माखनलाल चतुर्वेदी जी (4 अप्रैल 1889-30 जनवरी 1968) का बचपन संघर्षमय था। बचपन में ये काफ़ी बीमार रहा करते थे। इनका परिवार राधावल्लभ सम्प्रदाय का अनुयायी था। नृसिंह मंदिर के सामने मैदान में होने वाली रामलीला में वे राम और लक्ष्मण के किरदार निभाते थे। बचपन में मंदिर की गायें चराने के लिए वे नर्मदा तट पर जाया करते थे। इनके पिता पंडित नंदलाल चतुर्वेदी ग्राम की पाठशाला में अध्यापक थे। 1930 में पंद्रह वर्ष की आयु में इनका विवाह बाबई में ही ग्यारसी बाई से हो गया था । पत्नी की उम्र तब 9 वर्ष की थी। उनकी एक कन्या संतान हुई जिसकी जल्द ही मृत्यु हो गयी। बीमारी के चलते पत्नी के देहांत भी 1914 में हो गया। उन्हें माता-पिता, परिवार व मित्रजनों ने दूसरे विवाह के लिए समझाया पर उन्होंने मना कर दिया और अकेले ही जीवन पथ पर निकल पड़े।
1913 में चतुर्वेदी जी ने प्रभा पत्रिका का सम्पादन आरम्भ किया, जो पहले चित्रशाला प्रेस, पूना से और बाद में प्रताप प्रेस, कानपुर से छपती रही। प्रभा के सम्पादन काल में इनका परिचय गणेश शंकर विद्यार्थी से हुआ, जिनके देश- प्रेम और सेवाव्रत का इनके ऊपर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। चतुर्वेदी जी ने 1918 में ‘कृष्णार्जुन युद्ध’ नाटक की रचना की और 1919 में जबलपुर से ‘कर्मवीर’ का प्रकाशन किया। यह 12 मई, 1921 को राजद्रोह में गिरफ़्तार हुए 1922 में कारागार से मुक्ति मिली। चतुर्वेदी जी ने 1924 में गणेश शंकर विद्यार्थी की गिरफ़्तारी के बाद ‘प्रताप’ का सम्पादकीय कार्य- भार संभाला। यह 1927 में भरतपुर में सम्पादक सम्मेलन के अध्यक्ष बने और 1943 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष हुए। इसके एक वर्ष पूर्व ही ‘हिमकिरीटिनी’ और ‘साहित्य देवता’ प्रकाश में आये। इनके 1948 में ‘हिम तरंगिनी’ और 1952 में ‘माता’ काव्य ग्रंथ प्रकाशित हुए।माखनलाल जी की पहली रचना ”रसिक मित्र” ब्रजभाषा में प्रकाशित हुई थी। उनकी रचनाएं खड़ी बोली में है। कहीं कहीं उन्होंने संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग किया है और कुछ स्थानों पर आवश्यकतानुसार उर्दू के शब्दों को भी अपनाया है। उनकी शैली भावप्रधान है। उनकी भाषा सुबोध, प्रवाहपूर्ण तो है ही, ओज और प्रसाद गुण से भी पूर्णत: संपन्न है। मुहावरों और सूक्तियों के प्रयोग से उसके सौन्दर्य में अभिवृद्धि हुई है। उनके काव्य को चार श्रेणियों में रखा जा सकता है- राष्ट्रीयता, प्रेम, प्रकृति और अध्यात्म।इनका उपनाम एक भारतीय आत्मा है।
पुरस्कार व सम्मान :
1943 में वे जयपुर हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष चुने गये। माखनलाल जी के कविता संग्रह ‘हिमकिरिटिनी’ को 1943 में ‘देव पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया जो उस समय का साहित्य का सबसे बड़ा पुरस्कार था। ’हिम तरंगनी’ काव्य संग्रह के लिए 1955 में इन्हें साहित्य अकादमी का प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया। ’पुष्प की अभिलाषा’ और ‘अमर राष्ट्र’ ओजस्वी रचनाओं के लिए इन्हें सागर विश्वविद्यालय ने 1959 में डी.लिट्. की मानद उपाधि से विभूषित किया। 1963 में इन्हें भारत सरकार द्वारा ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया। 10 सितंबर, 1967 को राष्ट्रभाषा हिन्दी पर आघात करने वाले राजभाषा संविधान संशोधन विधेयक के विरोध में माखनलालजी ने यह अलंकरण लौटा दिया था। भोपाल का माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय इन्हीं के नाम पर स्थापित किया गया । एजेन्सी।