली कॉलेज में अध्यापक बन गए। उस समय डॉ. सम्पूर्णानंद भी वहाँ अध्यापक थे। उन्हीं दिनों इंदौर में गांधी जी की अध्यक्षता में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन हुआ। तभी बनारसीदास चतुर्वेदी जी को गांधी जी तथा प्रमुख साहित्यकारों के संपर्क में आने का अवसर मिला। पत्रकार के रूप में वे गणेश शंकर विद्यार्थी को अपना आदर्श मानते थे।
बनारसीदास जी का पत्रकारिता जीवन ‘विशाल भारत’ के सम्पादन से आरम्भ हुआ। स्वर्गीय रामानन्द चटर्जी, जो ‘मॉडर्न रिव्यू’ और ‘विशाल भारत’ के मालिक थे, वे बनारसीदास जी की सेवा भावना और लगन से बहुत प्रभावित थे। कलकत्ता में रहते हुए उनका प्रमुख राष्ट्रीय नेताओं से परिचय हुआ था। प्रवासी भारतीयों की समस्या में इनकी विशेष दिलचस्पी पहले से ही थी। इसके कारण ही महात्मा गांधी, सी. एफ़. एंड्रूज और श्रीनिवास शास्त्री के ये कृपापात्र बन गए थे। इन महानुभावों का प्रवासी भारतीयों की समस्या से विशेष सम्बन्ध था। बनारसीदास चतुर्वेदी जी सी. एफ. एड्रूज के साथ ‘शांतिनिकेतन’ चले गए। फिर वहाँ से गांधी जी के कहने पर ‘गुजरात विद्यापीठ’ के अध्यापक बन कर अहमदाबाद पहुँचे। वहाँ भी अधिक दिनों तक नहीं टिके। उन्होंने 1920 में अध्यापक कार्य त्याग दिया। बनारसीदास जी ने ‘विशाल भारत’ को एक साहित्यिक और सामान्य जानकारी से परिपूर्ण मासिक पत्रिका बना दिया। इसके स्तम्भों में प्राय: सभी प्रमुख लेखकों की रचनाएँ प्रकाशित होती थीं।
‘विशाल भारत’ छोड़ने के बाद बनारसीदास जी ने टीकमगढ़ से ‘मधुकर’ का सम्पादन शुरू किया। ओरछा नरेश इनका विशेष आदर करते थे और हिन्दी प्रेमी थे। बनारसीदास ने वास्तव में जीवन भर पढ़ने और लिखने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया। उनका अध्ययन हिन्दी, संस्कृत और भारतीय साहित्य तक ही सीमित नहीं था। अंग्रेज़ी के माध्यम से उन्होंने पाश्चात्य साहित्य का भी गहरा अध्ययन किया था। उनकी अपनी शैली थी, जो बातचीत की भाषा के निकट होते हुए भी ओजपूर्ण तथा प्रांजल है और आकर्षक है। निबन्ध, रेखा चित्र, वर्णन आदि के लिए उनके लेख-शैली विशेष रूप से उपयुक्त हैं। उनकी रचनाओं में ‘रेखाचित्र’ (1952), ‘साहित्य और जीवन’ (1954), ‘सत्यनारायण कविरत्न’, ‘भारतभक्त एंड्रुज’, ‘संस्मरण’ आदि अधिक प्रसिद्ध हैं।
अपनी पत्रकारिता और लेखन के माध्यम से हिन्दी साहित्य की सेवा करने वाले इस महापुरुष का 2 मई, 1985 को निधन हुआ था।साभार