शबाहत हुसैन विजेता।लखनऊ। पुराना सा धोती कुर्ता, पैरों में हवाई चप्पल और हाथ में झोला। दिखने में ही देहाती नजर आने वाले रामनाथ सिंह ( 22 अक्टूबर 1947) के बारे में बहुत कम लोग जानते थे कि यही अदम गोंडवी हैं। आज उनकी सालगिरह है सो वह अचानक जेहन में बिजली सा कौंध गए। पन्द्रह-बीस साल पहले लखनऊ महोत्सव के ग्रीन रूम में उनसे अचानक मुलाकात हुई थी। वह मेरे बिल्कुल बराबर की कुर्सी पर बैठे थे लेकिन मुझे पता नहीं था कि इतना बड़ा आदमी मेरे पास बैठा हुआ है। मैं वहां किसी का इंटरव्यू के लिए इंतजार कर रहा था। वह देर तक पास में बैठे रहे तो परिचय हो गया। नाम सुनते ही मुझे करेंट सा लगा। इतना बड़ा आदमी और इतनी सादगी।
अदम गोंडवी से पहली मुलाकात से पहले ही मैं उनकी प्रतिबंधित किताब ‘मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको पढ़ चुका था। मेरे पत्रकार मित्र राकेश वर्मा ने वह किताब मुझे फोटो स्टेट कराकर दी थी। जिस रात मुझे वह किताब मिली थी, मैं सारी रात उसे पढ़ता रहा था। उसी रात अदम गोंडवी मेरे जेहन पर हमेशा के लिए चस्पा हो गए थे। बीच-बीच में उनसे मुलाकात होती रहती थी। 2011 में लखनऊ के पुस्तक मेले में उनकी भी एक किताब विमोचित हुई। वह लखनऊ आए थे। उनसे मिलने के लिए ही मैं मोती महल लान गया था। कवि संजय मल्होत्रा ने मोती महल लान के एक ऐसे कमरे में अदम गोंडवी को लाकर मेरे पास बिठा दिया जिसमें पंखा तक खराब था। गर्मी हो रही थी लेकिन अदम साहब बेपरवाह थे। हर सवाल का जवाब इस तरह से दे रहे थे जैसे कि इंटरव्यू पूरी तरह से फिक्स हो और उन्हें सवाल पहले से ही पता हों। उस मुलाकात में उनकी लम्बी कविता ‘चमारों की गली तक का जिक्र भी हुआ।
मैंने अदम गोंडवी से पूछा था कि आप आजाद हिन्दुस्तान में पैदा हुए। आजाद हिन्दुस्तान में हालात बहुत बदल चुके थे। चमार को चमार कहने पर रोक लग गयी थी। सभी को बराबरी का दर्जा दिया गया था। फिर आपको क्यों जरूरत पड़ी ऐसी कविता लिखने की। सवाल सुनकर अदम गोंडवी गंभीर हो गए थे। मैं गांव का रहने वाला हूं। सारी जिन्ïदगी गांव में गुजारी है। मुझसे बेहतर कौन जानता है हालात को। मैंने देखा है कि जिसे अछूत कहा जाता है वह अपनी जिन्दगी किस मुश्किल से गुजारता है। मैंने देखा है एक इंसान को दूसरे इंसान के मैले को अपने सर पर ढोते हुए। गरीबी और अमीरी के फर्क को मैंने बहुत करीब से देखा है। गरीब आदमी हिन्दुस्तान की राजनीति के जंजाल में किस बुरी तरह से उलझा हुआ है मुझसे बेहतर कौन जानता है।
वह अच्छा इंटरव्यू था लेकिन मुझे पता नहीं था कि वह उनका आखिरी इंटरव्यू भी है। परसपुर गोंडा से बीमारी की हालत में वह लखनऊ के पीजीआई आ गए थे। इलाज में उनकी पुश्तैनी जमीन भी बिक गयी थी। सरकार से मदद की सारी कोशिशें दम तोड़ गयी थीं। इतना बड़ा आदमी कैसी मजबूरी की जिन्दगी जी रहा था। उन्हें जिन्दगी देने की कोशिशों वाली फाइल एक अधिकारी से दूसरे अधिकारी की टेबिल पर धीरे-धीरे सरक रही थी। यह हालत तब थी जब उन्हें इलाज दिलवानेेके लिए गोंडा के डीएम भी कोशिश कर रहे थे। उनके इलाज की सरकारी व्यवस्था होते-होते उनकी सांसें उखड़ गयीं।
उनकी कोशिशों को जरा भी गंभीरता से लिया गया होता तो शायद हालात ही कुछ और होते। अदम गोंडवी की कुछ लाइनें याद आती हैं :-‘हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेडिय़े, अपनी कुर्सी के लिए जज्बात को मत छेडिय़े, गल्तियां बाबर की थीं जुम्मन का घर फिर क्यों जले, ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेडिय़े, छेडिय़े एक जंग मिल जुलकर गरीबी के खिलाफ, दोस्त मेरे मजहबी नगमात को मत छेडिय़े। अदम की रचनाओं से नजर गुजरती है तो बार-बार यही लगता है कि यह सियासत हमें जीने नहीं देगी। हिन्दू-मुस्लिम के बीच भी तो मजहबी इख्तेलाफ ही है जो दोनों को एक माला में गुंथने नहीं दे रहा है। अदम गोंडवी आज नहीं हैं लेकिन बशीर बद्र का एक शेर बड़ा सुकून दे जाता है। उसे शेर से बार-बार यह अहसास होता है कि लिखने वाले का नाम भले बदल जाए लेकिन अगर कोशिश एक जैसी हो तो हालात कभी न कभी बदलना तय हैं। बशीर बद्र ने लिखा था:-‘दुश्मनी का सफर बस कदम दो कदम, तुम भी थक जाओगे, हम भी थक जाएंगे।