रिहाई मंच, आजमगढ़ की ओर से जारी
इंसाफ के पैमाने अलग-अलग
यह सूची लंबी है कि देश में आतंकवाद के विभिन्न मामलों में आरोपियों ने लंबा समय जेलों में गुजारा। आखिरकार अदालत ने उन्हें बेकसूर माना और रिहा किया। मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों के दायरे में यह चर्चा का विषय रहा है कि क्या अपनी जवानी के दस-बीस साल सलाखों के पीछे गुज़ार देने के बाद ‘बाइज्जत’ बरी कर दिए जाने भर से क्या न्याय के तकाज़े पूरे हो जाते हैं? और यह भी सच है कि सैकड़ों मामलों में बेकसूर साबित होने के बावजूद देश की अदालतों और मुख्यधारा के मीडिया में इस पर नहीं के बराबर बहस होती है। पिछले दिनों देश की शीर्ष अदालत ने ऐसे ही दो मामलों की सुनवाई करते हुए ज़मानत देने की हद तक इसका संज्ञान लिया है। आतंकवाद के आरोपी रहे कश्मीर निवासी गुलज़ार अहमद वानी और कर्नल श्रीकांत प्रसाद पुरोहित की अलग-अलग जमानत याचिकाओं पर सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट के रूख ने इस बहस को और भी व्यापक कर दिया है।
गुलज़ार वानी मामले में तो मुख्यधारा की मीडिया ने हमेशा की तरह चुप्पी साधे रखी। कुछ अन्य ने अपना कर्तव्य इस तरह पूरा किया कि जनता उसका बहुत नोटिस न ले सके। लेकिन कर्नल पुरोहित की ज़मानत पर विस्तृत चर्चा ही नहीं हुई बल्कि उसकी ज़मानत को इस तरह से पेश किया गया जैसे माननीय उच्चतम न्यायालय ने उन्हें अंतिम रूप से बरी कर दिया हो। जो मीडिया आतंकवाद के मुकदमों से बरी होने वाले बेगुनाहों मुसलमानों की रिहाई को संदिग्ध बनाए रखने के लिए ‘और आतंकी छूट गया’ जैसे शीर्षक से खबरें छापता था उसका रवैया बिल्कुल बदला था। तमाम चैनलों पर कर्नल पुरोहित का नाम पूरे सम्मान से लेते हुए खबरें प्रसारित हुईं और परिचर्चाओं का दौर चला। न्यूज़ 18 इंडिया के एंकर सुमित अवस्थी ने कर्नल पुरोहित को झूठा फंसाए जाने की घोषणा करते यहां तक पूछा ‘क्या कर्नल पुरोहित को फंसाने से सेना का मनोबल गिरा होगा?’
कर्नल पुरोहित की ज़मानत याचिका पर सुनवाई करते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय ने 21 अगस्त 2017 को अपने निर्णय में कहा ‘एटीएस और एनआईए की चार्जशीट में भिन्नताएं हैं। मुकदमे की कार्रवाई लम्बे समय तक चल सकती है। अपीलकर्ता ने पहले ही जेल में आठ साल आठ महीना लम्बा समय गुज़ारा है। यह सब चीज़ें उसे प्रथम दृष्ट्या ज़मानत पर रिहा करने का हकदार बनाती हैं।’ कर्नल पुरोहित के मामले में दो नहीं बल्कि सीबीआई समेत तीन एजेंसियों से जांच करवाई गई। सरकारी वकील रोहिणी सालियान पर एनआईए के अफसर द्वारा मालेगांव मुकदमे में पैरवी ढीली कर देने का दबाव यह कहते हुए डाला गया था कि ’ऊपर से इसका आदेश है।’ रोहिणी सालियान ने खुद मीडिया के सामने यह आरोप लगाए। इसलिए यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि एजेंसियों और सत्ता की भूमिका के चलते ही यह स्थिति उत्पन्न हुई। बल्कि यह कहना गलत नहीं होगा कि भिन्नताओं की यह स्थिति गढ़ी गई थी।
दूसरी तरफ गुलज़ार अहमद वानी पर जांच एजेंसियों ने आतंकवादी घटनाओं और आतंकी साज़िश के कुल 11 मामले दर्ज किए थे। 16 साल वे जेल में रहे और इस दौरान विभिन्न अदालतों से 10 मामलों में बरी किए गए। 14 अगस्त 2000 को होने वाले साबरमती ट्रेन धमाके के आरोप की सुनवाई के लिए अंत में उन्हें यूपी लाया गया। इस केस की लम्बी सुनवाई की आशंका से गुलज़ार अहमद वानी ने ज़मानत की अर्जी दी। हाईकोर्ट के इनकार के बाद सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया। चीफ जस्टिस जेएस खेहर और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने 25 अप्रैल 2017 के अपने आदेश में कहा ‘अगर 31 अक्तूबर तक अभियोजन गवाहों का परीक्षण पूरा नहीं कराता है तो गुलज़ार वानी को 1 नवम्बर 2017 को ट्रायल कोर्ट की शर्तों पर ज़मानत पर रिहा कर दिया जाएगा।’
जस्टिस खेहर ने दिल्ली और यूपी पुलिस की कारगुज़ारियों पर टिप्पणी करते हुए कहा ‘कितनी शर्म की बातǃ 11 में से उस पर थोपे गए 10 मुकदमों में वह बरी हो चुका है। ट्रायल में उसके खिलाफ कोई विश्वसनीय सबूत नहीं पाया गया। पुलिस के साथ समस्या यह है कि वह लोगों को जेल में रखती है और अदालत में सबूत पेश नहीं करती।’ साबरमती ट्रेन धमाके के मुकदमे में उस समय तक कुल 96 गवाहों में से केवल 20 को परीक्षित करवाया गया था। सुप्रीम कोर्ट के कड़े रूख के बाद कि ‘वास्तविक गवाहों’ (मैटीरियल विटनेस) को अदालत में पेश कर 31 अक्तूबर से पहले उन्हें परीक्षित करवाया जाए, अभियोजन को गति मिली। सालों तक गवाह पेश न कर अदालती प्रक्रिया को बाधित रखने वाले अमले ने तेजी से गवाह (मुकदमों को लम्बा खीचने के लिए बेकार गवाहों को छोड़कर) पेश किए और अगले ही महीने 19 मई 2017 को बाराबंकी अदालत ने अपना फैसला भी सुना दिया।
28 साल की उम्र में सलाखों के पीछे ढकेल दिया गया गुलज़ार वानी 44 साल की उम्र में बरी होकर दोबारा अपने घर वापस पहुंचा। इस मामले में बाराबंकी सेशन कोर्ट ने अपने फैसले में जो टिप्पणी की है वह बहुत मायने रखती है। कोर्ट का कहना था कि ‘राज्य सरकार अपने-अपने कर्मचारियों द्वारा की गई लापरवाही और उपेक्षा पूर्ण कार्य से हुई हानि की जिम्मेदार है। अतः राज्य सरकार को निर्देषित किया जाता है कि वह अभियुक्तगण की शिक्षा को देखते हुए औसत आमदनी के एतबार से जितने दिन वह जेल में निरूद्ध रहे हैं, उन्हें उसकी क्षतिपूर्ति अदा करे और यदि राज्य सरकार उचित समझती है तो क्षतिपूर्ति की राशि सम्बंधित पुलिस कर्मचारियों से वसूल ले।’
कर्नल पुरोहित के मामले में डायरेक्टोरेट जनरल मिलिट्री इंटेलीजेंस की रिपोर्ट में कहा गया कि उन्होंने मालेगांव धमाके के आरोपी राकेश धावड़े को गैर कानूनी तरीके से हथियार बेचे थे। अब यह बहस अपनी जगह कि अगर यह रिपोर्ट माननीय सुप्रीम कोर्ट के सामने होती, तो उसका क्या रूख होता या गुलज़ार वानी ने अगर आठ साल पहले ज़मानत याचिका दाखिल की होती तो किस तरह का निर्णय आता? आतंकवाद के नाम पर इस तरह के गुलजारों की आज भी एक बड़ी संख्या लम्बे समय से जेल में अपनी किस्मत का इंतेज़ार कर रही है। उन मामलों में भी पुलिस की कहानी पर इसी तरह के सवाल हैं और अभियोजन की कार्यशैली उक्त मुकदमों में अपनाए गए उसके तौर तरीकों से अलग नहीं है।
