पुण्य तिथि पर विशेष। पंडित रवीन्द्र शंकर चौधरी, विश्व में भारतीय शास्त्रीय संगीत की उत्कृष्टता के सबसे बड़े उदघोषक थे। सितार वादक के रूप में उन्होंने ख्याति अर्जित की। रवि शंकर और सितार मानो एक-दूसरे के लिए ही बने हों। वह इस सदी के सबसे महान् संगीतज्ञों में गिने जाते थे। रविशंकर को विदेशों में बहुत अधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई। विदेशों में वे अत्यन्त लोकप्रिय एवं सफल रहे। रविशंकर के संगीत में आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त होती है।
पं रवि शंकर का जन्म संस्कृति-संपन्न काशी में 7 अप्रॅल, 1920 को हुआ था। आपका आरंभिक जीवन काशी के पुनीत घाटों के पर ही बीता। पंडित रविशंकर का बचपन बहुत ही सुखद रहा। उनके पिता प्रतिष्ठित बैरिस्टर थे और राजघराने में उच्च पद पर कार्यरत थे। रविशंकर जब केवल दस वर्ष के थे तभी संगीत के प्रति उनका लगाव शुरू हुआ। पंडित रविशंकर ने बचपन में कला जगत् में प्रवेश एक नर्तक के रूप में किया। उन्होंने अपने बड़े भाई उदय शंकर के साथ कई नृत्य कार्यक्रम किये। उन दिनों को याद करते हुए वह कहते हैं-मैं बनारस में रहता था। संगीत से मेरा कोई सीधा संबंध नहीं था, लेकिन मेरे दूसरे भाइयों की इसमें पूरी रुचि थी। कोई बांसुरी बजाता था तो कोई सितार। मेरे बडे भाई पंडित उदय शंकर जी नृत्य करते थे। वह मुझे अपने साथ पेरिस ले गए। उनके दल में अच्छे-अच्छे संगीतज्ञ और कलाकार थे। वहीं से मुझमें संगीत का शौक़ पैदा हुआ। पहले तो मैंने नृत्य सीखना शुरू किया, पर अधिक दिनों तक इस क्षेत्र में नहीं रहा। वजह यह थी कि मेरी रुचि संगीत में बढ़ने लगी थी। -पं. रवि शंकर
इनकी आरंभिक संगीत शिक्षा घर पर ही हुई। उस समय के प्रसिद्ध संगीतकार और गुरु उस्ताद अलाउद्दीन ख़ां को इन्होंने अपना गुरु बनाया। यहीं से आपकी संगीत यात्रा विधिवत आरंभ हुई। अलाउद्दीन ख़ां अनुभवी गुरु की आँखों ने आप के भीतर छिपे संगीत प्रेम को पहचान लिया था। उन्होंने आपको विधिवत अपना शिष्य बनाया। वह लंबे समय तक तबला वादक उस्ताद अल्ला रक्खा ख़ाँ, किशन महाराज और सरोद वादक उस्ताद अली अकबर ख़ान के साथ जुड़े रहे। अठारह वर्ष की उम्र में उन्होंने नृत्य छोड़कर सितार सीखना शुरू किया।
रविशंकर संगीत की परम्परागत भारतीय शैली के अनुयायी थे। उनकी अंगुलियाँ जब भी सितार पर गतिशील होती थी, सारा वातावरण झंकृत हो उठता था। अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर भारतीय संगीत को ससम्मान प्रतिष्ठित करने में उनका उल्लेखनीय योगदान है। उन्होंने कई नई-पुरानी संगीत रचनाओं को भी अपनी विशिष्ट शैली से सशक्त अभिव्यक्ति पदान की।
पंडित रविशंकर ने पहला कार्यक्रम 10 साल की उम्र में दिया था। भारत में पंडित रविशंकर ने पहला कार्यक्रम 1939 में दिया था। देश के बाहर पहला कार्यक्रम उन्होंने 1954 में तत्कालीन सोवियत संघ में दिया था और यूरोप में पहला कार्यक्रम 1956 में दिया था। 1944 में औपचारिक शिक्षा समाप्त करने के बाद वह मुंबई चले गए और उन्होंने फ़िल्मों के लिए संगीत दिया। 1960 के दशक के मध्य में उन्होंने तीन यादगार प्रस्तुतियां मॉनटेरी पॉप फेस्टिवल, कंसर्ट फॉर बांग्लादेश, वुडस्टॉक फेस्टिवल दीं।
रवि शंकर ने भारत, कनाडा, यूरोप तथा अमेरिका में बैले तथा फ़िल्मों के लिए भी संगीत कम्पोज किया। इन फ़िल्मों में ‘चार्ली’, ‘गांधी’ और ‘अपू त्रिलोगी’ भी शामिल हैं। इसके अतिरिक्त आपने अनेक फ़िल्मों में भी अपने संगीत का जादू जगाया है।
