पर्यावरण
दिल्ली की आबोहवा दमघोंटू हो चुकी है। सांस लेना भी मुश्किल हो चला है। हमारे लिए यह कितनी बड़ी बिडंबना है। जहरीली होती दिल्ली हमारे लिए बड़ा खतरा बन गई है। पर्यावरण की चिंता किए बगैर विकास का सिद्धांत मुश्किल में डाल रहा है। लखनऊ के बारे में कह जा रहा है कि यहां के हालात दिल्ली से भी बदतर हैं। यह पूरी मानव सभ्यता के लिए चिंता का विषय है। समय रहते अगर इस पर लगाम नहीं लगायी गयी तो धुंध और धुंए का मेल आने वाली पीढ़ी को निगल जाएगा और देश मास्क और ऑक्सीजन के साथ सफर करने को मजबूर होगा।
दिल्ली सरकार की तरफ से उठाए गए कदम पर नेशनल ग्रीन ट्रायब्यूनल ने दोबारा आड-ईवन लागू करने के फैसले पर सवाल उठाए हैं। केजरीवाल सरकार 13 से 17 नवंबर के बीच, पांच दिनों के लिए ऑड-ईवन लागू करने जा रही थी। लेकिन एनजीटी ने सरकार से पहले लागू हुए ऑड-ईवन के दौरान हवा की गुणवत्ता पर आए असर के बारे में जानकारी मांगी है साथ ही कई बातों पर अमल न करने के लिए फटकार भी लगायी। पिछले साल सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड ने एनजीटी को बताया था कि इस बात के कोई प्रमाण नहीं मिले हैं कि दिल्ली में वाहन प्रदूषण पर कोई असर पड़ा हो, जिसकी वजह से आड- ईवन पर सवाल खड़े हो गए हैं ।
आज दुनिया भर में बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण बड़ी चुनौती बन गया है। दिल्ली में तकरीबन 60 लाख से अधिक दुपहिया वाहन पंजीकृत हैं। प्रदूषण में इनकी भागीदारी 30 फीसदी है। कारों से 20 फीसदी प्रदूषण फैलता है, जबकि दिल्ली के प्रदूषण में 30 फीसदी हिस्सेदारी दुपहिया वाहनों की है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया के 20 प्रदूषित शहरों में १३ भारतीय शहरों को रखा है, जिसमें दिल्ली चार प्रमुख शहरों में शामिल है।
दिल्ली चीन की राजधानी बीजिंग से भी अधिक प्रदूषित हो चली है। दिल्ली में 85 लाख से अधिक गाडिय़ां हर रोज सड़कों पर दौड़ती हैं, जबकि इसमें 1400 नई कारें शामिल होती हैं। इसके अलावा दिल्ली में निर्माण कार्यों और इंडस्ट्री से भी भारी प्रदूषण फैल रहा है। हालांकि इसकी मात्रा 30 फीसदी है, जबकि वाहनों से होने वाला र्पदूषण 70 फीसदी है। शहर की आबादी हर साल चार लाख बढ़ जाती है, जिसमें तीन लाख लोग दूसरे राज्यों से आते हैं।
आबादी का आंकड़ा एक करोड़ 60 लाख से अधिक हो चला है। दिल्ली ने जब पहली बार आड- ईवन को अपनाया था तो सरकार का दावा है कि 81 फीसदी लोगों ने ऑड-ईवन फॉर्मूले को दोबारा लागू करने की बात कही है। सर्वे में 63 फीसदी लोगों ने इसे लगातार लागू करने की सहमति दी है। वहीं 92 फीसदी लोगों का कहना था कि उन्हें दो कार रखनी होंगी, वे दूसरी कार नहीं खरीदेंगे। लेकिन नेशनल ग्रीन ट्रायब्यूनल ने इसे गलत बताया है । उधर दिल्ली सरकार की इस मांग को भी केंद्र ने खारिज कर दिया है जिसमें धुंध को मिटाने के लिए हेलिकॉप्टर से पानी छिड़काव की बात कही गई थी । केंद्र ने साफ कहा है कि इससे कोई फायदा होने वाला नहीं है । दूसरी बात दिल्ली में यह सम्भव भी नहीँ है ।
दिल्ली में वैकल्पिक ऊर्जा का उपयोग अधिक बढ़ाना होगा। शहर में स्थापित प्रदूषण फैलाने वाले प्लांटों के लिए ठोस नीति बनानी होगी। ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही हैं। इसमें कार्बन की सबसे बड़ी भूमिका है। वैज्ञानिकों का दावा है कि वर्ष 2011 तक छह डिग्री सेल्सियस तक तापमान बढ़ सकता है। भारत में गर्मी के शुरुआती दिनों में ही बेतहाशा गर्मी पडऩे लगती है, जबकि अमेरिका में ग्लोबल वार्मिंग के कारण बसंती मौसम है। दिल्ली में 16 साल पूर्व एक सर्वे में जो आंकड़े थे वह चौंकाने वाले थे। आज उनकी क्या स्थिति होगी यह विचारणीय बिंदु है।
