नरक चतुर्दशी पर विशेष
पांच दिन के दीपावली उत्सव का दूसरा पर्व नरक चतुर्दशी कहलाता है। इसे छोटी दीवाली, रूप चौदस अथवा काली चतुर्दशी भी कहते हैं। जिन स्थानों पर नवरात्रि के समय देवी का पूजन बहुत जोर शोर से किया जाता है। उन स्थानों पर प्रायः ही काली पूजन को विशेष स्थान मिला हुआ है। उत्तर पूर्वी राज्यों में चूंकि देवी पूजन का ज्यादा महत्व है अतः वहां काली पूजन किया जाता है। वहीं पश्चिमी राज्यों विशेषकर राजस्थान तथा मध्य प्रदेश के कुछ भागों में नरक चतुर्दशी को रूप चौदस के रूप में भी मनाते हैं। इस दिन पुरुष और स्त्रियां सभी बड़े जोर शोर से और धार्मिक आस्था के साथ उबटन लगाकर शिरोस्नान करते हैं ताकि शरीर एकदम साफ सुथरा दमकने लगे। वहां यह भी मान्यता है कि इस दिन जो स्त्री विधि विधान पूर्वक रूप रंग निखारने के सभी साधनों का प्रयोग करके स्नानादि के बाद श्रृंगार करती है वह आने वाले वर्ष भर सुख समृद्धि और आनन्द का जीवन व्यतीत करती है। इसके लिये केले का विशेष उबटन बनाने की परम्परा भी है। ऐसे ही कई स्थानों पर इस पर्व को कृष्ण चतुर्दशी के रूप मनाते हैं। कहते हैं कि इस दिन चंद्रोदय के समय स्नान करने वाले को यमलोक का दर्शन नहीं करना पड़ता है। नरक चतुर्दशी के दिन महाकाली का पूजन होता है। परपीड़ा में जों व्यय की जाए वह अशक्ति है जो स्वार्थ के लिए व्यय की जाए वह शक्ति कहलाती है। जो किसी के रक्षणार्थ व्यय की जाए वह काली और प्रभुकार्य में व्यय की जाए वह महाकाली है। इस रात दीए जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं। एक कथा के अनुसार आज के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी दु्र्दांत असुर नरकासुर का वध किया था। यह कथा कुछ इस प्रकार से है नरकासुर प्राग्यज्योतिषपुर (वर्तमान में असम) का राजा था और उसने किसी धार्मिक अनुष्ठान के लिये देश भर से विभिन्न राजकुमारियों का अपहरण करके उनको अपने यहां बन्दी बनाकर रखा हुआ था। उसे कुल सोलह हजार एक सौ राजकुमारियों की आवश्यकता थी ताकि उनकी बलि देकर वह अमरत्व को प्राप्त कर लेता। उसकी इसी इच्छा को रोकने के लिये देवताओं ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना स्वीकार करके भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर पर चढ़ाई कर दी किन्तु वह दुर्दान्त दैत्य अपनी राजधानी में जाकर छुप गया। उसे वरदान था कि राजधानी के भीतर उसे मारना असंभव होगा। तब भगवान श्रीकृष्ण ने एक चाल चलकर उसे बाहर आने पर मजबूर कर दिया। तत्पश्चात युद्ध हुआ जो कई दिनों तक चला और अंततः कार्मिक मास की कृष्णपक्ष चतुर्दशी को भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का संहार किया। पुराणों के अनुसार नारकासुर की कैद में बन्द राजकुमारियां तभी पूर्णतया मुक्त हो सकती थीं जब वहीं कोई उनसे विवाह करता। उन सभी ने एक स्वर से भगवान श्रीकृष्ण से विवाह करने की इच्छा प्रकट की और तब उन्हांने उनकी इच्छा पूरी करते हुए उन सभी सोलह हजार एक सौ राजकुमारियों से विधि पूर्वक विवाह करके उन्हें मुक्त करवाया। चूंकि यह युद्ध स्त्रियों की रक्षा हेतु था अतः इस युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण के साथ उनकी पत्नी सत्यभामा भी थीं जिन्होंने अन्ततः नरकासुर को मारने में बड़ा योगदान किया। इसी की स्मृति में नरक चतुर्दशी पर संध्या काल में नरकासुर के लिये भी चार दीपक जलाए जाते हैं। ऐसे ही संध्याकाल में घर की निकासी की नाली या मोरी के पास यम के लिये भी दीप जलाए जाते हैं। श्रीमदभगवत महापुराण के नवे स्कंध में राजा रंतिदेव की एक कथा आती है कि कैसे दानी थे वह। एक बार खीर आदि लेकर वह जैसे ही भोजन करने बैठे एक ब्राहमण आया जिसके भीतर रन्तिदेव ने भगवन को देखा और उसका आदर पूर्वक स्वागत किया। जब ब्राहमण खाकर चला गया तब राजा अपने परिवार सहित बचा हुआ भोजन करने के लिए बैठे कि तभी एक और अतिथि आ गया राजा ने उस अतिथि को भी भोजन करवा दिया ।जैसे ही अतिथि गया एक दूसरा अतिथि कुछ कुत्ते साथ लिए हुए पहुंचा तो राजा रन्तिदेव ने बचा हुआ सम्पूर्ण अन्न दे दिया । अब वे भोजन पकाए हुए बर्तनों का धोवन पानी सकुटुम्ब आपस में बांटकर उस पानी को पीने ही वाले थे की पानी की खोज करता हुआ एक प्यासा चंडाल आ पहुंचा राजा ने सारा पानी उसे दे दिया।इस तरह से उन्हें कोई 48 दिनों तक ऐसे ही भूखा रहना पड़ा। लेकिन ऐसे धर्म परायण उनके समक्ष एक रात्रि को एकाएक ही यमदूत आ खड़े हुए। राजा बोले मैंने तो कभी कोई पाप कर्म नहीं किया फिर क्यों मुझे नर्क जाना होगा। आप बताएं कि मेरे किस अपराध के कारण मुझे नरक जाना पड़ रहा है। यमदूतों ने उनको वसिष्ठ ऋषि से मिलने को कहा । तब ऋषि ने उन्हें बताया कि कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करें और ब्राह्मणों को भोजन करवा कर उनके प्रति हुए अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करें। राजा ने वैसा ही किया जैसा ऋषियों ने उन्हें बताया। इस प्रकार राजा पाप मुक्त हुए और उन्हें विष्णु लोक में स्थान प्राप्त हुआ। उस दिन से पाप और नर्क से मुक्ति हेतु भूलोक में कार्तिक चतुर्दशी के दिन का व्रत प्रचलित है। इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर तेल लगाकर और पानी में चिरचिरी के पत्ते डालकर उससे स्नान करके विष्णु मंदिर और कृष्ण मंदिर में भगवान का दर्शन करना चाहिए। इससे पाप कटता है और रूप सौन्दर्य की प्राप्ति होती है। कई घरों में इस दिन रात को घर का सबसे बुजुर्ग सदस्य एक दिया जला कर पूरे घर में घुमाता है और फिर उसे ले कर घर से बाहर कहीं दूर रख कर आता है। घर के अन्य सदस्य अंदर रहते हैं और इस दिए को नहीं देखते। यह दीया यम का दीया कहलाता है। माना जाता है कि पूरे घर में इसे घुमा कर बाहर ले जाने से सभी बुराइयां और कथित बुरी शक्तियां घर से बाहर चली जाती हैं। (हिफी)