19 सितम्बर 2008 को ओखला, नई दिल्ली में स्थित बटला हाउस की तीसरी मंजिल एल-18 में रह रहे आज़मगढ़ के छात्रों, जामिया मिल्लिया से बीटेक कर रहे आतिफ अमीन और दाखिले की तैयारी के लिए गए मोहम्मद साजिद को कथित मुठभेड़ में मार दिया गया और कहा गया कि यह लोग देशी आतंकी माड्यूल इंडियन मुजाहिदीन के सदस्य थे। इनकाउंटर के बाद जब दोनों के फोटो सामने आए तो पता चला कि साजिद के सर में 90 अंश पर कई गोलियां मारी गई थीं जो किसी मुठभेड़ में सम्भव नहीं हो सकती थीं। चूंकि अगस्त में मुफ्ती बशर की गिरफ्तारी के बाद गुजरात के डीजीपी पी0सी0 पांडे ने कहा था कि इडियन मुजाहिदीन सिमी का ही दूसरा रूप है। इसके नामकरण की जो थ्योरी उन्होंने प्रस्तुत की थी उसके मुताबिक सीमी के शुरू के एस और आखिर के आई को निकाल कर आईएम अर्थात इंडियन मुजाहिदीन बनाया गया था। लेकिन सिमी की सदस्यता की आयु 18 से 30 साल थी। इस एतबार से साजिद और गिरफ्तार सलमान उसके सदस्य ही नहीं हो सकते थे।
खास बात यह कि इंडियन मुजाहिदीन संगठन पर देश में कई बड़े आतंकी हमलों को अंजाम देने के आरोप के बावजूद उस पर एक साल तक प्रतिबंध नहीं लगाया गया था। मांग पर एक साल बाद प्रतिबंध तो सरकार ने लगा दिया लेकिन विधि अनुसार प्रतिबंध के बाद कोई ट्रीब्यूनल गठित नहीं किया गया और न ही अपनी सफाई पेश करने के लिए किसी को नोटिस ही जारी की गई। यह साबित करता है कि एजेंसियों को भी इडियन मुजाहिदीन के अस्तित्व पर भरोसा नहीं था और न ही उन्हें उसके कार्यालय या पदाधिकारियों के बारे में कोई जानकारी थी।
बटला हाउस कांड के बाद इंडियन मुजाहिदीन के नाम पर गिरफ्तार आज़मगढ़ के कई नौजवानों की पीड़ा भी कुछ ऐसी ही है। इस कांड को नौ साल पूरे हो चुके हैं, कई लड़कों पर एक से अधिक स्थानों पर मुकदमें कायम किए गए हैं। लेकिन निचली अदालत में मुकदमों की जो रफ्तार है उससे नहीं लगता कि निकट भविष्य में इनका निस्तारण होने वाला है। कुछ मुकदमों में तो अभियोजन दो-दो साल तक गवाह ही नहीं पेश कर सका। कुछ अन्य में अभी कार्रवाई शुरू ही नहीं हुई है। कई मामले ऐसे भी हैं जिनमें अभी तक आरोपियों की गिरफ्तारी तक नहीं दिखाई गई है जबकि वह सालों से अदालती हिरासत में हैं। अगर उच्चतम न्यायालय कर्नल पुरोहित की ज़मानत याचिका में जेल में गुज़ारे गए उसके 8 साल 8 महीने को लम्बी अवधि मानता है और गुलज़ार वानी के 16 साल तक बिना किसी विश्वसनीय सबूत कैद रखने को “शर्म की बात” कहता है तो ऐसे तमाम गुलज़ार वानी अभी भी पुलिस और अभियोजन की कारस्तानी का शिकार हैं, जेलों में सड़ रहे हैं।
19 सितम्बर 2008 को हुए कथित बटला हाउस मुठभेड़ में आतिफ अमीन और मो० साजिद (साजिद छोटा) की मौत हो गई। मो० सैफ को गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारियों का सिलसिला चल पड़ा। अलग-अलग तारीखों में ज़ीशान अहमद, साकिब निसार, मो० आरिफ, मो० हाकिम, मो० सरवर, सैफुर्रहमान अंसारी, मो० शहज़ाद, मो० सलमान, हबीब फलाही और असदुल्लाह अख्तर की गिरफ्तारी हुई। वहीं मुम्बई से ज़ाकिर शेख, आरिफ बदर और सादिक़ शेख को गिरफ्तार किया गया। मुफ्ती बशर को अगस्त 2008 में और हकीम तारिक कासमी को दिसम्बर 2007 में ही गिरफ्तार किया जा चुका था।
जो कैद में हैं
मो० सैफ निवासी संजरपुर, आज़मगढ़ को 19 सितम्बर 2008 को बटला हाउस के एल-18 से ही गिरफ्तार किया गया। सैफ गोविंद वल्लभ पंत कालेज, जौनपुर से इतिहास में एमए करने के बाद इंगलिश स्पीकिंग और कमप्यूटर कोर्स करने के लिए अभी तीन महीना पहले ही दिल्ली गया था। इस बीच वह बीमार हो जाने के कारण अपने घर संजरपुर भी आया था। सैफ को जयपुर, अहमदाबाद और दिल्ली में आरोपी बनाया गया। उस पर गोरखपुर गोलघर धमाकों में लिप्त होने का भी आरोप है लेकिन अभी वहां उसे हाजिर नहीं किया गया है। संकट मोचन मंदिर हमले के मामले में भी यूपी एटीएस ने उससे पूछताछ की थी लेकिन उस केस में जांच एजेंसी के अगले कदम के बारे में परिजनों को कोई जानकारी नहीं दी गई है। सैफ दिल्ली जाने से पहले किसी भी बड़े शहर में कभी नहीं रहा। उसने एमए की पढ़ाई भी घर रह कर की थी। वह क्रिकेट का बेहतरीन खिलाड़ी रहा है। दिल्ली में तकरीबन तीन महीने रहा। इसी दौरान देश के तीन राज्यों के बड़े शहरों में हुए सिलसिलेवार धमाकों में लिप्त होने का उस पर लगा आरोप लोगों के लिए हैरानी का सबब है। बटला हाउस घटना के एक सप्ताह के भीतर ही मीडिया में यह खबर प्रकाशित व प्रसारित की गई कि सैफ और आतिफ के सरायमीर स्थित यूनियन बैंक के खातों से बहुत कम समय में तीन करोड़ रूपयों का लेनदेन किया गया है। जब खातों की पड़ताल की गई तो पता चला कि वह खाते छात्रवृत्ति के लिए खोले गए थे, दोनों खातों में कुल जमा राशि 2 हज़ार रूपये से भी कम थी और विगत सात सालों से उन खातों से कोई लेनदेन नहीं हुआ था। प्रमाण देने के बावजूद उक्त खबर का किसी मीडिया हाउस की तरफ से खण्डन तक नहीं किया गया। यहां गौर करना होगा कि बटला हाउस कांड के बाद तमाम पुराने मामलों को इंडियन मुजाहिदीन से जोड़ कर थोक के भाव आजमगढ़ के लड़कों को उनमें संलिप्त बताया गया। जबकि इन मामलों में किसी दूसरे संगठन पर आरोप लगाया गया था और अन्य व्यक्तियों को गिरफ्तार कर मुकदमा भी चलाया जा रहा था। तो पुलिस की कहानियां खुद ही एक दूसरे को खारिज कर रहीं थी पर इसका खामियाजा मो० सैफ जैसों को हुआ। उन पर विभिन्न राज्यों में मुकदमे पर मुकदमे लादे गए। संकटमोचन वाराणसी और गोरखपुर मामले में भी उसे आरोपी बनाया गया।
ज़ीशान अहमद निवासी बाज़ बहादुर, आज़मगढ़ आईआईपीएम नई दिल्ली से एमबीए कर रहा था और साथ-साथ एक प्राइवेट कंपनी मोनार्क इन्टरनेशनल में बतौर असिसटेंट मैनेजर काम भी करता था। बटला हाउस कांड के दिन वह परीक्षा देने गया हुआ था। परीक्षा के बाद उसे पता चला कि मीडिया में उसका नाम इस घटना से जोड़कर लिया जा रहा है तो उसने घर वालों को फोन किया। परिवार की राय पर वह एक स्थानीय चैनल के कार्यालय चला गया। चैनल वालों ने दिल्ली पुलिस को बुलाकर उसे सुपुर्द कर दिया। ज़ीशान को दिल्ली और अहमदाबाद बम धमाकों का आरोपी बनाया गया है। आतंकवाद जैसे किसी अपराध में लिप्त कोई भी व्यक्ति ऐसे नाज़ुक समय पर कम से कम फोन करने की हिमाकत तो कभी नहीं कर सकता। यह एक तरह से मीडिया के सामने आत्मसमर्पण करना था। लेकिन चैनल वालों ने भी इसे आत्मसमर्पण न दिखा कर पुलिस की मंशा के मुताबिक गिरफ्तारी ही बताया।