दिल्ली में उस समय वाहनों से प्रतिदिन 649 टन कार्बन मोनोऑक्साइड और 290 टन हाइड्रोकार्बन निकलता था, जबकि 926 टन नाइट्रोजन और 6.16 टन से अधिक सल्फर डाईऑक्साइड की मात्रा थी, जिसमें 10 टन धूल शामिल है। इस तरह र्पतिदिन तकरीबन 1050० टन प्रदूषण फैल रहा था। आज उसकी भयावहता समझ में आ रही है। उस दौरान देश के दूसरे महानगरों की स्थिति मुंबई में 650, बेंगलुरू में 304, कोलकाता में करीब 300, अहमदाबाद में 290, पुणे में 340, चेन्नई में 227 और हैदराबाद में 200 टन से अधिक प्रदूषण की मात्रा थी।
हमें बढ़ते वाहनों के प्रचलन और विलासिता की दुनिया से बाहर आना होगा, तभी हम बिगड़ते पर्यावरण प्रदूषण पर लगाम लगा सकते हैं। यह जहर हमारी पीढ़ी के लिए बेहद जानलेवा है। दुनिया भर में 30करोड़ से अधिक बच्चे वायु प्रदूषण से र्पभावित हैं। सौ में से एक बच्चा जहरीला धुंआ निगलने के लिए बाध्य है। पांच साल की उम्र में छह लाख बच्चों की मौत हो जाती है।
प्रदूषण से हम वैकल्पिक राहत दे सकते हैं, लेकिन यह अंतिम समाधान साबित नहीं होंगे। दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण के लिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उप्र के किसानों पर आरोप मढऩा उचित नहीं है। फसलों के अपशिष्ट जलाने से इस तरह का प्रदूषण कभी नहीं फैला, फिर आज कैसे फैलेगा। संबंधित राज्यों में किसान पहले से भी फसले जलाते रहे हैं, लेकिन इसका प्रभाव इतना अधिक क्यों है ? यह खुद एक सवाल है। सम्बन्धित राज्यों में पराली जलाने की परम्परा बेहद पुरानी है, लेकिन देश की इलेक्ट्रानिक मीडिया इसके लिए किसानों को जिम्मेदार मानती है। दिल्ली के लोग इसके लिए कितने जवाबदेह हैं, शायद उन्हे मालूम नहीं कि दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में अपनी दिल्ली भी शामिल है, फिर इसमें किसानों का क्या दोष? इस पर विचार करना होगा।
प्रदूषण से निजात के लिए हमारे लिए नैसर्गिक ऊर्जा का दोहन ही सबसे सस्ता और अच्छा विकल्प है। दिल्ली और केंद्र सरकार को इसके लिए संकल्पबद्ध होना होगा। हमारी नीतियां हाथी दांत सी हैं। करना कम, दिखाना ज्यादा। इसी का नतीजा है कि समस्याएं दिन ब दिन बढ़ती जा रही हैं, लेकिन उसका निदान फिलहाल उपलब्ध नहीं है। क्योंकि इंसान में भोग विलासिता की र्पवृत्ति तेजी से बढ़ रहीं है, जिसकी वजह है कि हम प्रकृति से दूर जा रहे हैं। हमारे जीवन में कृत्रिमता का उपयोग बढ़ रहा है । हमने प्लास्टिक संस्कृति को अंगीकार कर लिया है। झोले की परम्परा गायब हो चली है। मॉडल पैकिंग का दौर है। ग्लोबलाइजेशन की वजह से बाजारू सभ्यता तेजी से पाँव पसार रही है जिसकी वजह है प्लास्टिक का जहाँ उपयोग बढ़ रहा है, वहीं वाहनों की तादाद भी वायु प्रदूषण में अहम भूमिका निभा रही है। पंजाब और हरियाणा के किसानों पर दोष मढऩा अन्याय है, इसके लिए खुद दिल्ली और वहाँ की सरकारें जिम्मेदार हैं। फसलों के जलाने से पैदा होने वाले धुएँ से इसका कोई सम्बन्ध नहीं हैं । वक्त रहते अगर हम विकास और विलासिता की अंधी दौड़ के पीछे भागते रहे तो स्थिति दिल्ली के साथ पूरे देश की भयावह होगी। (हिफी)