जन्माष्टमी देश के सभी भागों में मनाई जाती है। भादों के महीने की अंधेरे पक्ष की अष्टमी को सभी लोग व्रत रखते हैं और सभी लोग अपने-अपने घरों में झांकी बनाते हैं। झाकियां बनाने का काम तो बहुत पहले से ही शुरू हो जाता है। अष्टमी को उसे पूरा करके तैयार कर देते हैं। झांकी में श्रीकृष्ण के लिए हिंडोला बनाकर उसमें लड्डू-गोपाल को बैठाकर झुलाते हैं। इसके अतिरिक्त और भी कई लीलाएं बनाते हैं जैसे पूतना-वध, माखन चोरी, गाय चराना, गोपियों के साथ रास और कालियामर्दन इत्यादि। कृष्ण जीवन -लीला के अतिरिक्त भगवान की लीलाएं, जैसे गंगावतरण, शिव-पार्वती विवाह के दृश्य, भी कई लोग बनाते हैं। शाम को खूब अच्छी रोशनी करने बैठ जाते हैं। सर्वत्र शांति और भक्ति का साम्राज्य छा जाता है। रात को बारह बजे तक यही कार्यक्रम चलता रहता है। 12 बजे जन्मकाल के समय कृष्ण-जन्म के गीत गाते हैं, जैसे- बिहाई सोहर आदि। फिर आरती उतारते हैं, भोग लगाते हैं और इसके बाद सब लोग खाना खाते हैं। इस प्रकार जन्माष्टमी का त्यौहार पूरा होता है। सभी जानते हैं कि श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा की जेल में हुआ और लालन-पालन हुआ गोकुल के ग्वाले राजा नंद बाबा के घर। बचपन से ही उन्होंने ऐसे मानवोपरि कार्य किए, जिनसे पता चलता है कि वह साधारण बालक नहीं थे। केवल छः महीने के ही थे, जब कंस के भेजे शकटासुर नामक दैत्य का वध किया और उसी आयु में पूतना नामक राक्षसी को, जो अपने स्तनों में विष लगाकर उन्हें मारने आई थी, मार डाला। दो-तीन वर्ष की आयु में ऊखल फंसाकर आंगन में लगे यमलार्जुन नामक दोनों वृक्षों का गिरा दिया। बालक कृष्ण ने एक बार मिट्टी खाई। माता यशोदा मारने दौड़ी,‘‘ तूने फिर मिट्टी खाई’’? कृष्ण ने झट से डरकर अपना मुंह खोल दिया ‘‘नहीं मां! मैंने मिट्टी नहीं खाई, देखो मेरा मंुह!’’ यशोदा माता ने कृष्ण के मुंह में सारा ब्रह्माण्ड देखा। उसे देख कर, उन्हें अपनी सुध-बुध न रही। वह बहुत ही डर गई। उनकी यह अवस्था देखकर कृष्ण ने अपना मंुह बंद कर लिया और बोले, ‘‘मां यह बात तुम किसी से भी न कहना!’’ मां तुरंत ही सामान्य हो गई और कृष्ण को गोद में उठाकर प्यार करने लगीं। कालियामर्दन की कथा तो सभी को मालूम है। छः वर्ष की छोटी आयु में यमुना में कूदकर शतमुखी नाग के फनों पर नृत्य किया और फिर उसे उसकी नागिनों सहित यमुना में से निकाल रमण्क द्वीप में भेजकर यमुना के जल को शुद्ध किया। कंस ने कृष्ण और बलराम को किशोरवस्था में ही मथुरा में बुलवा लिया। वह उन दोनों को मरवा डालना चाहता था। लेकिन मथुरा पहुंचकर इन दोनों भाइयों ने मिलकर कंस को ही मार डाला। कंस के मरने के बाद मथुरा का राज्य उग्रसेन को सौंपकर दोनों भाई संदीपन गुरू के आश्रम में शिक्षा ग्रहण के लिए चले गए। कई वर्ष तक वहंा रहकर भाषा और दर्शन के प्रकांड पंडित बनकर द्वारका आए।
बचपन से ही लोक जीवन से घनिष्ट संबंध रहने तथा ब्रज की संस्कृति में पूर्ण रूप से डूबे रहने के कारण श्रीकृष्ण में राजमद कभी नहीं आया। कौरव-पांडवों के बीच
संधि करवाने का भरसक प्रयत्न करने पर भी उन्हें सफलता न मिल सकी। अंत में उस अर्जुन को, जिसने युद्ध क्षेत्र में अपने सगे- संबंधियों तथा अपने गुरुजनों को विरोधी सेना में यद्ध के लिए तैयार खड़े देखकर, उनके ऊपर शस्त्र ने चलाने का निश्चय करक गांडीव नीचे रख दिया था, युद्ध करने के लिए प्रेरित किया। कितना भारी मानसिक संतुलन था, जिसमें जय-पराजय, हानि, लाभ, राग- द्वेष, सुख और जीवन-मरण के प्रति पूर्ण निरासक्त, निस्संग और निद्र्वंद रहकर अर्जुन ने युद्ध किया। युद्ध में दोनों सेनाओं के बीच खड़े होकर जो उपदेश, उन्होंने अर्जुन को दिया वह गीता के 18 अध्यायों में विस्तार से वर्णित है। उसे तभी लोग बड़ी श्रद्धा से पढ़ते और सुनते हैं।
श्रीकृष्ण के जीवन की इतनी कथाएं हैं जिनका वर्णन नहीं हो सकता है। उनके असाधारण कार्यों के कारण ही हम, उन्हें भगवान के पद पर प्रतिष्ठित करने को बाध्य हो जाते हैं। उस समय, जब विज्ञान इतना विकसित नहीं था, यातायात के साधन आज जैसे नहीं थे, उन्होंने ऐसे-ऐसे कार्य किए, जो आज के युग में सभी सुविधाओं के होते हुए भी करने में कठिन हैं। हम उन्हे साधारण मनुष्य कभी नहीं समझ सकते हैं। उनके उन असाधारण गुणों के कारण ही हर वर्ष हम, उनका जन्मदिन मनाते हैं। झांकियों सजाते हैं, भजन-कीर्तन करते हैं और प्रसाद वितरण करते हैं। (हिफी)