पंडित ब्रजनारायण चकबस्त कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। इस परिवार में लिखने-पढ़ने का शौक शुरू से ही रहा था। उनके पूर्वज खास लखनऊ के रहने वाले थे किन्तु कुछ दिनों के लिए उनके पिता पंडित उदित नारायण “चकबस्त” फैजाबाद चले गए थे । फैजाबाद में पंडित ब्रजनारायण चकबस्त का जन्म 19 जनवरी 1882 को हुआ था ।
चकबस्त लखनऊ के व्यवहार आदि के अच्छे आदर्श थे। इनके स्वभाव में ऐसी विनम्रता, मिलनसारी, सज्जनता तथा सुव्यवहारशीलता थी कि ये सर्वजन प्रिय हो गए थे। धार्मिक कट्टरता इनमें नाम को भी नहीं थी। इन्होंने पूर्ववर्ती कवियों की उर्दू कविताएँ बहुत पढ़ी थी और इनपर अनीस, आतिश तथा गालिब का प्रभाव अच्छा पड़ा था। उर्दू में प्राय: कविगण गजलों से ही कविता करना आरंभ करते हैं परंतु इन्होंने नज्म द्वारा आपनी कविता आरंभ की और फिर गज़लें भी ऐसी लिखीं जो उर्दू काव्यक्षेत्र में अपना जोड़ नहीं रखती। इनकी कविता में बौद्धिक कौशल अधिक है अर्थात् केवल सुनकर आनंद लेने योग्य नहीं है प्रत्युत् पढ़कर मनन करने योग्य है। इन्होंने अपने समय के नेताओं के जो मर्सिए लिखे हैं उन्हें पढ़ने से पाठकों के हृदय में देशभक्ति जाग्रत होती है। दृश्यवर्णन भी इनका उच्च कोटि का हुआ है और इसके लिये भाषा भी साफ सुथरी रखी है। इनकी वर्णनशैली में लखनऊ की रंगीनी तथा दिल्ली की सादगी और प्रभावोत्पादकता का सुंदर मेल है। उपदेश तथा ज्ञान की बातें भी ऐसे अच्छे ढंग से कहीं गई हैं कि सुनने वाले ऊबते नहीं।
पंडित ब्रजनारायण ने अच्छी शिक्षा प्राप्त की। उर्दू फारसी की शिक्षा घर पर लेने के साथ ही साथ अंग्रेजी स्कूल में दाखिल हो गए। उन्होंने 1905 में केनिंग कालेज लखनऊ से बी.ए. पास किया और वही से वकालत की परीक्षा पास करके 1908 में वकालत करने लगे। कुछ ही वर्षों में उनकी गिनती लखनऊ के बड़े वकीलों में होने लगी।
शायरी का शौक उन्हें बचपन से ही था। कहा जाता है की उन्होंने पहली ग़ज़ल उस वक्त कही जबकि उनकी उम्र बस नौ बरस की थी। उन्होंने उर्दू कविता की परंपरा के अनुसार कोई उस्ताद नहीं बनाया। यह अच्छा ही हुआ क्योकि उस्ताद उन्हें अपने ही ढर्रे पर चलने की कोशिश करता और वे इस तरह शुरू से ही अपना निराला ढंग न अपना पाते। उस्ताद की कमी उन्होंने उर्दू के प्रमुख नए और पुराने शायरों के अध्ययन कर पूरी की जिनमे मीर, आतिश, ग़ालिब, अनीस, दबीर शामिल थे।
परन्तु ऐसा लगता है की शुरुआत में उन्हें उस्ताद न करने की वजह से कुछ कठिनाई हुई होगी क्योकि उनकी कविताओ के प्रथम पाठ के वाचन उनकी जातीय सभाओ में ही मिलते है और वह भी रचना प्रारंभ के काफी बाद। उनका बार-बार कहना कि “मै शायर नहीं हूँ” केवल शिष्टता समझी जाती है। किन्तु इस शिष्टता के साथ ही अपने नए रंग का उल्लेख करने में उन्होंने कभी समझोता नहीं किया। इसी कारण उनकी शायरी में एक हल्का व्यंग्य भी झलकता है एक कतए में कहते है :कद्रदां क्यों मुझे तकलीफे-सुखन देते है मै सुखनवर नहीं शायर नहीं उस्ताद नहीं। 