साकिब निसार निवासी शाहपुर, आज़मगढ़ का परिवार अस्थाई रूप से दिल्ली में रहता है। बटला हाउस घटना के समय वह मनीपाल यूनिवर्सिटी से डिस्टैंट एजुकेशन में एमबीए कर रहा था और साथ में टैलेंट प्रो० इंडिया एचआर में रिक्रूटमेंट असिस्टेंट के तौर पर कार्यरत था। बटला हाउस कांड के बाद दिल्ली स्पेशल सेल ने उससे अन्य आरोपियों के बारे में पूछताछ की थी। उसने उन लड़कों को पढ़ने लिखने वाला व शरीफ बताया था। चिढ़कर पुलिस अधिकारियों ने उसे ही आरोपी बना दिया। साकिब को दिल्ली और अहमदाबाद धमाकों की साज़िश का आरोपी बनाया। सनद रहे कि 26 जूलाई 2008 को अहमदाबाद धमाकों के दिन वह दिल्ली में परीक्षा दे रहा था।
आरिफ नसीम निवासी संजरपुर, आज़मगढ़ लखनऊ में रह कर सीपीएमटी की तैयारी कर रहा था। उसे मुजाहिदीन का सदस्य बताते हुए उत्तर प्रदेश एटीएस ने 29 सितम्बर 2008 को चारबाग़, लखनऊ से गिरफ्तार दिखाया था। जबकि दरअसल उसे 24 सितम्बर को डॉलीगंज, लखनऊ से उठाया गया था। कहा गया कि गिरफ्तारी से बचने के लिए उसने अपना सिमकार्ड तोड़ कर मोबाइल फेंक दिया था। परन्तु आश्चर्यजनक रूप से उसी एटीएस का कहना था कि उसकी जेब से कुछ कागज़ात और नक्शे बरामद हुए थे जिनसे पता चलता है कि यूपी की कचहरियों में होने वाले सिलसिलेवार धमाकों में हूजी के साथ इंडियन मुजाहिदीन की सहभागिता थी। इसी कड़ी में आरिफ के रिश्तेदार शफीकुर्रहमान का कहना है कि ’यह बात सामान्य समझ से परे है कि जो व्यक्ति गिरफ्तारी से बचने के लिए अपना मोबाइल फेंक चुका हो वह अपनी जेब में ही अपने गुनाहों का दस्तावेज़ी सबूत लेकर क्यों घूमेगा?’ आरिफ नसीम को गिरफ्तारी के एक महीना बाद गुजरात एटीएस को सौंप दिया गया। इस रिपोर्ट के लिखे जाने तक वह अहमदाबाद के साबरमती जेल में बंद है। लखनऊ कचहरी धमाके में उसे आरोपी बनाया गया था लेकिन अहमदाबाद में होने की वजह से नौ साल बाद भी इस केस में उसकी कोई सुनवाई नहीं हुई है। बटला हाउस के बाद आजमगढ़ के नौजवनों को पुराने मामलों में फंसाए जाने की साजिश का शिकार आरिफ भी हुआ। उसका नाम यूपी कचहरियों में हुए विस्फोट से जोड़ा गया जिसका आरोप हुजी पर था और जिसमें गिरफ्तारियां होकर चार्जशीट भी दाखिल हो चुकी थी। वहीं पुलिस की थ्योरी उसे इंडियन मुजाहिदीन का सदस्य बताती है।
सलमान निवासी संजरपुर, आज़मगढ़ को 13 मार्च 2010 को सिद्धार्थनगर, उत्तर प्रदेश से गिरफ्तार किया गया था। उस पर गोरखपुर गोलघर धमाकों का भी आरोप है। उस धमाके के समय उसकी उम्र 15 साल कुछ महीना ही थी। उस पर दिल्ली, जयपुर और अहमदाबाद के धमाकों में लिप्त होने का आरोप था। दिल्ली में आरोप तय करते समय अदालत ने उसे आरोपमुक्त कर दिया। उसके बाद उसे जयपुर ले जाया गया। करीब चार साल बाद उसे गोरखपुर धमाके के आरोप में अदालत में पेश किया गया। उसी दिन उसे जयपुर वापस भेज दिया गया। तीन साल गुजर गए और उसके परिवार वालों को अब तक नहीं मालूम कि गोरखपुर मामले में उसके खिलाफ चार्जशीट दाखिल हुई है या नहीं। अहमदाबाद में सभी धमाकों को लेकर एक साथ मुकदमा चल रहा है। लेकिन सलमान के भाई अरमान के मुताबिक उसे अभी तक वहां पेश नहीं किया गया है। परिजनों का कहना है कि इसके लिए प्रयास किया गया लेकिन गुजरात एटीएस उसके मामले को लटका कर रखना चाहती है। उनकी चिंता है कि हिरासत के दिनों की गिनती कहां से शुरु होगी। हाई स्कूल की मार्कशीट के मुताबिक सलमान का जन्म 3 अक्तूबर 1992 को हुआ था। इस एतबार से बटला हाउस मुठभेड़ के समय उसकी आयु 16 साल 15 दिन थी और गोरखपुर गोल घर धमाकों के समय 15 साल 7 महीना 19 दिन। ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट निर्देश है लेकिन जयपुर सेशन कोर्ट ने उसे अनदेखा कर दिया। तब से मामला जयपुर हाईकोर्ट में है। किसी नाबालिग के लिए अधिकतम तीन साल की सज़ा का प्रावधान है तो भी जयपुर हाईकोर्ट में उसकी आयु का मामला ही पांच साल से लम्बित है। बटला हाउस के बाद आजमगढ़ के नौजवनों को पुराने मामलों में फंसाए जाने की साजिश का शिकार सलमान भी हुआ। उसका नाम गोरखपुर मामले से जोड़ा गया।
मो० सरवर निवासी चांद पट्टी, आज़मगढ़ को 19 जनवरी को उज्जैन, मध्यप्रदेश से रात 9 बजे उठाया गया और दो दिन बाद 21 जनवरी 2009 को टेढ़ी पुलिया, लखनऊ, उत्तर प्रदेश से गिरफ्तारी दिखाई गई। जब सरवर को उज्जैन से उठाया गया तो उसके साथियों ने विरोध किया था लेकिन उठाने वालों ने खुद को पुलिस का बताया था। जिस गाड़ी से उसे ले जाया गया उस पर दिल्ली का नम्बर अंकित था। चूंकि वह लोग सादे कपड़ों में थे इसलिए सरवर के साथियों ने अपहरण की आशंका के तहत थाना नीलगंगा, उज्जैन में 20 जनवरी 2009 को प्राथमिकी भी दर्ज करवाई थी। सरवर ने इन्टीग्रल विश्वविद्यालय, लखनऊ से बीटेक किया था और गिरफ्तारी के समय वह आईसीएलए लिमिटेड, हैदराबाद की इंदौर शाखा में बतौर इंजीनियर कार्यरत था। सरवर को 13 मई 2008 को हुए जयपुर सीरियल ब्लास्ट का आरोपी बनाया गया था। सत्र परीक्षण संख्या 4/2010 के तहत मुकदमे की कार्रवाई चल रही है।
मुफ्ती बशर निवासी बीनापारा, आज़मगढ़ को बटला हाउस कांड और दिल्ली धमाकों से पहले ही 14 अगस्त 2008 को उसके गांव बीनापारा, आज़मगढ़ से उठाया गया था। इसके अगले दिन तमाम अखबारों में उसके उठाए जाने की खबरें भी प्रकाशित हुईं लेकिन उत्तर प्रदेश एटीएस ने उसे 16 अगस्त को लखनऊ से गुजरात एटीएस की साझेदारी में हुए ज्वाइंट आपरेशन में गिरफ्तार किए जाने का दावा किया था। बशर को 14 अगस्त को उसके गांव से अगवा किए जाने सम्बंधी सूचना उसी दिन उसके भाई ने ईमेल द्वारा राष्ट्रपति और मुख्य न्यायधीश, सर्वोच्च न्यायालय समेत वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को दी थी। गांव के लोगों का कहना है बशर करीब एक महीने से अधिक समय से गांव में ही था और हर दिन सुबह सवेरे पक्षाघात के शिकार अपने पिता को टहलाने के लिए ले जाता था। बशर को अहमदाबाद, जयपुर, दिल्ली, बेलगाम में आरोपी बनाया गया है। परिजन बताते हैं कि जयपुर के एक मामले में उसकी संलिप्पता बताई जाती है पर आज तक उसे वहां की अदालत में पेश नहीं किया गया।
