Er S D Ojha- जिस तरह से आपके घर में चाय , शरबत व लस्सी से मेहमान का स्वागत होता है , उसी प्रकार आदिवासी बहुल इलाके में मेहमान का स्वागत ताड़ी से किया जाता है । ताड़ी के सीजन में आदिवासी सड़क के किनारे ताड़ी से भरी हुई केनी लेकर बैठे रहते हैं । सीजन में 10/- रूपये प्रति गिलास व ऑफ सीजन में 70/ – से 80 /- प्रति गिलास ताड़ी बिकती है । मौसम के अनुसार ताड़ी का नाम भी बदलता रहता है । इसे जनवरी से मार्च तक वांझिया , अप्रैल से मई तक फलनियां , जून से अगस्त तक निंगाल और सितम्बर से दिसम्बर तक चौरियां कहा जाता है । ताड़ी का मुख्य सीजन दिसम्बर से मई तक होता है ।
ताड़ी का मटका उतारते हीं इसे पी लिया जाय तो यह नुकसान नहीं करती । इसमें आवश्यक मिनरल , विटामिन और अमीनो एसिड होता है , जो स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से उत्तम होता है । यह पेट के रोगियों के लिए रामवाण दवा है । सुबह के इस ताड़ के रस को नीरा कहते हैं । नीरा में अल्कोहल की मात्रा बिल्कुल भी नहीं होती । नीरा पीने से नशा नहीं चढ़ता । नीरा टाॅनिक का काम करती है । नीरा का वाष्पीकरण कर गुड़ भी तैयार किया जाता है । यह गुड़ एनिमिया के मरीज के लिए बहुत हीं लाभकारी है । इससे रक्त में हीमोग्लोबीन का स्तर बढ़ता है ।
नीरा को जब धूप में रखा जाता है तो इसमें खटास बनती है । इसमें अल्कोहल स्वतः हीं उत्पन्न होने लगता है । यही नीरा अब ताड़ी कहलाती है । इस ताड़ी को लोग पीते हैं । झूमते हैं । अधिक मात्रा में इसका उपयोग लीवर डैमेज भी कर सकता है । ये दिमाग पर सीधे असर डालती है । यदि आप गाड़ी चला रहे हैं तो एक्सीडेंट का खतरा हो सकता है । आप खुद के अलावा दूसरे को भी चोटिल कर सकते हैं । कई बार मौत भी हो जाती है । होली पर ताड़ी पीने का रिवाज है । जो नहीं पीता वह भी इस दिन पीता है । होली पर ताड़ी का उन्माद सिर चढ़कर बोलता है ।
ताड़ी के बिना होली अधूरी मानी जाती है । होली के दिन आपका रोम रोम ताड़ी पीकर गा उठता है – रंग बरसे , भीजे चुनर वाली रंग बरसे । होली है !!!
ताड़ी का आदिवासी क्षेत्रों में बहुतायत में उत्पादन होता है । यह देखने में पतली छाछ सी नजर आती है , जो ताड़ के पेड़ से निकाली जाती है । आदिवासी लोग ताड़ के पेड़ पर चढ़ने में माहिर होते हैं । ताड़ के पेड़ पर चढ़कर ये वांछित जगह पर कट लगाते हैं । उस कट के साथ मटका बांध दिया जाता है । मटके का मुंह पर कपड़ा बांध दिया जाता है , क्योंकि कई बार नागराज भी ताड़ी पीने के लिए आ जाते हैं । ये ताड़ी कम पीते हैं , उसे विषाक्त ज्यादा करते हैं । बूंद बूंद ताड़ी मटके में गिरती है । यदि ताड़ के पेड़ को गर्मी में अच्छी सिचाई मिली है और वह उर्वर जमीन पर उगा है तो यह मटका 10-12 घंटे में भर जाता है , वरना मटका भरने में 24 घंटे भी लग जाते हैं ।
ताड़ का बीज से उत्पति होती है । अंकुरण में 9/10 माह का समय लगता है । ताड़ के पेड़ से रूतबा मिलता है । जितने अधिक पेड़ होंगें उसी के अनुरूप रूतबा भी बढ़ेगा । ताड़ से होने वाली आय ताड़ मालिकों को वर्ष भर सुखी व सम्पन्न रखती है । ताड़ी के धंधे में अधिकांश महिलाएं हीं रहती है । पुरूष ताड़ी बेचेंगे तो सबसे पहले खुद को टुन्न करेंगे। फिर अपने हित मीत को टुन्न करेंगे । इसके बाद वे ताड़ी क्या बेचेंगे ? उन्हें हीं सम्भालने के लिए एक आदमी चाहिए । अगर वह आदमी भी टल्ली हो गया तो धंधा राम भरोसे हीं होगा ।
बिहार में ताड़ी का व्यवसाय आदिवासियों के अतिरिक्त पासी समुदाय के लोग भी करते हैं । आज पासी समुदाय की हालत खस्ता हो गयी है । ताड़ी उद्योग से जुड़े सभी लोग सड़क पर आ गये हैं । बिहार सरकार ने ताड़ी पर प्रतिबंध लगा दिया है । ये लोग क्या खायेंगे ? सरकार ने बिल्कुल नहीं सोचा । सरकार को ताड़ी पर प्रतिबंध न लगाकर इसमें मिलावट करने वालों पर कार्यवाही करनी चाहिए थी । गौरतलब है कि ताड़ी में नशा तीब्र करने के लिए नौशादर , यूरिया व अन्य नशीली दवाएं मिलायीं जा रहीं हैं । ताड़ी अपने आप में एक कम नशा का पेय है । मांझी व राम विलास पासवान तो इसे नशा मानते हीं नहीं हैं । फिर सरकार ने ताड़ी निकालने वालों के पेट पर लात क्यों मारी ? यदि प्रतिबंधित करना हीं था तो सरकार गुटखा , तम्बाकू और गांजा पर भी यह प्रतिबंध लागू करती , जो ताड़ी से भी दस गुना हानिकारक हैं ।