पुण्य तिथि
पुण्य तिथि पर विशेष। एजेन्सी। कंपनी हवलदार मेजर पीरू सिंह ( पीरू सिंह शेखावत) भारतीय सैनिक थे। 18 जुलाई, 1948, को भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए थे। उन्हें 1952 में मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया जो शत्रु के सामने वीरता प्राप्त करने के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च भारतीय सम्मान है।
पीरू सिंह का जन्म 20 मई, 1918 को झुंझुनू ज़िले के बेरी गाँव में हुआ था। उनके पिता के तीन पुत्र तथा चार पुत्रियाँ थीं। पीरू सिंह अपने भाइयों में सबसे छोटे थे। सात वर्ष की आयु में उन्हें स्कूल भेजा गया, लेकिन पीरू सिंह का मन स्कूली शिक्षा में नहीं लगा। स्कूल में एक साथी से उनका झगड़ा हो गया था। तब स्कूल के अध्यापक ने उन्हें डाँट लगाई। पीरू सिंह ने भी अपनी स्लेट वहीं पर पटकी और भाग गये। इसके बाद वे कभी पलट कर स्कूल नहीं गये।
स्कूली शिक्षा में मन नहीं लगने पर पीरू सिंह के पिता ने उन्हें खेती बाड़ी में लगा लिया। वह एक सम्पन्न किसान थे। खेती में पीरू सिंह ने अपनी रुचि दिखाई। वह अपने पिता की भरपूर मदद किया करते थे। उन्होंने किसानी का कार्य अच्छी तरह से सीख लिया था। किसानी के अतिरिक्त कई प्रकार के साहसिक खेलों में भी उनका बहुत मन लगता था। शिकार करने के तो वह बचपन से ही शौकीन रहे थे। अपने इस शौक़ के कारण वह कई बार घायल भी हुए थे।
शिकार के शौक़ ने ही पीरू सिंह को सेना में आने और फौजी बनने के लिए प्रेरित किया था। 1936 को पीरू सिंह ने फौज में कदम रखा। उन्हें 10/1st पंजाब में प्रशिक्षण के लिए लिया गया। फिर 1 मई, 1937 को उन्हें 5/1st पंजाब में नियुक्त कर लिया गया। फौज में आने के बाद ही पीरू सिंह के चरित्र में आश्चर्यजनक बदलाव आया। स्कूल में उन्हें पढ़ाई से चिढ़ थी, लेकिन फौज में वह पढ़ाई की ओर से बेहद गंभीर सैनिक सिद्ध हुए। कुछ ही वर्षों में उन्होंने ‘इंडियन आर्मी फर्स्ट क्लास सर्टिफिकेट ऑफ़ एजुकेशन’ सफलतापूर्वक पा लिया।
अपनी शिक्षा के आधार पर 17 अगस्त, 1940 को पीरू सिंह लांस नायक के रूप में पदोन्नत हो गए। इसी दौरान उन्होंने उत्तर-पश्चिम सीमा पर युद्ध में भी भाग लिया। मार्च, 1941 में वह नायक बनाये गए। सितम्बर, 1941 को वह शिक्षा के बल पर ही पंजाब रेजिमेंटल सेंटर में इंस्ट्रक्टर बने, जहाँ वह अक्टूबर, 1945 तक कार्य करते रहे। फ़रवरी, 1942 में वे हवलदार के रूप में पदोन्नत हुए। फिर मई, 1943 में वह कम्पनी हवलदार मेजर बन गये। उनकी तरक्की का यह रुझान हमेशा यह बताता रहा कि पीरू सिंह एक कर्मठ, बहादुर और जिम्मेदार फौजी हैं।
1947-1948 में जम्मू-कश्मीर क्षेत्र, जो लड़ाई का मैदान बन गया था, उसके पीछे ब्रिटिश राज द्वारा 3 जून, 1947 को की गई वह घोषणा थी, जो उन्होंने देश के विभाजन के साथ-साथ की थी। दरअसल, वह एक चाल थी, जो ब्रिटिश राज की कुटिलता को उजागर कर गई थी। वह भी तब, जब वह भारत को स्वतंत्र करने का निर्णय बाकायदा घोषित कर चुके थे। ब्रिटिश राज ने प्रस्ताव किया था कि देश के विभाजन के बाद अखण्ड भारत की सभी रियासतें यह चुनने के लिए स्वतंत्र हैं कि वह भारत में रहना चाहती हैं या पाकिस्तान से जुड़ना चाहती हैं या फिर उन्हें स्वतंत्र रहना ही पसन्द है। इनमें से जो रियासतें स्वतंत्र रहना चाहती थीं, उनमें महाराजा हरिसिंह भी थे, जिनका राज्य जम्मू-कश्मीर में था। उन्होंने इसके निर्णय करने की प्रक्रिया में जनमत जुटाना पसन्द किया, जिसके लिए उन्हें कुछ समय चाहिए था।