सैफुर्रहमान अंसारी निवासी बदरका, आज़मगढ़ ने शिबली नेशनल कालेज से बीए किया है। 12-13 अप्रैल 2009 की रात को जबलपुर रेलवे स्टेशन से उसे हिरासत में लिया गया जब वह ट्रेन से वाराणसी रेलवे स्टेशन से सवार होकर अपनी बहन को छोड़ने मुम्बई जा रहा था। भाई-बहन दोनों को अलग-अलग वाहनों में जबलपुर से भोपाल ले जाया गया जहां 13 अप्रैल को उसे औपचारिक रूप से गिरफ्तार दिखाया गया। सैफुर्रहमान पर जयपुर और अहमदाबाद धमाकों में लिप्त होने का आरोप है। यूपी के लखनऊ, वाराणसी और फैज़ाबाद कचहरियों में होने वाले सिलसिलेवार धमाकों में भी यूपी एटीएस ने उस पर आरोप लगाए हैं। इसका उल्लेख निमेष आयोग के समक्ष प्रस्तुत लखनऊ कचहरी धमाके के विवेचक राजेश कुमार श्रीवास्तव के शपथ पत्र में किया गया है जो आयोग की रिपोर्ट में पेज संख्या 166 पर अंकित है। लेकिन अब तक इस मामले में ना कोई औपचारिक कार्रवाई की गई है और ना ही उसे उत्तर प्रदेश लाया गया है।
मोहम्मद हाकिम निवासी रहमतनगर, आज़मगढ़ को 2 जनवरी 2009 को लखनऊ से गिरफ्तार किया गया। उस पर 13 सितम्बर 2008 को दिल्ली में हुए सिलसिलेवार धमाकों में लिप्त होने का आरोप है। गिरफ्तारी के समय वह इन्टीग्रल विश्वविद्यालय लखनऊ से बीटेक कर रहा था। पढ़ाई के आखिरी कुछ महीने ही बचे थे। उसके पिता इंजीनियर अब्दुल करीम का कहना है कि हाकिम पर आरोप था कि उसने किसी दुकान से छर्रे खरीदे थे। वही दुकानदार हाकिम के खिलाफ मात्र एक गवाह था जिसने अदालत में यह कबूल किया कि उसने हाकिम को पहले कभी नहीं देखा। इसके बावजूद मुकदमे की लम्बी प्रक्रिया का सामना करने के लिए वह बाध्य है।
शहज़ाद अहमद उर्फ पप्पू निवासी खालिसपुर, आज़मगढ़ पर दिल्ली सीरियल ब्लास्ट और बटला हाउस कांड के समय पुलिस पार्टी पर फायर करते हुए फरार हो जाने का आरोप है। उसे 1 फरवरी 2010 को उसके गांव खालिसपुर से गिरफ्तार किया गया था। बटला हाउस कांड में उसे सेशन कोर्ट से उम्र कैद की सज़ा सुनाई गई है। मामला फिलहाल दिल्ली हाईकोर्ट में लम्बित है।
असदुल्लाह अख्तर निवासी गुलामी का पुरा, आज़मगढ़ हड्डी के मशहूर डाक्टर जावेद अख्तर का बेटा है। वह इन्टीग्रल विश्वविद्यालय, लखनऊ से बीटेक कर रहा था। उस पर दिल्ली, अहमदाबाद धमाकों के अलावा हैदराबाद दिलसुखनगर धमाका 21 फरवरी 2013, मुम्बई सीरियल ब्लास्ट 13 जूलाई 2011, जामा मस्जिद हमला 19 सितम्बर 2010 में लिप्त होने का आरोप है। हैदराबाद धमाके में उसे सेशन कोर्ट ने मृत्यु दंड दिया है। अब यह मामला हैदराबाद हाई कोर्ट में है।
हबीब फलाही निवासी बारी खास, आज़मगढ़ को जिला अम्बेडकर नगर से 27 दिसम्बर 2011 को गिरफ्तार किया गया था। वहां वह एक मदरसे में पढ़ाता था। उस पर अहमदाबाद धमाकों में लिप्त होने और केरल में सिमी द्वारा आयोजित ट्रेनिंग कैम्प में भाग लेने का आरोप है।
आरिफ बदर निवासी इसरौली, आज़मगढ़ तीन बच्चों (दो बेटी, एक बेटा) का पिता है। इलेक्ट्रीशियन का काम करके अपना परिवार चलाने वाले आरिफ को बटला हाउस कांड के बाद मुम्बई से 24 सितम्बर 2008 को एटीएस मुम्बई द्वारा उठाया गया और 25 सितम्बर को गिरफ्तारी दिखाई गई। आरिफ पर मुम्बई लोकल ट्रेन ब्लास्ट, अहमदाबाद और दिल्ली धमाकों का आरोप है। बटला हाउस के बाद आजमगढ़ के नौजवनों को पुराने मामलों में फंसाए जाने की साजिश का शिकार आरिफ भी हुआ। उसको भी विभिन्न पुराने मामलों में आरोपी बताया गया।
सादिक शेख निवासी असाढ़ा पारा, आज़मगढ़ सपरिवार चीता कैंप मुम्बई में रहता रहा है। पेशे से हार्डवेयर इंजीनियर सादिक को वहीं से 24 सितम्बर 2008 को एटीएस मुम्बई द्वारा उठाया गया लेकिन 25 सितम्बर को गिरफ्तारी दिखाई गई। उस पर मुम्बई लोकल ट्रेन ब्लास्ट, अहमदाबाद सीरियल धमाकों के अलावा कोलकाता स्थित अमेरिकन सेंटर पर हमले का आरोप है। बटला हाउस के बाद आजमगढ़ के नौजवनों को पुराने मामलों में फंसाए जाने वाली फेहरिस्त में सादिक का भी नाम शामिल हो गया। उसे तो कोलकाता स्थित अमेरिकन सेंटर पर हमले जैसे पुराने मामले में संलिप्त बता दिया गया।
जाकिर शेख ग्राम कंवरा गहनी, आज़मगढ़ का रहने वाला है। उसने 2002 में एमए किया और भिवंडी, महाराष्ट्र में रह कर स्क्रैप का व्यापार करता था। 24 सितम्बर 2008 को उसे भिवंडी से ही एटीएस मुम्बई द्वारा उठाया गया और अगले दिन गिरफ्तार दिखाया गया। उसे मुम्बई लोकल ट्रेन ब्लास्ट और अहमदाबाद धमाकों का आरोपी बनाया गया है। जाकिर को भी आरिफ बदर और सादिक शेख की तरह ही बटला हाउस कांड के बाद गिरफ्तार तो किया गया पर मुंबई लोकल ट्रेन ब्लास्ट जैसे पुराने मामले में भी आरोपी बना दिया गया।
तारीखों में गुजरे नौ साल
आतंकवादी घटनाएंः 13 मई 2008 का जयपुर सीरियल ब्लास्ट, 26 जुलाई 2008 को अहमदाबाद में हुआ धमाका और सूरत शहर में जिंदा बमों की बरामदगी, 13 सितम्बर 2008 को दिल्ली धमाके और इन सबसे पहले 23 नवम्बर 2007 को यूपी में वाराणसी, फैजाबाद और लखनऊ की कचहरियों में हुए सिलसिलेवार धमाके और 22 मई 2007 को गोरखपुर गोलघर धमाके। इसके अलावा कुछ अन्य मामलों के भी आरोप आज़मगढ़ के गिरफ्तार नौजवानों पर लगाए गए हैं।
जयपुर में कुल आठ मुकदमे अलग-अलग चल रहे हैं। कुल मिला कर करीब 1200 गवाह हैं। नौ सालों में अब तक आधे गवाह भी पेश नहीं किए गए हैं। मुकदमों की कार्रवाई कई बार बाधित हो चुकी है।
अहमदाबाद के सभी मुकदकों को समेकित कर सत्र परीक्षण स० 38/2009 के अन्तर्गत मुकदमे की सुनवाई हो रही है। यहां सबसे अधिक 3500 से भी ज्यादा गवाह हैं। अब तक करीब 950 गवाहियां ही हो पाई हंै।
दिल्ली में करीब एक हजार गवाह हैं और अब तक आधे से कम लगभग 400 गवाह ही अदालत में पेश किए जा सके हैं।
केरल में वाघमन प्रषिक्षण षिविर केस, एरनाकुलम में कुल 122 गवाह हैं जिनमें अब तक 65 गवाही ही हो पाई है।
