जयंती पर विशेष-संजोग वॉल्टर। दया किशन सप्रू हिन्दी सिनेमा के प्रसिद्ध अभिनेता थे। अपने फ़िल्मी कॅरियर में उन्हें ‘सप्रू’ नाम से अधिक जाना गया। 1960 और 1970 के दशक में उन्होंने कई फ़िल्मों में खलनायक की भूमिका निभाई थी, जिससे उन्हें काफ़ी ख्याति मिली थी। खलनायक से पहले दयाकिशन जी ने कई चरित्र किरदार भी निभाए थे। उन्होंने करीब 350 फ़िल्मों में काम किया। चेतन आनन्द की ‘कुदरत’ उनकी अंतिम फ़िल्म थी।
दया किशन सप्रू का जन्म 16 मार्च, 1916 को कश्मीर, में हुआ था। उनके पिता कश्मीर के महाराजा के दरबार में वित्त विभाग में ऊंचे ओहदे पर थे। अंग्रेज़ों का जमाना था और उस दौर में बी.ए. करने के बाद युवा दया किशन सप्रू ने पी.डब्ल्यू.डी. विभाग में ठेकेदारी शुरू कर दी थी। उसी समय उनके फुफेरे भाई फ़िल्मी पर्दे पर दिखाई देने लगे। दया से भी उनके साथी कॉलेज के जमाने से कह रहे थे कि प्रभावशाली व्यक्तित्व के ऊंचे कद, गोरे-चिट्टे और नीली आँखों वाले इस कश्मीरी लड़के को फ़िल्मों में जाना चाहिए। ऐसे में अक्सर रूपहले पर्दे की कशिश दयाकिशन को अपनी ओर खींचने लगती थी। एक दिन दयाकिशन मुंबई जा पहुंचे, फ़िल्मों में हाथ आजमाने के लिए। वह साल था 1944। उनके फुफेरे भाई ओंकारनाथ धर उर्फ जीवन ने दयाकिशन को फ़िल्म निर्माताओं से खुद जाकर बात करने की सलाह दी। दया किशन सप्रू वी. शांताराम से मिलने प्रभात स्टूडियो जा पहुँचे। कमरे के बाहर बैठे दयाकिशन पर नजर पड़ी तो वी. शांताराम ने उन्हें बुला लिया। जब दयाकिशन ने अपना परिचय देने के लिए बोलना शुरू किया तो मंत्रमुग्ध वी. शांताराम उनकी गरजदार आवाज़ को सुनते रहे। वी. शांताराम हिन्दी, पंजाबी, अंग्रेज़ी और उर्दू में धाराप्रवाह बात करने वाले इस जवान से खासे प्रभावित हुए। नतीजा यह हुआ की वी. शांताराम ने अपनी फ़िल्म ‘रामशास्त्री’ के लिए दयाकिशन को चुन लिया। यही दयाकिशन आगे चलकर ‘सप्रू’ के रूप में मशहूर हुए।
सप्रू की पहली फ़िल्म ‘रामशास्त्री’ में उन्होंने पेशवा का छोटा-सा रोल किया। यह फ़िल्म अपने समय की हिट फ़िल्म थी। प्रभात की ही अगली फ़िल्म ‘लाखारानी’ में उन्हें बतौर हीरो लिया गया और वेतन तय हुआ तीन हज़ार रुपये। इतनी बड़ी रकम की उन दिनों कोई अभिनेता कल्पना भी नहीं कर सकता था। अपनी असरदार उपस्थिति के चलते जल्द ही कई फ़िल्में सप्रू के हाथ लग गईं। उन्होंने जहाँ ‘चांद’ (1944) में बेगम पारा के साथ काम किया। वहीं ‘रोमियो जूलियट’ में नर्गिस के हीरो बने। उस दौर में फ़िल्मों में बतौर हिरोइन हेमावती ने भी शुरुआत की। सप्रू की हेमावती से मुलाकात हुई, तो मामला