हरिसिंह ने इसके लिए भारत तथा पाकिस्तान से कुछ समय ठहरने का निवेदन किया। भारत ने उनके इस निवेदन को मान लिया, लेकिन पाकिस्तान तो बस हर हाल में कश्मीर को पाना चाहता था। उसने महाराजा हरिसिंह के निवेदन को नहीं माना। पाकिस्तान ने एक रणनीति के तहत कश्मीर की वह आपूर्ति रोक दी, जो उसके क्षेत्र से कश्मीर हमेशा पहुँचती थी। इस आपूर्ति में राशन, तेल, ईधन आदि की बहुत ही आवश्यक सामग्री थीं। इसके बाद पाकिस्तान ने पूरे सैन्य बल के साथ कश्मीर पर हमला कर दिया। उसका इरादा महाराजा हरिसिंह पर दबाव डालने का था कि वह पाकिस्तान के पक्ष में अपना मत प्रकट करें और पाकिस्तान के साथ जुड़ जायें। लेकिन पाकिस्तान को निराशा ही हाथ आई, क्योंकि महाराजा हरिसिंह ने भारत के पक्ष में मत प्रकट किया और भारत से मदद की गुहार की। ऐसी स्थिति में अब भारत के लिए मदद करना आसान था, क्योंकि महाराजा की सहमति से जम्मू-कश्मीर भारत का हो चुका था। 26 अक्टूबर, 1947 को महाराजा हरिसंह ने भारत के पक्ष में अपना मत रखा और 31 अक्टूबर को भारत इस युद्ध में पाकिस्तान से मुकाबले के लिए आ खड़ा हुआ। यह युद्ध कई मोर्चों पर एक साथ लड़ा गया। उनमें से एक मोर्चा दारापारी का था, जहाँ कम्पनी हवलदार पीरू सिंह नियुक्त थे।
उत्तरी तिथवाल की ‘डी’ कम्पनी में पीरू सिंह हवलदार मेजर के रूप में नियुक्त थे और इस कम्पनी को जिम्मेदारी सौंपी गई थी कि वह पहाड़ी पर जमी दुश्मन की टुकड़ी पर हमला करके उस पर काबू कर ले। दुश्मन ने बहुत सलीके से मीडियम मशीनगनें लगा कर अपनी रणनीति जमा रखी थी और उसकी ओर से वह सब रास्ते निशाने पर थे, जिनके जरिए उन पर हमला बोला जा सकता था। दुश्मन के बंकरों से ग्रेनेड फेंके जा रहे थे। हवलदार मेजर कम्पनी की एकदम अग्रिम पंक्ति में आगे बढ़ रहे थे। पीरू सिंह ने देखा कि उनकी आधे से ज्यादा टुकड़ी तबाह हो चुकी है, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। पूरे जोश से युद्धनाद करते हुए उन्होंने अपने बचे हुए जवानों का हौसला बढ़ाया और तेज़ीसे दुश्मन के निकटमत मीडियम मशीनगन दल की ओर बढ़ गए। फटते हुए ग्रेनेड की किर्चें पीरू सिंह के कपड़ों और शरीर को चीरते हुए निकलती जा रही थीं, लेकिन पीरू सिंह को इसकी जरा भी परवाह नहीं थी और वह अपनी हिफाजत की चिन्ता किए बगैर आगे बढ़ रहे थे। उनके शरीर से ख़ून बह रहा था, लेकिन उनका ध्यान इस ओर नहीं था। वह तो अपना सारा ध्यान बस लक्ष्य को पाने में लगा रहे थे। उन्होंने उत्तेजना से भरकर एक छलांग दुश्मन के उस मीडियम मशीनगन के दस्ते पर लगाई और बैनेट से भेदते हुए उन्हें मौत की नींद सुला दिया।