सलमान को गोरखपुर गोल घर धमाकों का आरोपी बनाया गया है। उसे 2013 में पहली बार गोरखपुर लाया गया था। अब तक गोरखपुर में उसका मुकदमा शुरू भी नहीं हो पाया है। इसी तरह मो० सैफ को भी गोरखपुर में आरोपी बनाया गया है लेकिन अब तक उसे वहां लाया ही नहीं गया। आरिफ नसीम को लखनऊ में सितम्बर 2008 में गिरफ्तार किया गया था। उसके बाद उसे गुजरात एटीएस अहमदाबाद ले गई। आरिफ को अब तक लखनऊ वापस नहीं लाया गया है।
निमेष जांच आयोग के समक्ष उत्तर प्रदेश कचहरी धमाकों के विवेचक राजेश कुमार श्रीवास्तव ने जो हलफनामा 2011 में दाखिल किया था उसके मुताबिक सैफुर्रहमान भी उत्तर प्रदेश कचहरी धमाकों का आरोपी है लेकिन अब तक उसे न तो उत्तर प्रदेश लाया गया और न ही उसके परिजनों को इस तरह की कोई जानकारी दी गई है। सलमान पर अहमदाबाद धमाकों में भी लिप्त होने का आरोप है लेकिन अब तक उसे अहमदाबाद में पेश नहीं किया गया है।
तारिक कासमी को दिसम्बर 2007 में गिरफ्तार किया गया था। वह यूपी की लखनऊ जेल में बंद हैं। तारिक और खालिद की गिरफ्तारी पर गठित आरडी निमेष आयोग ने दोनों की गिरफ्तारी को संदिग्ध बताते हुए दोषी पुलिस वालों के खिलाफ कार्रवाई की बात कही है। गोरखपुर धमाकों में उनके खिलाफ चार्जशीट 15 मार्च 2013 को दाखिल की गई। बाराबंकी कोर्ट ने जहां उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई है वहीं लखनऊ, फैजाबाद और गोरखपुर में पिछले नौ साल से अधिक समय से मुकदमे चल रहे हैं। मुफ्ती अबुल बशर को अगस्त 2008 में गिरफ्तार किया गया था। तब से वह जेल में ही हैं और जयपुर के एक अन्य केस में अभी तक उसे हाजिर ही नहीं किया गया है।
विभिन्न राज्यों की निचली अदालतों में पिछले नौ साल से जिस रफ्तार से यह मुकदमे चल रहे हैं उनसे जाहिर होता है कि अभियोजन इन मुकदमों को जानबूझ कर लंबा खींच रहा है। इतना ही नहीं, लम्बे समय तक इन मुकदमों का सामना करने के बाद अगर वह अदालत से बरी होते हैं तो उनको लम्बित पड़े अन्य मुकदमों के बहाने वर्षों तक कैद रखने का इंतज़ाम बकायदा मौजूद है।
एक गुलज़ार वानी को ही 16 सालों तक कैदखाने के अंधेरे में नहीं रहना पड़ा। पुलिस की इसी कार्यशैली के हत्थे चढ़े दिल्ली के आमिर तो कभी निसार जैसे नौजवान एक दषक से अधिक समय जेल काट चुके हैं। वहीं यूपी में रामपुर के जावेद, बिजनौर के याकूब, नासिर, सीतापुर के सैय्यद मुबारक, कानपुर के वासिफ हैदर, मुमताज, पंश्चिम बंगाल के मोहम्मद अली अकबर, अजीजुर्रहमान, शेख मुख्तार जैसे लोग आठ-आठ साल, दस-दस साल जेल में रहने के बाद बाइज्जत बरी हुए।
अब भी ऐसे गुलज़ार वानियों की एक बड़ी जमात जेलों में रहने के लिए अभिशप्त हैं। निचली अदालतों में मुकदमों की धीमी गति और अभियोजन की आपराधिक सुस्ती से परिजन निराश हैं। न्याय हित में और न्यायपालिका के प्रति जनता के विश्वास को कायम रखने के लिए उच्चतम न्यायालय को ऐसे तमाम मामलों का संज्ञान लेकर उचित दिशा निर्देश जारी करना चाहिए।
आतंकवाद के मामलों में जिस तरह से गिरफ्तारियां की गई और मुकदमें धीमी गति से चलाए जा रहे हैं उसमें यह सवाल अहम है कि क्या सिर्फ राज्य की जिम्मेदारी उनको गिरफ्तार कर जेल में डालना भर थी। क्योंकि जिस तरह से सालों-साल बाद आरोपी बेगुनाह साबित हो जाते हैं जहां उनके जीवन की बर्बादी का सवाल होता है वहीं उस आतंकवादी घटना की सच्चाई का भी इस जद्दोजहद में गुम कर दी जाती है। दूसरे जिस तरह से आतंकवाद के आरोपियों को जेलों में हाई स्क्योरिटी के नाम पर जो झेलना पड़ता है और उसे जेल में बंद कर देने भर से राज्य अपनी जिम्मेदारी पूरी करने का एहसास दिलाता है। इससे यह भी साबित होता है कि राज्य उन्हें समान नागरिक का दर्जा नहीं देता है। ऐसे में सालों बाद बेगुनाह छूटने के बाद भी वे समाज की मुख्यधारा में बमुश्किल शामिल हो पाते हैं।
वो जेलों में महफूज नहीं
आतंकी घटनाओं के विचाराधीन आरोपियों को जेलों में यातनाएं देने की चर्चा बहुत आम है। जेल में कैद अन्य अपराधियों द्वारा उनके साथ मारपीट करने और जानलेवा हमलों की दर्जनों घटनाएं हो चुकी हैं। जेल प्रशासन पर इस तरह के हमले करवाने के आरोप भी लगे हैं और कई बार जेल प्रशासन ने अनुशासन के नाम पर उन पर लाठियां भी बरसाई हैं।
बिहार के रहने वाले कतील सिद्दीकी को जर्मन बेकरी धमाका और जामा मस्जिद फायरिंग केस का आरोपी बनाया गया था। पुणे की यरवदा जेल में 8 जून 2012 को उसकी हत्या कर दी गई। सीआईडी जांच में इस बात की पुष्टि हुई कि उसकी हत्या दो मकोका आरोपियों शरद मोहल और अमोल भालेराव ने की थी। यह हत्या किसी विवाद से उपजी हिंसा का नतीजा नहीं थी बल्कि सुनियोजित तरीके से की गई हत्या थी।
आतंक आरोपियों के खिलाफ हिंसा में अक्सर जेल अहलकारों और कानून के रखवालों की भूमिका संदिग्ध रही है। आज़मगढ़ के हकीम तारिक पर अदालत में पेशी के समय खुद अधिवक्ताओं के एक समूह ने हमला करके घायल कर दिया था।
जयपुर सेंट्रल जेल में सितम्बर 2009 में मोहम्मद सरवर और अन्य को जेल प्रशासन द्वारा उस समय लाठियों से पीटा गया जब वह जेल में ईद की नमाज़ अदा करने की मांग कर रहे थे।
दिल्ली में सलमान पर देष की सबसे सुरक्षित मानी जाने वाली तिहाड़ जेल में 2010 में धारदार हथियार से जानलेवा हमला हुआ। सलमान के मुताबिक जिस समय उस पर हमला हुआ, जेल के अहलकार खामोष तमाषाई बने रहे।
अहमदाबाद के साबरमती जेल में अक्तूबर 2014 में जेल प्रशासन ने विचाराधीन कैदियों को बुरी तरह से पीटा। किसी का हाथ टूटा किसी का पैर। साजिद मंसूरी को इतनी गम्भीर चोटें आयीं कि उसकी मौत की अफवाह तक फैल गई। कुल 22 कैदियों को गम्भीर चोटें आयीं। आज़मगढ़ के मुफ्ती बशर और आरिफ नसीम भी घायल हुए। घटना के बाद जेल प्रशासन ने उल्टे इन कैदियों के खिलाफ मुकदमा भी कायम कर दिया।
दातून, चम्मच, पेन, थाली और 214 फीट लंबी सुरंग
फरवरी 2013 में साबरमती सेंट्रल जेल प्रशासन ने विचाराधीन आतंक आरोपियों पर जेल में दातून, चम्मच, पेन और थाली का इस्तेमाल करके मीडिया रिपोर्टों में पहले 18 फीट फिर 26 फीट लम्बी सुरंग खोदने का आरोप लगाया। जांच के हवाले से कहा गया कि सुरंग 26 फीट नहीं बल्कि 214 फीट लम्बी थी और 16 फीट गहराई में खोदी गई थी। सुरंग खोदने वालों ने 26 फीट पर पत्थर और मिट्टी के गारे की एक दीवार खड़ी कर दी थी जिसकी वजह से जेल प्रशासन पहले उसकी लम्बाई का सही आकलन नहीं कर पाया था।
