— वीर विनोद छाबड़ा-पचास से लेकर सत्तर के सालों में हिंदी सिनेमा में जब भी मां की ज़रूरत पड़ी तो सबसे पहली पसंद अचला सचदेव रही। वज़ह ये रही कि उनका हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी ज़बान पर पूर्ण अधिकार था। पंजाबी पृष्ठभूमि के किरदारों में तो वो खूब फब्ती थीं। याद करें बीआर चोपड़ा की ‘वक़्त’ (1965) के लाला केदारनाथ (बलराज साहनी) की पत्नी लक्ष्मी अचला और उन पर फ़िल्माया गया ये गाना, ‘ओ मेरी ज़ोहरा ज़बीं…’ अपनी खूबसूरती की तारीफ़ सुन शर्म से लाल हो गयीं अचला के लजाये चेहरे पर आई दमक देखते ही बनती थी। वो ज़ोहरा ज़बीं कहलाने लगीं, खूबसूरती, सादगी और पवित्रता का पर्याय। यश चोपड़ा की ‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995) में जब इस गाने को दोहराया गया तो काजोल की दादी बनी अचला इसे देख रही थीं। इसका ज़बरदस्त असर देखिये कि आज 58 साल बाद भी इस गाने को जब-तब गुनगुना कर पतिगण अपनी पत्नियों को रिझाते हैं।
3 मई 1920 में पेशावर में जन्मी अचला रेडियो सिंगर हुआ करती थीं। फ़िल्मी सफ़र शुरू करने से पहले ही एक असिस्टेंट डायरेक्टर ज्ञान सचदेव से शादी कर ली। उनकी पहली फिल्म थी, फैशनेबुल वाइफ’ (1938). उसके बाद उन्होंने तक़रीबन ढाई सौ फ़िल्में की। वो हीरोइन कभी नहीं रहीं। कभी मां, तो कभी दादी। हालांकि उनकी अदाकारी की गहराई बहुत दूर तक थी लेकिन फ़िल्मकार ज़्यादातर उनसे सहृदय मां के किरदार ही कराते रहे। यही वज़ह रही कि उनका नाम ज़ुबां पर आते ही, सहृदय मां नज़र आती है।
उनकी यादगार फ़िल्में हैं, नज़राना, मेरी सूरत तेरी आँखें, दिल एक मंदिर, संगम, राजकुमार, चित्रलेखा, आरजू, वक़्त, मेरे सनम, हिमालय की गोद में, मेरा नाम जोकर, हमराज़, सपनों का सौदागर, प्रेम पुजारी, पवित्र पापी, हरे रामा हरे कृष्णा, अंदाज़, दाग़, कोरा कागज़, चांदनी आदि। इस शताब्दी में वो कभी ख़ुशी कभी ग़म और न तुम जानो न हम में दिखी थीं। उन्होंने अंग्रेज़ी की ‘हॉउस होल्डर’ और ‘नाइन आवर्स टू रामा’ भी कीं।
अचला अन्य वज़हों से भी सुर्खियों में रहीं। पति से उनकी बनी नहीं तो तलाक़ ले लिया। यश चोपड़ा की ‘दाग़’ के सेट पर उनकी पूना की एक केमिकल फैक्ट्री मालिक डग्लॉस पीटर से भेंट हुई। पीटर की पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी। इश्क़ हुआ और जल्दी ही शादी में तब्दील हो गया। पीटर की 2002 में मृत्यु हो गयी। अचला अकेली रह गयीं। पहले पति से जन्मा बेटा ज्योतिन अमेरिका चला गया। 2006 में वो अपनी पोती की शादी के सिलसिले में अमेरिका गयीं भी थीं, मगर मगर मन न लगा। बताया जाता है उनके एक बेटी भी है जिसने उनसे कोई सरोकार नहीं रखा। अचला पूना में अकेली ही दो कमरे के एक फ्लैट में रहती थीं, एक अटेंडेंट दिन में और एक रात में उनके साथ रहा। उन्होंने अपनी पूरी प्रॉपर्टी एक एनजीओ जनसेवा फाउंडेशन को दान कर दी, इस शर्त के साथ कि वे ज़िंदगी भर उसका ख्याल रखेंगे। अचला एजुकेशन ट्रस्ट के अंतर्गत ग़रीब बच्चों को पढ़ाया भी जाता था। अचला ने 2004 में एक आई हॉस्पिटल को 15 लाख दान किये। सितंबर 2011 में वो बाथरूम में गिर पड़ीं। कूल्हे में फ्रैक्चर हो गया जो शीघ्र ही भयावह बन गया। वो पैरलाइज़्ड हो गयीं और फिर कोमा में चलीं गयीं। अंततः 30 अप्रैल 2012 को उन्होंने इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कह दी। इस बीच सबसे बड़ी तकलीफ़ ये रही कि फ़िल्म बिरादरी से उन्हें देखने कोई नहीं आया, न किसी ने फोन करके हाल ही जाना। अमेरिका से बेटा भी उनके इंतक़ाल के बाद आया। उनकी तनहा ज़िंदगी का ये बहुत ही दुखद पहलू रहा।