स्मृति शेष।
दीवान सुशील पुरी । पारसी परिवार में पैदा हुई भीखाजी कामा ब्रिटिश हुकूमत के जुल्मों को मिटाने के लिए महान क्रांतिकारी बनी। वह एक ऐसी महान क्रांतिकारी थी जो अपनी आभा बिखेर कर आकाश में विलीन हो गई। जैसे पूरे विश्व में कोरोना बीमारी फ़ैल गई थी उसी तरह 1896 में बम्बई में और 1897 में पूना में भयंकर प्लेग फैला था। भीखाजी ने पीड़ितों की बड़ी सेवा की थी जिससे वह खुद भी बीमार हो गई थी। कई वर्ष बम्बई में उनका इलाज चलता रहा। जब कंट्रोल नहीं हुआ और तबियत काफी ख़राब हो जाने पर उन्हें इलाज के लिए 1902 में यूरोप जाना पड़ा। उसी दौरान वह “संस्था ऑफ इंडियन होमरूल”(डिपेंडेंट कंट्री) के नेताओं जैसे – विनायक दामोदर सावरकर,श्याम जी, कृष्ण वर्मा,एस रावल भाई राणा और बी.एस.अय्यर जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर देश की आजादी के लिए काम करने लगी। इनका जन्म पारसी परिवार में 24 सितंबर,1861 में नवसारी बम्बई अब मुंबई में हुआ था। उनके पिताजी का नाम श्री सोराब जी फरंजी पटेल था, वह एक बड़े व्यापारी थे , लेकिन बड़े दकयानूसी थे जो अंग्रेजों के पिट्ठू थे। लेकिन पारसी समुदायों में काफी प्रसिद्ध थे। भीखाजी कामा जी की माता का नाम जेजीबाई सोराब जी था। उनकी पढ़ाई एलेक्जेंड्रा नेटिव गर्ल्स इंगलिश इंस्टीट्यूशन से हुई। भीखाजी की शादी के.आर.कामा जी के साथ हुई थी, वह एक प्रसिद्ध धनी व्यापारी थे। लेकिन पति के साथ इनकी कभी बनी नहीं। वह अंग्रेजों का गुणगान करते रहते थे। भीखाजी देश की आजादी के समर्थन में थी। इसलिए दोनों शादी से खुश नहीं थे और दोनों के विचार नहीं मिलते थे। 1902 में इलाज करने के दौरान वह क्रांतिकारियों के संपर्क में आ चुकी थी। वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की प्रमुख हस्तियों में एक थी।
लॉर्ड कर्जन ने 1905 में बंगाल का बंटवारा कर दिया और बंग-बंग के खिलाफ जुझारू आंदोलन शुरू हो गया। ब्रिटिश शासकों ने कई लोगों को गोली से उड़ा दिया। इसका असर मैडम भीखाजी कामा पर पड़ा और विदेश में रहकर भारतीय क्रांतिकारियों के साथ मिलकर ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने की प्रतिज्ञा ली। भीखाजी कामा एक बड़ी क्रांतिकारी बन चुकी थी। इनके चर्चे देश-विदेश में हो रहे थे। भीखाजी अपने प्रवास के दौरान दादा भाई नौरोजी से मिली थी जो भारत में ब्रिटिश आर्थिक निति के आलोचक थे। यूनाइटेड किंगडम में संसद के लिए खड़े हुए थे और चुनाव हार गए थे। दूसरी बार चुनाव में भीखाजी कामा ने उनकी मदद की थी और वह ब्रिटिश सरकार में पहला भारतीय सांसद हुआ।
22 अगस्त 1907 में जर्मनी के स्टटगार्ड नगर में ‘इंटरनेशनल सोशलिस्ट’ कॉन्फ्रेंस हो रहा था, उस में भारतीय प्रतिनिधित्व के रूप में भीखाजी कामा जी को भी आने का निमंत्रण मिला था। यहाँ पर इन्होंने ओजस्वी भाषण दिया था। भीखाजी ने पहला भारतीय राष्ट्रीय तिरंगा झंडा बनाया था जो लाल, हरे और पीले रंग का था, जिसके बीच में ‘वंदे मातरम’ लिखा हुआ था। ऊपर के पट्टी में 8 कमल बने थे और नीचे की पट्टी में सूर्य और अर्धचंद्र बने थे। यह पहला अवसर था जब भारत के झंडे को फहराया गया था। उस समय मैडम कामा जी ने कहा कि यह भारत राष्ट्र का झंडा है, जो अपने देश भारत के भक्तों के रक्त से पवित्र हो चुका है। आप लोग खड़े होकर इसका अभिवादन करें। इस सम्मेलन के बाद मैडम कामा जी ने नियम बना लिया था ,वह जहां भी भाषण देने जाती थी, तिरंगे झंडे को साथ ले जाती थी। यह भारत का पहला झंडा था। इस झंडे के बाद कई रूप बदले, आखिर में देश की आजादी के पहले आंध्र प्रदेश के “फ्रीडम फाइटर ” श्री पिंगले वेंकैया ने 22 