इस सवाल का जवाब पाना आसान नहीं है कि सात फीट ऊंची और चार फीट चैड़ी इतनी लम्बी सुरंग की मिट्टी कहां गई होगी? मुफ्ती बशर के पिता पक्षाघात के शिकार हैं उनका कहना है कि ‘जेल के अंदर हाई सेक्योरिटी ज़ोन में इस तरह की कहानियों पर आप केवल हंस सकते हैं।’ जेल प्रशासन ने जेल तोड़ कर भागने का प्रयास करने के आरोप में 24 विचाराधीन कैदियों पर मुकदमा कायम किया, चार्जशीट दाखिल की और अंत में अभियोजन अदालत में अपने आरोपों के पक्ष में साक्ष्य नहीं पेश कर पाया। यह मामला भी अब हाई कोर्ट में है।
9 जून 2013 को तिहाड़ जेल में अफज़ल गुरू को फांसी दी जाती है और अगले ही दिन साबरमती जेल में सुरंग का मामला सामने आ जाता है। क्या इसे मात्र संयोग माना जाए या आतंक की राजनीति का हिस्सा? इसकी एक बड़ी कड़ी जेलों में आतंकवाद के आरोपियों के खिलाफ होने वाली साजिशें भी हैं। भय के इस तरह के वातावरण में ये विचाराधीन कैदी अपने दिन काटने को अभिशप्त हैं। तेलंगाना और मध्यप्रदेश में फर्जी मुठभेड़ों में की जाने वाली हत्याओं के बाद काफी डरे-सहमे हैं।
7 अप्रैल 2015 को तेलंगाना के वारंगल जिले में अदालत में पेशी पर ले जाते समय हथकड़ी बंद आतंकवाद के पांच विचाराधीन कैदियों की हत्या कर दी गई और उसे मुठभेड़ का नाम दे दिया गया। इसी तरह 1 नवम्बर 2016 को भोपाल जेल से निकाल कर सिमी के आठ विचाराधीन कैदियों की फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर दी गई। इस फर्जी मुठभेड़ का वीडियो वायरल हो गया। इसमें साफ देखा जा सकता है कि किस तरह जमीन पर पड़े घायल नौजवानों को गोली मारी जा रही है ताकि किसी भी हालत में जीवित न बच पाएं।
राजनीतिक कारणों से उन फर्जी मुडभेड़ों के बारे में कुछ भी कहा जाता हो लेकिन जेलों में इस तरह के कैदियों को उत्पीड़ित करने के लिए मामूली अहलकार तक फर्जी मुठभेड़ों में मार दिए जाने की धमकी देते हैं। जेलों में बंद आज़मगढ़ के युवकों ने अपने परिजनों से मुलाकात में इस बात की आशंका जताई है कि उनके साथ भी कोई बड़ा षड़यंत्र किया जा सकता है। अहमदाबाद में बंद ऐसे ही एक विचाराधीन कैदी के परिजन ने कहा कि मध्यप्रदेश और तेलंगाना में इनकाउंटर के नाम पर मारे गए युवकों की रिहाई करीब थी। यह ऐसे तमाम बच्चों और उनके परिजनों के लिए चेतावनी है कि अगर अदालतों से सज़ा दिलवानें में अभियोजन कामयाब नहीं होता है तो कानून को ठेंगा दिखाते हुए फर्जी मुठभेड़ों में भी मार सकता है। दस-पंद्रह साल की कैद के बाद बेकसूर साबित होकर रिहा हुए नौजवानों के कीमती साल बर्बाद करने के सवालों से बचने के लिए ही इस तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं।
इस तरह के फर्जी इनकाउंटर या जेलों में होने वाली मारपीट का एक बड़ा मतलब होता है कि कैदियों और उनके परिजनों को यह आभास कराया जाए कि वह असहाय हैं और उनके साथ कुछ भी किया जा सकता है। इन्हीं घटनाओं को बहाना बना कर सुरक्षा के नाम पर जेल प्रशासन इन विचाराधीन कैदियों के साथ हर तरह की सख्ती करने का लाइसेंस भी हासिल कर लेता हैं। इन विचाराधीन कैदियों की उनके परिजनों और रिश्तेदारों से मुलाकात की औपचारिकताओं को मुश्किल बनाते जाना भी इसी साज़िश का हिस्सा है।
मुलाकातियों की भी खैर नहीं
जयपुर में संजरपुर, आजमगढ़ के मो0 सैफ के भाई मो0 अरसलान और मो0 सलमान के भाई अरमान को जयपुर पुलिस ने 19 सितम्बर 2015 को उस समय गिरफ्तार कर लिया जब दोनों अपने भाइयों से मिलने के लिए दिल्ली से बस द्वारा जयपुर गए हुए थे। आॅटो रिक्षा से होटल जाते समय उन्हें रास्ते में उतार लिया गया और आरोप लगाया गया कि दोनों संदिग्ध हालत में गलियों में घूम रहे थे। खबर मिलने के बाद एपीसीआर के मो0 राषिद से सम्पर्क किया गया तो उन्होंने दोनों की ज़मानत करवाई।
सुरक्षा के नाम पर जेल में पहले लोहे की एक जाली के पीछे से मुलाकात होती थी, बाद में उसे थोड़े से गैप के साथ दो जाली कर दिया गया और अब उसे शीशे से पूरी तरह पैक कर के इंटरकाम से बात करने की नई तरकीब निकाली गई है। अगर कोई रिश्तेदार मुलाकात के लिए जाता है तो उसे डराने के लिए एजेंसियों के अधिकारी उसको घटना की जांच के दायरे में खींचने की धमकी देते हैं। परिजनों को अलग तरह से परेशान किया जाता है।
जो लापता हैं
बटला हाउस कांड के बाद टीवी चैनलों पर आजमगढ़ को आतंकवाद से जोड़ते हुए बहुत से नाम सामने आए। सुरक्षा एजेंसियों ने कईयों कोे गिरफ्तार करने का दावा भी किया। कई ऐसे थे जिनके नाम मीडिया में उछले और उसके बाद वे फिर नजर नहीं आए। शुरुआत में यह संख्या तकरीबन 7 थी जो अब 10 हो चुकी है। कई बार मीडिया में उनसे सम्बंधित खबरें खुफिया और अन्य सूत्रों से प्रकाशित होती रहती हैं लेकिन अब तक किसी के बारे में कोई आधिकारिक जानकारी परिजनों को नहीं दी गई है।
इस सूची में डाक्टर शहनवाज़, साजिद बड़ा, मोहम्मद आरिज़, मिर्जा शादाब बेग, अबू राशिद, मोहम्मद खालिद और मोहम्मद वासिक बिल्लाह का नाम शामिल है। 2012 में एनआईए ने तीन अन्य के नाम एफआईआर दर्ज की, उसमें यूएपीए की धाराएं लगाई गई लेकिन किसी घटना का विवरण नहीं है। उस एफआईआर में मोहम्मद राशिद, शादाब अहमद और शर्फुद्दीन के नाम शामिल थे।
मोहम्मद राशिद बटला हाउस में मारे गए छोटा साजिद का बड़ा भाई है जो पहले से ही खाड़ी में नौकरी करता था और बटला हाउस की घटना से काफी पहले से विदेश में था और अब तक वह भारत नहीं आया है। स्वंय परिजनों और गांव वालों के लिए यह एक पहेली जैसा है कि जो व्यक्ति देश में था ही नहीं वह कैसे किसी घटना को अंजाम दे सकता है।
अबू राशिद का मामला भी कम संदिग्ध नहीं है। उसने 2000 में फार्मेसी में डिप्लोमा किया था, फिर आप्टिकल्स में डिप्लोमा करने के बाद जेकेबी आप्टिकल्स, अंधेरी, मुम्बई में काम करता था। रमज़ान और ईद के मौके पर संजरपुर आया हुआ था। इसी दौरान दिल्ली धमाका और बटला हाउस कांड हुआ। मुम्बई क्राइम ब्रांच वहां मौजूद उसके भाई और चाचा पर राशिद को हाज़िर करने का दबाव बनाने लगी। अबू राशिद के बड़े भाई अबूसाद का कहना है कि उन्होंने क्राइम ब्रांच के अधिकारियों से बात की और 24 सितम्बर 2008 को सुबह उसे वाराणसी से ट्रेन पकड़ने के लिए रवाना कर दिया। इसकी सूचना उन्होंने क्राइम ब्रांच के अधिकारियों के साथ ही उस समय संजरपुर में मौजूद ‘आज तक’ चैनल वालों को दी। उस समय मुम्बई से निकलने वाले अखबार ’मिड डे’ के पत्रकार केतन रंगा भी गांव में मौजूद थे। अबूसाद ने उनको भी इसकी जानकारी दी। यह सब उन्होंने इस आशंका के चलते किया कि कल पुलिस कहीं बटला हाउस जैसी कहानी न बना दे। लेकिन अबू राशिद आज तक मुम्बई नहीं पहुंचा।
