जकी नूर अजीम नदवी
निकाह और तलाक ऐसा मुद्दा है जिसे विस्तार से ना जानने की वजह से कभी कभी मुसलमानों को भी कई समस्याओं से दो चार होना पड़ता है और दूसरों को भी हंसने का मौका मिलता है। अतः शादी और तलाक के संबंध में जागरूकता और कम से कम निम्न बातों का जानना बहुत जरूरी है।
निकाह के उद्देश्य पुरुष और महिला दोनों अल्लाह के बंदे और मानवता में बराबर हैं। दोनों की कुछ इच्छाएं,भावनाएं और कुछ संवेदनशीलता हैं, महिलाओं दासी बांदियों और पुरुष आका और शासक नहीं, बल्कि महिलाएं पुरुषों के लिए हार्दिक आराम और रूहानी सुकून और शांति का कारण हैं, दोनों की प्राकृतिक जरूरतें अकेले नहीं बल्कि एक दूसरे से मिलकर पूरी होती हैं। दोनों को एक दूसरे से प्रतिबद्ध होकर शांति और संतोष मिलता है, पुरुष महिला का रिश्ता आपसी प्यार, ईमानदारी और सहानुभूति पर आधारित होना चाहिए। उनके अंदर द्विपक्षीय आकर्षण इस तरह होना चाहिए कि वे एक दूसरे के शुभचिंतक, उन से सहानुभूति रखने वाले और दुख सुख में भागीदार रहें और जीवन के मनजधार में अपनी नाव एक साथ खींचते रहें क्योंकि उन्हें वास्तविक शांति मिल ही नहीं सकती जब तक वे एक दूसरे से जुल कर न रहें।
तलाक अल्लाह के नजदीक अप्रिय प्रक्रिया है इस्लाम की शिक्षाएं न्याय व सुधार पर आधारित हैं इसलिए इस्लाम ने मजबूरी में तलाक की अनुमति दी है, कि जब द्विपक्षीय संबंधों में सहानुभूति, स्नेह और प्यार न रहे ईमानदारी विलुप्त होजाए, वे एक दूसरे के आराम और संतोष का कारण न बन सकें, विवाह के अधिकार नष्ट होने लगें निभाव मुश्किल हो और अलगाव के सिवा कोई उपाय बाकी न रहे तो ऐसे में इस्लाम ने अलगाव और जुदाई के लिए भी एक प्रणाली, एक विधि दी जिसे ष्तलाकष् कहा जाता है। लेकिन बिना किसी उचित कारण के ये अल्लाह को पसंद नहीं जैसा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया कि हलाल चीजों में अल्लाह के नजदीक सबसे अनिष्ट चीज तलाक है। इससे यह प्रतीत होता है कि तलाक अंतिम उपाय है इससे पहले जहां तक सुधार की संभावना हो इसे बाकी रखने की कोशिश की जाए।
इस्लाम में तलाक से बचने के कई तरीके बताए गए हैंरू तलाक देना ऐसा घातक कदम है जो अल्लाह को बहुत अनिष्ट है । इसलिए जब तक यह साबित न हो जाए कि केवल यही एक स्थिति रह गई है, तब तक इस पर अमल नहीं करना चाहिए। कुरान ने इसके लिए कुछ विस्तृत आदेश दिए हैं। जो निम्नलिखित हैं।
कुरान में महिलाओं के बारे में परुषों को इस तरह समझाया गया है कि श्श् और अगर वह महिलायें तुम्हें नापसंद हूँ तो क्या अजब कि एक चीज तुम्हें पसंद न हो और अल्लाह ने उसी में बहुत कुछ भलाई रख दी है ष्(कुरान) यानी यदि महिला में कोई दोष मौजूद हो तो भी यह उचित नहीं कि पति तुरंत आहत हो कर उसे छोड़ने को तैयार हो जाये .कभी कभी ऐसा होता है कि महिला में कई दोषों के साथ कुछ ऐसे गुण होते हैं जो वैवाहिक जीवन और मानवता के लिए बहुत महत्व रखती हैं.इस लिए यह बात पसंदीदा नहीं कि आदमी वैवाहिक संबंध को डिस्कनेक्ट करने में जल्दबाजी से काम ले, तलाक बिल्कुल अंतिम विकल्प है जिस को बाध्यता में ही अपनाना चाहिए।
इस्लाम ने तलाक से पहले विभिन्न चरण बनाए हैं अगर पत्नियां गलत, अवज्ञाकारी और पति के अधिकार में लापरवाही करें जिस से खुशी वाली वैवाहिक जीवन के बजाय आपस में टकराव और धींगा मशती शुरू हो जाए तो ऐसे मामलों में सुधार के लिए कुरान करीम ने पुरुषों को तीन उपाय बताया हैं .