जुलाई,1947 को झंडे का नया रूप दिया जो देश में अपनाया गया। वेंकैया जी भारतीय राष्ट्र ध्वज के अभिकल्प (डिजाइनर)थे , वो सच्चे राष्ट्र भक्त और कृषि वैज्ञानिक थे। भारत का पहला तिरंगा झंडा जिसे भीखाजी कामा ने बनाया था वह शायद गुजरात के भावनगर स्थित सरदार सिंह राणा के पौत्र और भाजपा नेता राजू भाई राणा जी के घर सुरक्षित रखा हुआ है। भीखाजी द्वारा बनाया गया इस देश का पहला झंडा में कई धर्मों की भावनाओं एवं संस्कृति को समेटा गया है। उसमे हिन्दू,इस्लाम और बौद्ध मत को प्रदर्शित किया था। 1909 में भारतीय क्रांतिकारियों पर उत्पीड़न बहुत बढ़ गया था जिससे भीखाजी कामा को पेरिस को केंद्र बनाना पड़ा। भीखाजी कामा ने साथ लाला हरदयाल, श्याम जी, कृष्ण वर्मा, एस रावल भाई राणा, वीरेंद्र नाथ चट्टोपाध्याय और बी.एस. अय्यर जी के साथ मिलकर काम करना शुरू कर दिया। इन लोगों ने फ्रांस के समाजवादी क्रांतिकारियों से रिश्ते बनाये। पेरिस के इस संगठन ने “वंदे मातरम” शीर्षक से एक पेपर का प्रकाशन किया। ब्रिटिश सरकार ने भीखाजी कामा के पत्रों के भारत आने पर रोक लगा दी। उनकी बड़ी छानबीन की जाती थी। फिर भी कामा जी की चिट्ठी,पार्सल भारत पहुँचती रही। ब्रिटिश शासन ने कामा जी को फरार घोषित करके उनकी एक लाख की संपत्ति जब्त कर ली। अपने देश को अंग्रेजों के गुलामी की बेड़ियों से छुड़ाने के लिए उत्तेजित भाषण देती थी। भीखाजी को “इंडियन क्वीन लाइक लक्ष्मीबाई (झाँसी की रानी )” कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ओजस्वी एवं उत्तेजित भाषण देकर वह ब्रिटिश सरकार की नजरों में आ गई थी। लोग कहते थे एक महिला होने के नाते आपको ऐसे भाषण नहीं देना चाहिए। जांबाज मैडम भीखाजी कामा को लन्दन में क्रांतिकारियों के ख़ुफ़िया लोगों ने बताया कि आपके उत्तेजित भाषण के कारण अंग्रेजों (ब्रिटिश सरकार) ने आपको मारने का प्लान बनाया है। इसलिए आप लन्दन छोड़ दें , इसपर उसने क्रन्तिकारी साथियों से कहा कि आप मेरी चिंता न करें और अपना ख्याल रखें। मैं अंगेजों के हाथ तो बिलकुल नहीं मरूंगी और वह फ़्रांस के लिए रवाना हो गई।
प्रथम विश्व युद्ध छिड़ने पर फ्रांसीसी सरकार भी क्रांतिकारियों के पीछे पड़ गई, जिससे क्रांतिकारियों का बिखराव हो गया और मैडम कामा जी और एस.आर.राणा को पेरिस में नजरबंद कर दिया गया। इन्होंने नजरबंद रहते हुए भी आयरिश और मिस्र के क्रांतिकारियों से अपना संबंध स्थापित किया। समाजवाद की प्रेरणा उन्होंने रूसी क्रांति से ली थी और उनके साथ संपर्क स्थापित किया। कठिन परिश्रम और आर्थिक संकटों का परिणाम यह हुआ कि उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा। उनकी बीमारी ने भारत के क्रांतिकारी नेताओं को चिंतित कर दिया। उन्हें भारत आने की अनुमति दिलाने के लिए फ्रांसीसी सरकार पर दबाव डाला गया। आखिरकार 1936 में उनको भारत लौटने की अनुमति मिल गई और कुछ दिनों बाद 74 वर्ष की आयु में उसी साल 13 अगस्त,1936 को मुंबई के पारसी जनरल अस्पताल में भीखाजी कामा का निधन हो गया। देश की सेविका और राष्ट्रीय ध्वज की सजग वीरांगना मैडम भीखाजी कामा कामा के त्याग व बलिदान को भुलाया नहीं जा सकता। उनको भारत को आजाद कराने का जज्बा बचपन से ही था। उनके विचार बड़े क्रन्तिकारी थे। भीखाजी कामा जी को भारतीय क्रांति एवं राष्ट्रीय एकता की जननी और भारत की वीर पुत्री भी कहा जाता है। मैडम कामा को ‘भीखा जी’ और ‘भिकाई जी’ दोनों नाम से पुकारा जाता था। जिन्होंने विदेश में रहकर भी भारत की आजादी की अलख जगाई। ऐसी वीरांगना को बार-बार नमन।
(लेखक : “शहीद स्मृति समारोह समिति”के उपाध्यक्ष एवं कोषाध्यक्ष थे )