पहली नजर के प्यार वाला हो गया। बहरहाल सप्रू ने जल्द ही हेमावती से विवाह कर लिया। ‘अदले जहांगीर’, ‘काला पानी’, ‘झाँसी की रानी’, ‘तानसेन’, ‘गंगा मैया’ और ‘वामनावतार’ सहित कई फ़िल्मों में काम करते-करते सप्रू पौराणिक विषयों पर बनने वाली फ़िल्मों के पसंदीदा किरदार बन गए। ‘शबिस्तान’ (1951) वह फ़िल्म थी, जिसमें सप्रू ने पहली बार खलनायक का किरदार किया और उस रोल में भी उनकी जमकर तरीफ़ हुई।
दया किशन सप्रू का शानदार कॅरियर जारी था कि कुछ लोगों की राय पर उन्होंने फ़िल्म निर्माण में हाथ आजमा लिया। पहली फ़िल्म बनाई ‘पतीतपावन’ (1955)। इससे उन्हें कोई आर्थिक फायदा नहीं हुआ। इसके बाद उन्होंने फ़िल्म ‘बहादुरशाह जफ़र’ शुरू की। इसमें बहादुर शाह की भूमिका खुद सप्रू ने निभाई। फ़िल्म पूरी करने के सिलसिले में सप्रू कर्जदार हो गए। यहां तक कि उन्हें अपना घर भी बेचना पड़ा।
इसके बाद सप्रू को जो भी रोल मिला, वह करते गए। उन्होंने पंजाबी और गुजराती फ़िल्मों में भी काम किया। सप्रू की बेटी रीमा अपनी पढ़ाई पुरी करने के बाद फ़िल्म राइटर बनीं। उन्होंने फ़िल्म लिखी। सप्रू ने एक बार फिर फ़िल्म बनाने का फैसला किया। फ़िल्म का नाम रखा गया ‘जीवन चलने का नाम’। इसके लिए संजीव कुमार, रेखा और शशि कपूर को साइन किया गया। मगर तभी सप्रू को मधुमेह की बीमारी ने अपनी चपेट मे ले लिया। इस बीमारी ने उन्हें कई और बीमारियों के हवाले कर दिया। फ़िल्म का काम रुक गया। बीमारी के बावजूद सप्रू उन फ़िल्मों का काम निपटाते रहे, जो उन्होंने साइन की थीं।
जून, 1979 में रिलीज हुई ‘सुरक्षा’। इसमें उनके बेटे तेज सप्रू ने काम किया था। बीमारी की वजह से सप्रू अपने बेटे की पहली फ़िल्म नहीं देख सके और 20 अक्टूबर, 1979 में उनका निधन हो गया। तेज सप्रू कई सालों तक फिल्मों में काम करते रहे 2006 के बाद वे फिल्मों से अलग हैं। दया किशन सप्रू की बेटी प्रीति सप्रू ने कई फिल्मों में काम किया लेकिन वो कामयाब नहीं हो सकी थी। पर पंजाबी फिल्मों में उनकी धूम मची थी। । दया किशन सप्रू ने उन्होंने करीब 350 फ़िल्मों में काम किया। चेतन आनन्द की फ़िल्म ‘कुदरत’ उनकी अंतिम फ़िल्म थी। ‘साहब बीवी और गुलाम’, ‘हीर रांझा’, और ‘पाकीजा’ जैसी फ़िल्मों के जरिए सप्रू फ़िल्म प्रेमियों के दिलों में आज भी जिंदा हैं। दया किशन सप्रू के कई रिश्तेदार लखनऊ में रहते थे। तब कश्मीरी पंडित पुराने लखनऊ के कश्मीरी मोहल्ले में रहते थे। दया किशन सप्रू अक्सर लखनऊ आते थे। वक्त के साथ वो मकान भी खो गया जहाँ दया किशन सप्रू लखनऊ आने पर रुकते थे । एजेन्सी फोटो सोशल मीडिया से