सूत्रों का आतंक
इन लापता युवकों के बारे में जानकारी हासिल करने में मीडिया की भी दिलचस्पी रही है। कई बार जांच एजेंसियों के अहलकारों ने भी परिजनों से पूछताछ की है और उनके बारे में कोई जानकारी मिलने पर सूचित करने को कहा। अबू राशिद की घटना के बाद परिजनों पर अपने बच्चों के साथ किसी अनहोनी की आशंका छाई रहती है। वहीं खुफिया एजेंसियों और अन्य सूत्रों से इनके बारे में अलग-अलग तरह की खबरें प्रकाशित होती रही हैं। शीतला घाट, वाराणसी, मुम्बई सीरियल ब्लास्ट और हैदराबाद धमाके के बाद तो डाक्टर शहनवाज, साजिद बड़ा, आरिज़, शादाब बेग और अबू राशिद को सूत्रों के जरिए मीडिया ने इन धमाकों का सूत्रधार बना दिया था। कभी इन युवकों के खाड़ी के देशों में होने का समाचार छपता तो कभी मुम्बई और देश के अन्य भागों में देखे जाने या रेकी करने की खबरें प्रकाशित होती।
कुछ सालों से डाक्टर शहनवाज़, साजिद बड़ा और अबू राशिद के बारे में आईएस के लिए सीरिया में लड़ने की खबरें निरंतर इन्हीं रहस्यमयी सूत्रों के हवाले से आती रही हैं। साजिद बड़ा बटला कांड से पहले इंग्लिश स्पीकिंग और ज्वेलरी में डिप्लोमा करने के लिए दिल्ली गया हुआ था। साजिद के तीन बार मारे जाने की खबर आ चुकी हैं। पहले अफग़ानिस्तान फिर इराक और अंतिम बार जुलाई 2015 में सीरिया में आईएस की ओर से लड़ते हुए अमरीकी बमबारी में मारे जाने की खबर आई। सूत्रों के मुताबिक उन वेब साइट पर भी यह खबर प्रकाशित हुई जिन्हें एजेंसियां आतंकी वेबसाइट कहती हैं। कुछ पत्रकारों पर उनके मीडिया हाउस का इस मामले पर स्टोरी करने का इतना दबाव था कि एक दिन में कई पत्रकार संजरपुर आते और परिजनों के घाव कुरेद कर चले जाते। अभी यह सिलसिला थमा ही था कि दिल्ली स्पेशल ने 15 अगस्त 2017 से कुछ पहले 23 खतरनाक आतंकियों की जो सूची जारी की उसमें साजिद बड़ा का नाम भी शामिल था। मतलब कि तीन बार मारे जाने के बाद वो एक बार फिर से मारे जाने के लिए जिंदा कर दिया गया। उधर, मीडिया में इतनी हलचल के बाद भी साजिद के परिजनों को कभी कोई आधिकारिक सूचना नहीं दी गई।
संजरपुर समेत आजमगढ़ के लापता युवकों का दानवीकरण किया जा रहा है- बटला हाउस कांड के बाद उनका नाम आईएम से जोड़ा गया और अब आईएस से जोड़ा जा रहा है। साजिद बड़ा के बड़े भाई मोहम्मद शाकिर का कहना है कि ‘यह हमारे इस शक को पुख्ता करता है कि या तो लड़के खुफिया एजेंसियों की गिरफ्त में हैं और किसी बड़ी वारदात के बाद उनको सामने लाया जाएगा या पहले ही उनको मार दिया गया है और अपने गुनाहों को छुपाने के लिए इस तरह की पेशबंदी की जा रही है।’
19 सितम्बर 2008 के बाद से लापता युवकों में से साजिद बड़ा, शादाब बेग, मोहम्मद खालिद और मोहम्मद आरिज़ खान पर दिल्ली, जयपुर और अहमदाबाद धमाकों का आरोप है, आरिज़ खान को बटला हाउस कांड में गोली चलाने का भी मुल्जिम बनाया गया है। डाक्टर शहनवाज़ पर दिल्ली और अहमदाबाद धमाकों का आरोप है। अबू राशिद मुम्बई लोकल ट्रेन ब्लास्ट और अहमदाबाद धमाकों में वांछित है। मोहम्मद वासिक को अहमदाबाद बम धमाकों और वाघमन ट्रेनिंग कैम्प केस, एरनाकुलम, केरल में आरोपी बनाया गया है। मोहम्मद राशिद, शादाब अहमद और शर्फुद्दीन को यूएपीए के तहत आरोपी तो बनाया गया है लेकिन परिजनों को किसी घटना के बारे में कोई सूचना नहीं है।
तबाह होते घर
आज़मगढ़ के इन युवकों या इनके परिवार के लोगों का पहले से कोई अपराधिक रिकार्ड नहीं था। गिरफ्तारी के बाद सबसे ज़्यादा परेशान घर की महिलाएं और बच्चे थे। उस समय को याद करते हुए सामाजिक कार्यकर्ता अंशू माला सिंह कहती हैं ‘जब महिलाएं हमसे पूछती थीं कि मेरा बच्चा एक साल में तो छूट जाएगा ना, तो उनकी हालत को देखते हुए मुंह से यह निकलता ही नहीं था कि इस तरह के मामलों में दस-पंद्रह साल भी लग जाते हैं। बड़ी मुश्किल से यह दिलासा कुछ यूं दे पाते थे कि कुछ ज़्यादा समय भी लग सकता है। परिजनों को अपने बच्चों की बेगुनाही का पूरा भरोसा है।’ इस विपदा के सदमे से परिवार का कोई सदस्य बरी नहीं था। कई अभिभावक उस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाए और मौत के साथ ही चिन्ताओं ने उनका पीछा छोड़ा।
इन मौतों की जिम्मेदारी कौन लेगा
साजिद छोटा के पिता डाक्टर अंसारुल हस्सान बटला हाउस कांड में मारे गए बेटे की खबर के बाद जैसे बुत में तब्दील हो गए। होंठ सी लिए, बातचीत करना बंद कर दिया। स्वास्थ इतना गिरा कि चलता फिरता ढांचा ही बचा। कई बार उनकी मौत की अफवाह भी फैली। साजिद की मां का भी बुरा हाल हुआ, उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया। मां तो जैसे-तैसे पटरी पर लौटीं लेकिन पिता दुनिया को ही अलविदा कह गए।
आरिफ बदर के पिता बदरुद्दीन बेटे की गिरफ्तारी के बाद चारपाई पर ऐसे पड़े कि उनके उठने की नौबत ही नहीं आई और चल बसे। मां का दिमागी संतुलन बिगड़ गया और अब तक उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं।
मोहम्मद आरिज़ खान के पिता जफर आलम को शुरुआत में यह पूरी उम्मीद थी कि उनका बेटा वापस ज़रूर आएगा। लेकिन आशा निराशा में बदलती गई और बेटे का दुख लिए वह दुनिया से चले गए।
मोहम्मद सलमान तीसरी पीढ़ी में सबसे बड़ा और अपने दादा शमीम अहमद का सबसे दुलारा था। सलमान की गिरफ्तारी उनके लिए काल बन कर आई।
अबू राशिद के पिता एखलाक अहमद अपने सबसे छोटे बेटे के लापता हो जाने के बाद छुप-छुप कर रोते और दुआएं किया करते थे। उसी ग़म में उनकी भी मृत्यु हो गई।
सरवर के पिता और गणित के अध्यापक मास्टर हनीफ महीनों तक बेटे के गम में घुलते रहे। उनकी हालत ऐसी नहीं रह गई थी कि अपने बेटे से मिलने जयपुर जा सकें। बहुत मुश्किल से उन्होंने अपने ऊपर काबू पाया।
