– वीर विनोद छाबड़ा-
एक कॉमेडियन होते थे, मोहन चोटी. छोटे-छोटे किरदारों में, लेकिन दिखे हमेशा बड़े-बड़े अदाकारों के साथ. फ्रंट बेंचर्स की पहली पसंद. महाराष्ट्र के अमरावती में वो मोहन गोरखसंकर थे. कई जगह पारसमल भंसाली थे. कहीं मोहन आत्माराम देशमुख. जितने मुंह, उतनी बातें. लेकिन नाम में क्या रखा है? सवाल ये है कि वो मोहन चोटी कैसे बने? दरअसल, वो एक बाल फिल्म ‘हम पंछी एक डाल के’ (1957) में चोटी के साथA दिखे. तब से कोई पूछता, कौन मोहन? अरे वही चोटी वाला, मोहन चोटी. मतलब ये कि अपनी चोटी की वज़ह से ही उन्हें प्रसिद्धि मिली और पहचान भी. हमने तो उन्हें पहली मर्तबा ‘अनपढ़’ (1962) में देखा था, गाते हुए -‘सिकंदर ने पोरस से की थी लड़ाई, जो की थी लड़ाई तो मैं क्या करूँ…’
1935 में जन्मे मोहन भाग कर बम्बई आये थे, बड़ा अदाकार बनने. सोचा था, स्टेशन पर उतरते ही उन्हें प्रोड्यूसर लपक लेंगे. लेकिन उनके नसीब में फुटपाथ लिखा था. एक स्टूडियो के बाहर फुटपाथ को उन्होंने आशियाना बनाया, जहाँ उनके जैसे बीसियों पहले से पड़े थे, इस आस में कि किसी सेट पर अगर भीड़ की ज़रूरत होगी तो उन्हें झट से ब्रेक मिल जाएगा.
और आख़िर एक दिन मोहन को ब्रेक मिल ही गया. दिलीप कुमार की ‘शिक़स्त’ (1953) में एक छोटा सा रोल. वो भी संयोग से. उस दिन जगदीप नहीं आये थे. मोहन चोटी फिट कर दिए गए. लेकिन वो रोल इतना छोटा था कि किसी ने उन्हें नोटिस नहीं किया. मगर रास्ता तो खुल ही गया. बिमल रॉय की फिल्मों में दिखने लगे, मुसाफ़िर, देवदास आदि. फिर तो गाड़ी चल पड़ी. किरदार की लम्बाई भी बढ़ती गयी. पचास से लेकर अस्सी तक के सालों में कुल 280 फ़िल्में कीं. कागज़ के फूल, चलती का नाम गाड़ी, दिल तेरा दीवाना, पूजा के फूल, जागृति, अब दिल्ली दूर नहीं, मनमौजी, मुझे जीने दो, ब्लफ मास्टर, ख़ानदान, दादी मां, सावन की घटा, फ़र्ज़, उपकार, ब्रह्मचारी, आदमी, राजा और रंक, तुम हसीं मैं जवां, लाखों में एक आदि प्रमुख रहीं. दिलीप कुमार, देवानंद, राजकपूर, शम्मी कपूर, राजेंद्र कुमार, शशि कपूर धर्मेंद्र, जीतेंद्र, मिथुन चक्रवर्ती आदि अनेक सितारों के साथ काम किया. लेकिन अस्सी के सालों में नयी जनरेशन आ गयी थी. इस बीच मोहन चोटी की उम्र भी बढ़ गयी. अब वो नए स्टार्स के साथ फिट नहीं हो पाए. काम मिलना दुश्वार हो गया.
मोहन चोटी को फ़िल्म बनाने के कीड़े ने भी काटा. लगा कि उनके भीतर फुल कॉमेडी हीरो के गुण विकसित हैं, जिन्हें फ़िल्ममेकर जानबूझ कर नज़रअंदाज़ कर रहे हैं. और उन्होंने मनोज कुमार की ‘रोटी कपड़ा और मकान’ की तर्ज़ पर 1975 में ‘धोती लोटा और चौपाटी’ बनाई. फ्लॉप हो गयी. मगर हिम्मत नहीं हारी. 1977 बिंदु को लेकर ‘हंटरवाली’ बनाई. ये भी औंधे मुंह गिरी. बर्बाद हो गए मोहन चोटी. फुटपाथ से महल में गए थे और फुटपाथ पर ही लौट आये.
मगर मोहन चोटी के दुःख यहीं ख़त्म नहीं हुए. बेटे हेमंत को बतौर हीरो लांच करने के लिए कमर कसी. जोर-शोर से मुहूर्त भी हुआ. लेकिन बेटे ने दिल तोड़ दिया. अपनी मनपसंद लड़की से शादी करके उसके साथ ही चला गया. मोहन चोटी ने फ़कीरी से निजात पाने के लिए रेडियो सर्विस सेंटर खोला, लेकिन चला नहीं. एक होटल खोला – किस्सा रोटी का, ढाबा चोटी का. लेकिन ये भी नहीं चला. चाह बर्बाद करेगी, हमें मालूम न था. उन्हें बीमारियों ने घेर लिया. पहले जॉन्डिस और फिर लीवर सिरॉसिस. 1 फरवरी 1992 को उनकी इहलीला ख़त्म हो गयी, सिर्फ 52 की उम्र में. लेकिन शुक्र है, मीडिया ने उन्हें नोटिस किया. सिंगल कॉलम की सही, ख़बर तो बने.