सरदार हरि सिंह नलवा , महाराजा रणजीत सिंह के सेनाध्यक्ष थे जिन्होने पठानों के विरुद्ध किये गये कई युद्धों का नेतृत्व किया। रणनीति और रणकौशल की दृष्टि से हरि सिंह नलवा की तुलना भारत के श्रेष्ठ सेनानायकों से की जा सकती है। उन्होने कसूर, सियालकोट, अटक, मुल्तान, कश्मीर, पेशावर और जमरूद की जीत के पीछे हरि सिंह का नायकत्व था। उन्होने सिख साम्राज्य की सीमा को सिन्धु नदी के परे ले जाकर खैबर दर्रे के मुहाने तक पहुँचा दिया। हरि सिंह की मृत्यु के समय सिख साम्राज्य की पश्चिमी सीमा जमरुद तक पहुंच चुकी थी।
हरि सिंह नलवा ने कश्मीर पर विजय प्राप्त कर अपना लोहा मनवाया। यही नहीं, काबुल पर भी सेना चढ़ाकर जीत दर्ज की। खैबर दर्रे से होने वाले अफगान आक्रमणों से देश को मुक्त किया। इतिहास में पहली बार हुआ था कि पेशावरी पश्तून, पंजाबियों द्वारा शासित थे। हरि सिंह नलवा कश्मीर, पेशावर और हजारा के प्रशासक थे। सिख साम्राज्य की तरफ से उन्होने मुद्रालय स्थापित किया था ताकि कश्मीर और पेशावर में राजस्व इकट्ठा किया जा सके।
महाराजा रणजीत सिंह के निर्देश के अनुसार हरि सिंह नलवा ने सिख साम्राज्य की भौगोलिक सीमाओं को पंजाब से लेकर काबुल बादशाहत के बीचोंबीच तक विस्तार किया था। महाराजा रणजीत सिंह के सिख शासन के दौरान 1807 से लेकर 1837 तक हरि सिंह नलवा लगातार अफगानों के खिलाफ लड़े। अफगानों के खिलाफ जटिल लड़ाई जीतकर नलवा ने कसूर, मुल्तान, कश्मीर और पेशावर में सिख शासन की व्यवस्था की थी।
सर हेनरी ग्रिफिन ने हरि सिंह को “खालसाजी का चैंपियन” कहा है। ब्रिटिश शासकों ने हरि सिंह नलवा की तुलना नेपोलियन से भी की है। इन्हे “शेर ए पंजाब” भी कहा जाता है।
हरि सिंह नलवा का जन्म में 28 अप्रैल 1791 को उप्पल खत्रि परिवार में पंजाब के गुजरांवाला में हुआ था। इनके पिता का नाम गुरदयाल सिंह उप्प्पल और माँ का नाम धर्मा कौर था। बचपन में उन्हें घर के लोग प्यार से “हरिया” कहते थे। सात वर्ष की आयु में इनके पिता का देहान्त हो गया। 1805 के वसन्तोत्सव पर प्रतिभा खोज प्रतियोगिता में, जिसे महाराजा रणजीत सिंह ने आयोजित किया था, हरि सिंह नलवा ने भाला चलाने, तीर चलाने तथा अन्य प्रतियोगिताओं में अपनी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया। इससे प्रभावित होकर महाराजा रणजीत सिंह ने उन्हें अपनी सेना में भर्ती कर लिया। शीघ्र ही वे महाराजा रणजीत सिंह के विश्वासपात्र सेनानायकों में से एक बन गये।
रणजीत सिंह एक बार जंगल में शिकार खेलने गये। उनके साथ कुछ सैनिक और हरी सिंह नलवा थे। उसी समय विशाल आकार के बाघ ने उन पर हमला कर दिया। जिस समय डर के मारे सभी दहशत में थे, हरी सिंह मुकाबले को सामने आए। इस खतरनाक मुठभेड़ में हरी सिंह ने बाघ के जबड़ों को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर उसके मुंह को बीच में से चीर डाला। उसकी इस बहादुरी को देख कर रणजीत सिंह ने कहा ‘तुम तो राजा नल जैसे वीर हो’, तभी से वो ‘नलवा’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये।
महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में 1807 से लेकर 1837 तक हरि सिंह नलवा लगातार अफगानों से लोहा लेते रहे। अफगानों के खिलाफ जटिल लड़ाई जीतकर उन्होने कसूर, मुल्तान, कश्मीर और पेशावर में सिख शासन की स्थापना की थी। काबुल बादशाहत के तीन पश्तून उत्तराधिकारी सरदार हरि सिंह नलवा के प्रतिद्वंदी थे। पहला था अहमद शाह अब्दाली का पोता, शाह शूजा ; दूसरा फ़तह खान, दोस्त मोहम्मद खान और उनके बेटे, तीसरा, सुल्तान मोहम्मद खान, जो अफगानिस्तान के राजा जहीर शाह (1933 -73) का पूर्वज था।
अहमदशाह अब्दाली के पश्चात् तैमूर लंग के काल में अफ़ग़ानिस्तान विस्तृत तथा अखंडित था। इसमें कश्मीर, लाहौर, पेशावर, कंधार तथा मुल्तान भी थे। हेरात, कलात, बलूचिस्तान, फारस आदि पर उसका प्रभुत्व था। हरि सिंह नलवा ने इनमें से अनेक प्रदेशों को जीतकर महाराजा रणजीत सिंह के अधीन ला दिया। उन्होंने 1813 में अटक, 1818 में मुल्तान, 1819 में कश्मीर तथा 1823 में पेशावर की जीत में विशेष योगदान दिया।
हरि सिंह नलवा कश्मीर और पेशावर के गवर्नर बनाये गये। कश्मीर में उन्होने एक नया सिक्का ढाला जो ‘हरि सिंगी’ के नाम से जाना गया। यह सिक्का आज भी संग्रहालयों में प्रदर्शित है।
प्रशिक्षित सैन्य दलों के इतिहास में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा बनायी गयी गोरखा सैन्य टुकड़ी एक ऐतिहासिक घटना था। गोरखा पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले थे और पेशावर और खैबर दर्रे के इलाकों में प्रभावशाली हो सकते थे। महाराजा रणजीत सिंह ने पूरबी (बिहारी) सैनिक टुकड़ी का निर्माण भी किया था। इस टुकड़ी में ज्यादातर सैनिक पटना साहिब और दानापुर क्षेत्र के थे, जो कि गुरु गोविन्द सिंह जी की जन्म स्थली रहा है। सरदार हरि सिंह नलवा की सेना शेर-ए-दिल रजामान सबसे आगे थी। महाराजा की सेना ने पोनटून पुल पार किया। लेकिन बर्फबारी के कारण कुछ दिन रूकना पड़ा। महाराजा रणजीत सिंह के गुप्तचरों से ज्ञात हुआ था कि दुश्मनों की संख्या जहांगीरिया किले के पास बढ रही थी। उधर तोपखाना पहुंचने में देर हो रही थी और उसकी डेढ महीने बाद पहुंचने की संभावना थी। स्थितियां प्रतिकूल थी।
1837 में जब राजा रणजीत सिंह अपने बेटे की शादी में व्यस्त थे तब सरदार हरि सिंह नलवा उत्तर पश्चिम सीमा की रक्षा कर रहे थे। ऐसा कहा जाता है कि नलवा ने राजा रणजीत सिंह से जमरौद के किले की ओर बढ़ी सेना भेजने की माँग की थी लेकिन एक महीने तक मदद के लिए कोई सेना नहीं पहुँची। सरदार हरि सिंह अपने मुठ्ठी भर सैनिकों के साथ वीरतापूर्वक लड़ते हुए 30 अप्रैल 1837 को वीरगति को प्राप्त हुए। 1892 में पेशावर के बाबू गज्जू मल्ल कपूर ने उनकी स्मृति में किले के अन्दर एक स्मारक बनवाया।एजेन्सी।