1) उन्हें समझाओ और बताओ कि पति की अवज्ञा और उसके अधिकार का लिहाज न रखने के परिणाम में दुनिया और आखिरत दोनों में नुकसान और वबाल के सिवा कुछ नहीं और अल्लाह का प्रकोप मोल लेना कोई समझदारी की बात नहीं। अगर औरत शरीफ है तो उसके लिए इतना ही पर्याप्त होगा। इसमें भी पति को यह शिक्षा है कि तुरंत गुस्सा में आकर कोई कार्यवाही न करे।
2) अब भी अगर सुधार न हो तो सजा की दूसरी मंजिल यह है कि पुरुष कुछ समय के लिए महिला से बातचीत छोड़ दे। उन्हें सोने के कमरे में अकेला छोड़ दे और उस से संबंध ना बनाये ।
3) यह उपाय भी कारगर न हो और औरत अपने विद्रोह और अवज्ञा पर कायम रहे जैसा कि कुछ वर्गों में देखा जाता है तो अब तीसरा इलाज यह है कि उस की तादीब(हलकी फुलकी सजा) की जाए।
4) और अगर यह स्थिति भी कारगर नहीं होती तब भी व्यवस्था फिर दोनों को एक और मौका देती है कि दो मध्यस्थ नियुक्त किए जाएं ताकि मतभेद से जुदाई की नौबत आने या अदालत में मामला जाने से पहले, घर में ही मामला बन जाए । और पति पत्नि में से प्रत्येक परिवार का एक आदमी इस हेतु निर्धारित किया जाए कि वह दोनो मिलकर मतभेद के की छानबीन करे, समस्या को निपटाने की कोशिश करें । इस्लाम को यह बात पसंद नहीं है कि घरेलू उलझनों और पति पत्नी के आपसी समस्याओं का ज्ञान होने के बावजूद परिवार के प्रभावशाली और प्रतिष्ठित व्यक्ति दामन समेट कर अलग रहें , बल्कि आदेश है कि घरेलू कलह को अपना मामला समझें और इस प्रयास में कोई कमी न करें
एक साथ अधिक तलाक देना मना है इसीलिए इस्लाम ने एक साथ कई तलाकें देने से मना फरमाया और जब रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को खबर मिली कि एक व्यक्ति ने एक साथ अपनी पत्नी को तीन तलाकें दे दी हैं – आप गुस्सा की हालत में खड़े हो गए और कहा लगे कि अल्लाह की किताब से खेल हो रहा है हालांकि में तुम में मौजूद हूँ ,यहां तक कि यह सुनकर एक सहाबी खडे हो गये और कहा या रसूलुल्लाह मैं इसे कत्लदूं? फिकह की प्रसिद्ध पुस्तक हिदाया में इस तरह तलाक देने वाले को पापी और गुनाहगार बतलाया गया है-महिलाओं के साथ अच्छा व्यवहार करना नबी अकरम ने आदेश दिया कि मैं आप लोगों को महिलाओं के साथ भलाई करने की वसीयत स्वीकार करो।
तलाक के मसनून सही तरीकारू इस्लाम ने कम से कम एक महीने के बाद दूसरी तलाक को मसनून बताया है, कि पुरुषों पाकी की हालत में बिना संभोग के अपनी पत्नी को एक तलाक, फिर एक माहवारी के बाद पाकी की हालत आए तो दूसरी तलाक, इसी तरह तीसरे पाकी की हालत में- फिर (तीसरी) तलाक, उसके बाद उसकी पत्नी इद्दत यानि प्रतीक्षा अवधि बिताए।
तलाक का बेहतर तरीका यही है कि जब पत्नी माहवारी से मुक्त हो तो पति बिना संभोग किए एक तलाक और अगर तीन देना चाहता है तो प्रत्येक तलाक प्रत्येक पाकी में संभोग से पहले दे, यही इमाम सुफियान सौरी का कहना है- और इमाम अबू हनीफा ने भी कहा है कि इब्राहीम नखई द्वारा हमें खबर पहुंची है कि सहाबा को यह बात पसंद थी कि एक साथ कई तलाकें न दी जायें और तीन तलाकें अलग अलग प्रत्येक पाकी में दी जायें
यही फैसला सामान्य विचार और मानव स्वभाव के अनुकूल है क्योंकि तीन महीने का अंतराल इसलिए दिया जाता है कि किसी तरह दोनों जीवन साथी लज्जित होकर दोबारा अपना घर बसा लें, और जब साबित हुआ कि एक साथ तीन तलाकें देना पाप, बल्कि अल्लाह की किताब के साथ खेल और मजाक है, तो इस प्रकार की तलाक देना एक सच्चे मुसलमान के लिए उपयुक्त नहीं है।
पूर्व अध्यापक नदवा कालेज लखनऊ-पूर्व अस्टिंट जनरल सेकेटरी सिकरेट्री जमीयत अहले हदीस पूर्वी यू0पी0-zakinoorazeem@gmail-com