इसी समय पीरू सिंह को एहसास हुआ कि वह अपनी टुकड़ी में अकेले ही बचे हैं और एक मात्र योद्धा हैं। उनके शेष साथी या तो मौत की नींद सो गए हैं या बुरी तरह घायल हैं। अचानक एक ग्रेनेड आकर सीधे उनके चेहरे पर लगा। उनका चेहरा और आँखें ख़ून से भीग गईं। इसके बावजूद उन्होंने रेंगकर लुढ़कते हुए, ग्रेनेड की परवाह किए बगैर दुश्मन की दूसरी पोजीशन की ओर कूच कर दिया। पीरू सिंह ने पूरे जोश से युद्ध घोष किया और दूसरी खाई में छिपे दुश्मनों पर भी संगीन से वार किया और दो सैनिकों को ठिकाने लगा दिया। उनके इस हमले का सारा नज़ारा उनकी ‘सी’ कम्पनी के कमाण्डर ने देखा, जो पीरू सिंह की कम्पनी की गोलीबारी में मदद कर रहा था। इसी घायल अवस्था में हवलदार पीरू सिंह दूसरी खाई से निकल कर दुश्मन के तीसरे बंकर की ओर बढ़े। इसी वक्त एक गोली आकर सीधे उनके सिर में लगी और उन्हें दुश्मन की खाई से टकरा कर गिरते देखा गया। यकायक दुश्मन को धमाके की आवाज आई, जिससे पता चला कि पीरू सिंह का ग्रेनेड अपना काम कर गया। ठीक इसी समय पीरू सिंह ने भी गोली को झेलकर प्राण त्याग दिये।
पीरू सिंह ने अपनी बहादुरी भरे कारनामे के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी, लेकिन वह अपने साथियों के आगे एक जिन्दा मिसाल छोड़ गए कि अकेले दम पर भी लड़ी गई लड़ाई हिम्मत के बल पर क्या नतीजा दिखाती है। युद्ध में वे वीरगति को प्राप्त हुए। जिस हिम्मत, बहादुरी और सूझ-बूझ से हवलदार मेजर पीरू सिंह ने मोर्चा संभाला, उसके लिए उन्हें मरणोपरान्त “परमवीर चक्र” से सम्मानित किया गया।
पर विशेष। एजेन्सी। कंपनी हवलदार मेजर पीरू सिंह ( पीरू सिंह शेखावत) भारतीय सैनिक थे। 18 जुलाई, 1948, को भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए थे। उन्हें 1952 में मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया जो शत्रु के सामने वीरता प्राप्त करने के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च भारतीय सम्मान है।
पीरू सिंह का जन्म 20 मई, 1918 को झुंझुनू ज़िले के बेरी गाँव में हुआ था। उनके पिता के तीन पुत्र तथा चार पुत्रियाँ थीं। पीरू सिंह अपने भाइयों में सबसे छोटे थे। सात वर्ष की आयु में उन्हें स्कूल भेजा गया, लेकिन पीरू सिंह का मन स्कूली शिक्षा में नहीं लगा। स्कूल में एक साथी से उनका झगड़ा हो गया था। तब स्कूल के अध्यापक ने उन्हें डाँट लगाई। पीरू सिंह ने भी अपनी स्लेट वहीं पर पटकी और भाग गये। इसके बाद वे कभी पलट कर स्कूल नहीं गये।
स्कूली शिक्षा में मन नहीं लगने पर पीरू सिंह के पिता ने उन्हें खेती बाड़ी में लगा लिया। वह एक सम्पन्न किसान थे। खेती में पीरू सिंह ने अपनी रुचि दिखाई। वह अपने पिता की भरपूर मदद किया करते थे। उन्होंने किसानी का कार्य अच्छी तरह से सीख लिया था। किसानी के अतिरिक्त कई प्रकार के साहसिक खेलों में भी उनका बहुत मन लगता था। शिकार करने के तो वह बचपन से ही शौकीन रहे थे। अपने इस शौक़ के कारण वह कई बार घायल भी हुए थे।