1910 में जबकि वे अपने “शरर’-चकबस्त” विवाद के कारण काफी ख्याति पा चुके थे “खुमखानाए-जावेद” के लेखक लाला श्रीराम को एक पत्र में लिखा : “दोस्तों का दिल बहलाने को कभी-कभी शेर कह लेता हूँ। पुराने रंग की शायरी यानि गज़लगोई से नाआशना हूँ । लेकिन इसके साथ मेरा यह अकीदा है कि महज़ ख्यालात को तोड़-मरोडकर कर नज़्म कर देना शायरी नहीं है । मेरे ख्याल के मुताबिक ख्यालात की ताजगी के साथ जबान में शायराना लताफत और अल्फाज़ में तासीर का जौहर होना ज़रुरी है।
चकबस्त ने कविता के अतिरिक्त आलोचना क्षेत्र में भी शुरू से ही अपनी विद्वत्ता की धाक जमा ली थी। 1905 में जब उनकी उम्र केवल 23 वर्ष की थी तत्कालीन विद्वान मौलाना अब्दुलहलीम ‘शरर’ ने पंडित दयाशंकर ‘नसीम’ की मसनवी ‘गुल्जारे-नसीम’ पर कुछ काव्य संबंधी आपत्तियां उठाई थी। चकबस्त ने उनका विद्वत्तापूर्ण उत्तर देना शुरू किया । तत्कालीन उर्दू जगत में ‘शरर’ और ‘चकबस्त’ की यह कलमी लड़ाई बहुत दिलचस्पी की चीज बन गयी। यह वाद-विवाद बाद में ‘मार्का-ए-शरर-चकबस्त’ के नाम से छप भी गया । मौलाना ‘हसरत मोहानी’ ने इस वाद-विवाद के बारे में अपने पत्र ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ में लिखा कि ‘चकबस्त’ की दलीले सुनने के बाद मालूम होने लगा है कि मौलाना ‘शरर’ ने ‘मसनवी गुलज़ारे-नसीम’ पर जो आपत्तियां उठायी थी वो गलत थी। यह सिर्फ एक आलोचक की राय नहीं है । उर्दू जगत ने ‘चकबस्त’ के ही हक में फैसला दिया और ‘मसनवी-गुलज़ारे-नसीम’ पर इसके बाद किसी ने कोई आपत्ति नहीं उठाई । इस वाद-विवाद के अतिरिक्त अन्य साहित्यिक विषयों पर भी चकबस्त बराबर कुछ न कुछ लिखा करते थे। “कश्मीर-दर्पण’, ‘खदंगे-नज़र’, ‘अदीब’, ‘ज़माना’ आदि पत्रिकाओ में उनके लेखा बराबर निकलते रहते थे।
उनकी मृत्यु भी अचानक ही हुई 12 फ़रवरी 1926 को वे मुकदमे की पैरवी करने रायबरेली गए, तीसरे पहर उन्होंने बहस की और 6 बजे शाम को लखनऊ आने के लिए रेलगाड़ी में बैठे। अचानक ही उनके मस्तिष्क पर पक्षाघात हुआ और उनकी जबान बंद हो गयी । उन्हें प्लेटफार्म पर उतार लिया गया। यथासंभव उपचार की व्यवस्था की गयी लेकिन उनका अंत समय आ गया था । दो घंटे बाद प्लेटफार्म पर ही उनका देहावसान हो गया। ग्यारह बजे रात को मोटर पर उनका शव लखनऊ लाया गया। सारे लखनऊ बल्कि सारे उर्दू जगत में इस समाचार से शोक छा गया। कई शायरों ने तारीखे और मर्सिये लिखे। अपने अल्प जीवन की अत्यधिक पेशेवर व्यस्तता के कारण ‘चकबस्त’ कुछ अधिक न लिख सके लेकिन उन्होंने जो कुछ लिखा वह बेजोड़ था | उनकी कुछ पद्य रचनाओ का संग्रह ‘सुबहे-वतन’ के नाम से प्रकाशित हुआ है। एजेन्सी।