सत्यजीत राय की बंगाली फ़िल्म ‘अपू त्रिलोगी’ बहुचर्चित फ़िल्म थी। हिन्दी फ़िल्म अनुराधा में भी आपने ही संगीत दिया। पंडित रविशंकर ने अपने लंबे संगीत जीवन में कई फ़िल्मों के लिए भी संगीत निर्देशन किया जिसमें प्रख्यात फ़िल्मकार सत्यजीत राय की फ़िल्में और गुलज़ार द्वारा निर्देशित “मीरा” भी शामिल है। रिचर्ड एटिनबरा की फ़िल्म ‘गांधी’ में भी आपका ही सुरीला संगीत था। आपने कई पाश्चात्य फ़िल्मों में भी संगीत दिया।
रवि शंकर ने 1971 में ‘बांग्लादेश मुक्ति संग्राम’ के समय वहां से भारत आ गए लाखों शरणार्थियों की मदद के लिए कार्यक्रम करके धन एकत्र किया था। हिन्दुस्तानी संगीत को रविशंकर ने रागों के मामले में भी बड़ा समृद्ध बनाया है। यों तो उन्होंने परमेश्वरी, कामेश्वरी, गंगेश्वरी, जोगेश्वरी, वैरागी तोड़ी, कौशिकतोड़ी, मोहनकौंस, रसिया, मनमंजरी, पंचम आदि अनेक नये राग बनाए हैं, पर वैरागी और नटभैरव रागों का उनका सृजन सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ। शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो, जब रेडियो पर कोई न कोई कलाकार इनके बनाए इन दो रागों का न गाता-बजाता हो।
प्रारम्भ में पंडित जी ने अमेरिका के प्रसिद्ध वायलिन वादक येहुदी मेन्युहिन के साथ जुगलबन्दियों में भी विश्व-भर का दौरा किया। तबला के महान् उस्ताद अल्ला रक्खा भी पंडित जी के साथ जुगलबन्दी कर चुके हैं। वास्तव में इस प्रकार की जुगलबन्दियों में ही उन्होंने भारतीय वाद्य संगीत को एक नया आयाम दिया। पंडित जी ने अपनी लम्बी संगीत-यात्रा में अपने और अपने सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण पुस्तकें भी लिखी हैं। ‘माई म्यूजिक माई लाइफ’ के अतिरिक्त उनकी ‘रागमाला’ पुस्तक विदेश के सुप्रसिद्ध प्रकाशक ने प्रकाशित की है।
पंडित रवि शंकर को विभिन्न विश्वविद्यालयों से डाक्टरेट की 14 मानद उपाधियां मिल चुकी हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतर्गत संगीतज्ञों की एक संस्था के सदस्य रहे। रवि शंकर को तीन ग्रेमी पुरस्कार मिले हैं। रेमन मैग्सेसे पुरस्कार, पद्म भूषण, पद्म विभूषण तथा भारत का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न भी मिल चुका है। रवि शंकर को भारतीय संगीत ख़ासकर सितार वादन को पश्चिमी दुनिया के देशों तक पहुंचाने का श्रेय भी दिया जाता है।
1968 में उनकी ‘यहूदी मेनुहिन’ के साथ उनकी एल्बम ‘ईस्ट मीट्स वेस्ट’ को पहला ग्रैमी पुरस्कार मिला था। फिर 1972 में ‘जॉर्ज हैरिसन’ के साथ उनके ‘कॉनसर्ट फॉर बांग्लादेश’ को ग्रैमी दिया गया। संगीत जगत् का ऑस्कर माने जाने वाले ग्रैमी पुरस्कार की विश्व संगीत श्रेणी में पंडित रविशंकर के साथ स्पर्धा में ब्रिटेन के प्रख्यात संगीतकार जॉन मेक्लॉलिन और ब्राज़ील के गिलबर्टो गिल और मिल्टन नेसिमेल्टो भी शामिल थे।
1986 में राज्यसभा के मानद सदस्य चुनकर भी उन्हें सम्मानित किया गया। 1986 से 1992 तक राज्य सभा के सदस्य रहे। सितार वादक पंडित रविशंकर भारत के उन गिने चुने संगीतज्ञों में से थे जो पश्चिम में भी लोकप्रिय रहे। रवि शंकर अनेक दशकों से अपनी प्रतिभा दर्शाते रहे। 1982 के दिल्ली एशियाड के ‘स्वागत गीत’ को उन्होंने कई स्वर प्रदान किये थे। उनको देश-विदेश में कई बार सम्मानित किया जा चुका है।
पंडित रविशंकर का 92 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। अमेरिका में सैन डिएगो के एक अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली। पंडित रविशंकर को सांस लेने में तकलीफ की शिकायत के बाद ला जोल्ला के स्किप्स मेमोरियल अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उन्होंने स्थानीय समयानुसार मंगलवार 11 दिसम्बर, 2012 को शाम 4.30 बजे अंतिम सांस ली। भारत कोष से।