मुफ्ती बशर की नई-नई शादी हुई थी। गिरफ्तारी के बाद बेटी पैदा हुई। उस पत्नी और 8-9 साल की हो रही बेटी की पीड़ा को महसूस किया जा सकता है।
आरिफ बदर घर का अकेला कमाने वाला सदस्य था। उस पर कम उम्र के तीन बच्चों (दो बेटी, एक बेटा) और मानसिक असंतुलन का शिकार हो चुकी मां की जिम्मेदारी थी। पति की गिरफ्तारी के बाद उसकी पत्नी कितनी बड़ी परीक्षा से गुजरी होगी और इसका अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है।
पीड़ित परिवारों में कोई ऐसा घर नहीं जहां रो-रो कर महिलाओं और बच्चों का बुरा हाल न हो गया हो। तारिक कासमी, वासिक, आरिफ बदर, सादिक शेख, जाकिर शेख, अबू राशिद और मुफ्ती बशर की शादियां हो चुकी थीं। उनकी पत्नियों की जैसे दुनिया ही उजड़ गई।
यह स्वयं में त्रासदी है कि इस विपदा ने इन परिवारों में मरना-जीना इतना सामान्य कर दिया है कि कई बार असदुल्ला के पिता डाक्टर जावेद की आत्महत्या की अफवाह तक उड़ गई। खुद डाक्टर साहब को उसका खंडन करना पड़ा। कहना होगा कि इतना सब कुछ झेलते हुए सभी ने हालात का सामना करने के लिए अपने को तैयार किया और हर प्रतिकूल परिस्थिति का मुकाबला भी पूरे हौसले के साथ कर रहे हैं। यह बड़ी बात है।
जांच एजेंसियों की कारस्तानी
गिरफ्तार किए गए आज़मगढ़ के 16 में से 10 नौजवान अविवाहित हैं। उनमें से ज्यादातर पढ़ने-लिखने वाले थे, जीवन के उस मोड़ पर थे जहां कैरियर बनाना ही सबसे बड़ा सपना होता है। जीषान और साकिब निसार तो पढ़ाई के साथ नौकरी भी करते थे। आतंकवाद के नाम पर बेगुनाहों को फंसाने और उनका जीवन बर्बाद कर देने में सरकार और सुरक्षा एजेंसियों की भूमिका पहले भी चर्चा का विषय रही है। इसीलिए माननीय न्यायालय तक को बोलना पड़ जाता है कि ऐसा न कीजिए जिससे कहना पड़े ‘माई नेम इज खान बट आई एम नाॅट टेररिस्ट।’ आरोपियों और उनके परिजनों का कोई आपराधिक रिकार्ड नहीं रहा। अधिकतर का आधुनिक और उच्च शिक्षा से जुड़ाव रहा है। इन गिरफ्तारियों से जिले के नवयुवकों की शिक्षा पर बुरा प्रभाव पड़ा है। उच्च और तकनीकी शिक्षा के अवसरों के अभाव में महानगरों का रूख करने वाले छात्रों पर इसकी मार सबसे अधिक है। मुठभेड़ और तत्पश्चात गिरफ्तारियों पर उठने वाले सवालों पर जांच एजेंसियों की लीपापोती और विभिन्न महानगरों में आज़मगढ़ के छात्रों को भयभीत करने की सीधी जिम्मेदारी सरकार पर जाती है।
खुद गुलज़ार वानी के मामले में बारबंकी सेषन कोर्ट ने अपने फैसले में विवेचक की भूमिका पर गम्भीर सवाल उठाए। इसी तरह सरकार बनाम हामिद हुसैन, मोहम्मद शारिक आदि केस में 2011 के अपने फैसले में दिल्ली की द्वारिका कोर्ट ने पुलिस की भूमिका पर कड़ी टिप्पणी करते हुए चार अधिकारियों को दिल्ली पुलिस के लिए शर्मिंदा करने वाला और उसे बदनाम करने वाला कहा। अदालत में चलने वाली लम्बी न्यायिक प्रक्रिया का सबसे बड़ा कारण अभियोजन की हीला-हवाली होती है। आतंकवाद से सम्बंधित तमाम मुकदमों में पुलिस के गवाहों की हाजिरी के लिए खुद अदालत को कड़ी चेतावनी या वारंट तक जारी करने को बाध्य होना पड़ा है। इसका बुरा खामियाजा आखिरकार अभियुक्तों और उनके परिजनों को झेलना पड़ता है। आतंकवाद के विभिन्न मामलों में तेज गति से बिना बाधित किए सुनवाई करने के लिए कई बार पीड़ित हाईकोर्ट भी जाते हैं और वहां निश्चित समय सीमा में सुनवाई पूरी करने के निर्देष मिलने के बावजूद निचली अदालतों में उसका पालन नहीं हो पाता है। ऐसे मामले का एक उदाहरण नव वर्ष 1 जनवरी 2008 की पूर्व रात्रि मे हुए कथित रामपुर सीआरपीए कैंप कांड में भी देखा जा सकता है जहां बार-बार हाई कोर्ट के निर्देशों के बावजूद मुकदमें को पिछले नौ सालों से अधिक समय से लटकाए रखा गया है। जाहिर है कि हर दिन सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का सामना करना होता है। जिन मामलों में गिरफ्तार व्यक्ति ही अकेला रोज़ी कमाने वाला हो उसके दुख-परेशानियों को शब्दों में व्यक्त कर पाना सम्भव नहीं है।
इसका मतलब यह हरगिज़ नहीं कि आंतरिक सुरक्षा से जुड़े हुए ऐसे गम्भीर मामलों में, मानवीय संवेदनाओं के आधार पर ही सही, कोई छूट दी जाए। अभिभावकों की भी यह मांग कभी नहीं रही कि उनके बच्चों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई न की जाए। बल्कि वह तो चाहते रहे हैं कि मामले की उच्च स्तरीय न्यायिक जांच हो ताकि सच सामने आ सके और मुकदमों का तेज़ी के साथ निस्तारण हो सके। अगर ऐसा कर पाना सम्भव नहीं तो उनके बच्चों को ज़मानत दी जाए। सैफ के पिता शादाब अहमद उर्फ मिस्टर का कहना है कि ‘इसके लिए हम सरकार या अदालत को कोई भी गारंटी देने को तैयार हैं। फिर अगर मुकदमे की कार्रवाई बीस साल तक भी चलती रहे तो हम उससे न पीछे हटेंगे, न उससे भागेंगे। अदालत का जो भी फैसला होगा, उसको स्वीकार करेंगे।’
सबने कहा फर्जी
बटला हाउस कांड कांग्र्रेस सरकार में हुआ। सुरक्षा-खुफिया एजेंसियों की इस कारस्तानी ने वर्तमान सत्ताधारी भाजपा के एजेंडे को ही मजबूत किया कि हिंदुस्तान का मुसलमान आतंकवादी घटनाओं का हथियार ही नहीं बल्कि इंडियन मुजाहीदीन नाम का आतंकी संगठन भी बनाता है। साजिद और आतिफ को बटला हाउस फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने के पुलिस के दावे पर देश के ंप्रमुख राजनीतिक दलों ने सवाल खड़े किए और न्यायिक जांच की भी मांग की। सीपीएम की सुभाषिनी अली, सीपीआई के अतुल कुमार अंजान ने जहां संजरपुर का दौरा किया वहीं मुलायम सिंह यादव ने जनसभा की और पीड़ित परिजनों से मुलाकात की। इस घटना के बाद नेलोपा नेता तारिक शमीम की गिरफ्तारी हुई और इस फर्जी मुठभेड़ को बाद राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल का गठन हुआ। इस घटना का असर राष्ट्रीय स्तर पर था इसीलिए ममता बनर्जी ने भी मुठभेड़ को गलत बताते हुए निंदा की। वर्तमान एनडीए में शामिल राम विलास पासवान और उदित राज ने भी घटना की निंदा की। बाद में कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने भी संजरपुर का दौरा कर घटना पर सवाल किया।
रिहाई मंच, आजमगढ़ की तरफ से मसीहुद्दीन संजरी और तारिक शफीक द्वारा जारी ग्राम पोस्ट संजरपुर आजमगढ़