शिकार के शौक़ ने ही पीरू सिंह को सेना में आने और फौजी बनने के लिए प्रेरित किया था। 1936 को पीरू सिंह ने फौज में कदम रखा। उन्हें 10/1st पंजाब में प्रशिक्षण के लिए लिया गया। फिर 1 मई, 1937 को उन्हें 5/1st पंजाब में नियुक्त कर लिया गया। फौज में आने के बाद ही पीरू सिंह के चरित्र में आश्चर्यजनक बदलाव आया। स्कूल में उन्हें पढ़ाई से चिढ़ थी, लेकिन फौज में वह पढ़ाई की ओर से बेहद गंभीर सैनिक सिद्ध हुए। कुछ ही वर्षों में उन्होंने ‘इंडियन आर्मी फर्स्ट क्लास सर्टिफिकेट ऑफ़ एजुकेशन’ सफलतापूर्वक पा लिया।
अपनी शिक्षा के आधार पर 17 अगस्त, 1940 को पीरू सिंह लांस नायक के रूप में पदोन्नत हो गए। इसी दौरान उन्होंने उत्तर-पश्चिम सीमा पर युद्ध में भी भाग लिया। मार्च, 1941 में वह नायक बनाये गए। सितम्बर, 1941 को वह शिक्षा के बल पर ही पंजाब रेजिमेंटल सेंटर में इंस्ट्रक्टर बने, जहाँ वह अक्टूबर, 1945 तक कार्य करते रहे। फ़रवरी, 1942 में वे हवलदार के रूप में पदोन्नत हुए। फिर मई, 1943 में वह कम्पनी हवलदार मेजर बन गये। उनकी तरक्की का यह रुझान हमेशा यह बताता रहा कि पीरू सिंह एक कर्मठ, बहादुर और जिम्मेदार फौजी हैं।
1947-1948 में जम्मू-कश्मीर क्षेत्र, जो लड़ाई का मैदान बन गया था, उसके पीछे ब्रिटिश राज द्वारा 3 जून, 1947 को की गई वह घोषणा थी, जो उन्होंने देश के विभाजन के साथ-साथ की थी। दरअसल, वह एक चाल थी, जो ब्रिटिश राज की कुटिलता को उजागर कर गई थी। वह भी तब, जब वह भारत को स्वतंत्र करने का निर्णय बाकायदा घोषित कर चुके थे। ब्रिटिश राज ने प्रस्ताव किया था कि देश के विभाजन के बाद अखण्ड भारत की सभी रियासतें यह चुनने के लिए स्वतंत्र हैं कि वह भारत में रहना चाहती हैं या पाकिस्तान से जुड़ना चाहती हैं या फिर उन्हें स्वतंत्र रहना ही पसन्द है। इनमें से जो रियासतें स्वतंत्र रहना चाहती थीं, उनमें महाराजा हरिसिंह भी थे, जिनका राज्य जम्मू-कश्मीर में था। उन्होंने इसके निर्णय करने की प्रक्रिया में जनमत जुटाना पसन्द किया, जिसके लिए उन्हें कुछ समय चाहिए था।
हरिसिंह ने इसके लिए भारत तथा पाकिस्तान से कुछ समय ठहरने का निवेदन किया। भारत ने उनके इस निवेदन को मान लिया, लेकिन पाकिस्तान तो बस हर हाल में कश्मीर को पाना चाहता था। उसने महाराजा हरिसिंह के निवेदन को नहीं माना। पाकिस्तान ने एक रणनीति के तहत कश्मीर की वह आपूर्ति रोक दी, जो उसके क्षेत्र से कश्मीर हमेशा पहुँचती थी। इस आपूर्ति में राशन, तेल, ईधन आदि की बहुत ही आवश्यक सामग्री थीं। इसके बाद पाकिस्तान ने पूरे सैन्य बल के साथ कश्मीर पर हमला कर दिया। उसका इरादा महाराजा हरिसिंह पर दबाव डालने का था कि वह पाकिस्तान के पक्ष में अपना मत प्रकट करें और पाकिस्तान के साथ जुड़ जायें। लेकिन पाकिस्तान को निराशा ही हाथ आई, क्योंकि महाराजा हरिसिंह ने भारत के पक्ष में मत प्रकट किया और भारत से मदद की गुहार की। ऐसी स्थिति में अब भारत के लिए मदद करना आसान था, क्योंकि महाराजा की सहमति से जम्मू-कश्मीर भारत का हो चुका था। 26 अक्टूबर, 1947 को महाराजा हरिसंह ने भारत के पक्ष में अपना मत रखा और 31 अक्टूबर को भारत इस युद्ध में पाकिस्तान से मुकाबले के लिए आ खड़ा हुआ। यह युद्ध कई मोर्चों पर एक साथ लड़ा गया। उनमें से एक मोर्चा दारापारी का था, जहाँ कम्पनी हवलदार पीरू सिंह नियुक्त थे।
उत्तरी तिथवाल की ‘डी’ कम्पनी में पीरू सिंह हवलदार मेजर के रूप में नियुक्त थे और इस कम्पनी को जिम्मेदारी सौंपी गई थी कि वह पहाड़ी पर जमी दुश्मन की टुकड़ी पर हमला करके उस पर काबू कर ले। दुश्मन ने बहुत सलीके से मीडियम मशीनगनें लगा कर अपनी रणनीति जमा रखी थी और उसकी ओर से वह सब रास्ते निशाने पर थे, जिनके जरिए उन पर हमला बोला जा सकता था। दुश्मन के बंकरों से ग्रेनेड फेंके जा रहे थे। हवलदार मेजर कम्पनी की एकदम अग्रिम पंक्ति में आगे बढ़ रहे थे। पीरू सिंह ने देखा कि उनकी आधे से ज्यादा टुकड़ी तबाह हो चुकी है, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। पूरे जोश से युद्धनाद करते हुए उन्होंने अपने बचे हुए जवानों का हौसला बढ़ाया और तेज़ीसे दुश्मन के निकटमत मीडियम मशीनगन दल की ओर बढ़ गए। फटते हुए ग्रेनेड की किर्चें पीरू सिंह के कपड़ों और शरीर को चीरते हुए निकलती जा रही थीं, लेकिन पीरू सिंह को इसकी जरा भी परवाह नहीं थी और वह अपनी हिफाजत की चिन्ता किए बगैर आगे बढ़ रहे थे। उनके शरीर से ख़ून बह रहा था, लेकिन उनका ध्यान इस ओर नहीं था। वह तो अपना सारा ध्यान बस लक्ष्य को पाने में लगा रहे थे। उन्होंने उत्तेजना से भरकर एक छलांग दुश्मन के उस मीडियम मशीनगन के दस्ते पर लगाई और बैनेट से भेदते हुए उन्हें मौत की नींद सुला दिया।
इसी समय पीरू सिंह को एहसास हुआ कि वह अपनी टुकड़ी में अकेले ही बचे हैं और एक मात्र योद्धा हैं। उनके शेष साथी या तो मौत की नींद सो गए हैं या बुरी तरह घायल हैं। अचानक एक ग्रेनेड आकर सीधे उनके चेहरे पर लगा। उनका चेहरा और आँखें ख़ून से भीग गईं। इसके बावजूद उन्होंने रेंगकर लुढ़कते हुए, ग्रेनेड की परवाह किए बगैर दुश्मन की दूसरी पोजीशन की ओर कूच कर दिया। पीरू सिंह ने पूरे जोश से युद्ध घोष किया और दूसरी खाई में छिपे दुश्मनों पर भी संगीन से वार किया और दो सैनिकों को ठिकाने लगा दिया। उनके इस हमले का सारा नज़ारा उनकी ‘सी’ कम्पनी के कमाण्डर ने देखा, जो पीरू सिंह की कम्पनी की गोलीबारी में मदद कर रहा था। इसी घायल अवस्था में हवलदार पीरू सिंह दूसरी खाई से निकल कर दुश्मन के तीसरे बंकर की ओर बढ़े। इसी वक्त एक गोली आकर सीधे उनके सिर में लगी और उन्हें दुश्मन की खाई से टकरा कर गिरते देखा गया। यकायक दुश्मन को धमाके की आवाज आई, जिससे पता चला कि पीरू सिंह का ग्रेनेड अपना काम कर गया। ठीक इसी समय पीरू सिंह ने भी गोली को झेलकर प्राण त्याग दिये।
पीरू सिंह ने अपनी बहादुरी भरे कारनामे के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी, लेकिन वह अपने साथियों के आगे एक जिन्दा मिसाल छोड़ गए कि अकेले दम पर भी लड़ी गई लड़ाई हिम्मत के बल पर क्या नतीजा दिखाती है। युद्ध में वे वीरगति को प्राप्त हुए। जिस हिम्मत, बहादुरी और सूझ-बूझ से हवलदार मेजर पीरू सिंह ने मोर्चा संभाला, उसके लिए उन्हें मरणोपरान्त “परमवीर चक्र” से सम्मानित किया गया।