तीन तलाक का मामला सभ्य समाज के लिए कलंक जैसा है और कई मुस्लिम देशों में भी इसे अमान्य कर दिया गया है। भारत में इस दिशा में पहल मुस्लिम महिलाओं ने ही की है और केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने इसे अपना राजनीतिक कर्त्तव्य मान लिया है। हमारे देश में संविधान ने सभी धर्म-सम्प्रदायों के साथ स्त्री-पुरूषों को भी समान अधिकार दिये हैं। इस्लाम में मुस्लिम पर्सनल ला और शरिआ कानून के चलते पुरूषों एवं महिलाओं में विवाह को लेकर इस तरह की समानता नहीं है। सबसे चिंतनीय बात तीन बार तलाक शब्द बोलकर सम्बंध तोड़ लेनें को लेकर है। इससे कितनी ही महिलाओं को घर छोडना पड़ता है और मामला अदालत तक पहुंचा। तीन तलाक के विरोध में महिलाओं की लड़ाई दो दशक से अधिक समय से चल रही है। इस मामले में शाहवानों के मामले की सबसे ज्यादा चर्चा हुई थी लेकिन तत्कालीन केन्द्र सरकार ने शाहवानों का साथ नहीं दिया था। श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा नीत गठबंधन की सरकार बनने पर मुस्लिम महिलाओं को सरकार की तरफ से भी समर्थन मिला और सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को असंवैधानिक करार देते हुए अमान्य कर दिया। इसके साथ ही देश की सबसे बड़ी अदालत ने यह भी कहा था केन्द्र सरकार इसके लिए कानून बनाये।
इस बात को भी काफी समय हो गया था और लोग कहने लगे कि केन्द्र सरकार कानून क्यों नहीं बना रही है? कई मामले तलाक के भी सामने आये और महिलाओं ने कहा कि यदि कानून बन गया होता तो संभवतः उनको यह त्रासदी नहीं झेलनी पड़ती। मुस्लिम महिलाओं की इस शिकायत को गलत भी नहीं कहा जा सकता। केन्द्र सरकार ने अब इस प्रकार के कानून के मसौदे को तैयार कर लिया है। सरकार चाहती है कि इस कानून को लेकर सभी राज्य सरकारें भी अपनी-अपनी राय बतायें। उच्चतम न्यायालय द्वारा एक बार में तीन तलाक को गैर कानूनी घोषित करने के बावजूद यह परम्परा जारी है। तीन तलाक के ऐसे मामले भी सामने आये हैं जब फोन पर अथवा मेसेज कर के तीन तलाक कहा गया। शरीअत के अनुसार तीन तलाक की अवधि इस तरह की गयी ताकि महिलाएं ये भी न कह सकें कि उन्हें तलाक दिया गया है और घर से उन्हें निकाला भी जा सके। ऐसे हालात को देखते हुए ही सरकार ने तीन तलाक पर कानून का मसौदा तैयार किया। इसके बारे में सार्वजनिक रूप से सिर्फ यही बात सामने आयी है कि एक बार में तीन तलाक गैर कानूनी और शून्य अर्थात निराधार माना जाएगा। ऐसा करने वाले पति को तीन साल के कारावास की सजा हो सकती है। इस कानून को मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक का नाम दिया गया है और गत पहली दिसम्बर को राज्य सरकारों के पास भेज दिया गया ताकि राज्य सरकारें भी अपना विचार रख सकें। केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों से यह अपेक्षा की है कि इस मसौदे पर वे अपनी प्रतिक्रिया तत्काल देने का प्रयास करें। यह मसौदा केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता वाली मंत्री समिति ने तैयार की है। इस समिति में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, वित्तमंत्री अरूण जेटली, विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद और विधि राज्य मंत्री पीपी चौधरी शमिल हैं। प्रस्तावित कानून केवल एक बार में तीन तलाक या तलाक ए विद्दत पर ही लागू होगा और पीड़िता को अपने तथा नाबालिग बच्चों के लिए गुजारा भत्ता मांगने के लिए मजिस्ट्रेट से गुहार लगाने की शक्ति देगा। इसके तहत महिला मजिस्ट्रेट से अपने नाबालिग बच्चों के संरक्षण का भी अनुरोध कर सकती है और मजिस्ट्रेट इस मामले पर अंतिम फैसला करेंगे।
सरकार ने अपने विधि मंत्री को इसीलिए शामिल किया है ताकि कानूनन कोई खामी न रह जाए। इसलिए मसौदे में साफ-साफ उल्लेख किया गया है कि किसी भी तरह का तीन तलाक चाहे, उसे बोलकर, लिख कर या ईमेल, एसएमएस और ह्वाट्स अप जैसे इलेक्ट्रानिक माध्यम से भी दिया गया है तो उसे गैर कानूनी माना जाएगा। जीवन यापन के लिए गुजारा भत्ता और संरक्षण का प्रावधान यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया है कि अगर कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को घर छोड़कर जाने के लिए कहता है तो उसके पास कानूनी कवच अर्थात सुरक्षा होनी चाहिए। प्रस्तावित कानून जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में लागू होगा। इसीलिए राज्य सरकारों से सलाह मांगी गयी है कि दलगत राजनीति से अलग हटकर इस पर अपने विचार भेजें। भाजपा की देश में 18 राज्यों में खुद की या साझे की सरकारें हैं। इनमें जम्मू-कश्मीर में यह कानून लागू ही नहीं होना है तो बाकी 17 राज्यों से कानून के मसौदे को स्वीकार करने की सहमति शीघ्र ही मिल जानी चाहिए। तमिलनाडु और तेलंगाना भी केन्द्र सरकार के मसौदे को डिटो कर देंगे लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी इस पर मीन-मेष निकाल सकती हैं। एक राज्य के विरोध का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। हालांकि पश्चिम बंगाल में लगभग आधी आबादी मुसलमानों की है और सुश्री ममता बनर्जी का वही सबसे बड़े वोट बैंक भी हैं। वहां की मुस्लिम महिलाएं भी तीन तलाक के विरोध में है और सुश्री ममता बनर्जी को भी उनकी भावनाएं समझनी चाहिए। वहां के कट्टर पंथी इसका विरोध करते हैं और सुश्री ममता बनर्जी का अब तक का राजनीतिक इतिहास यही बताता है कि वे मुस्लिम कट्टर पंथियों के आगे झुकती रही हैं। केन्द्र सरकार ने भी इस मामले में कानून बनाने में विलम्ब इसीलिए किया क्योंकि उसका मानना था कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद तीन तलाक पर रोक लग जाएगी। मुस्लिम समाज के जागरूक लोग देश की सबसे बड़ी अदालत का सम्मान करेंगे लेकिन ऐसा नहीं हो सका। तलाक के मामलों में कुछ कमी जरूर दिखाई पड़ी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पहले देश में 177 ऐसे मामले सामने आये जिनमें महिलाओं ने तलाक को लेकर अपना दर्द सामने रखा था लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद 66 मामले ही दर्ज हुए। उत्तर प्रदेश में 2017 के विधान सभा चुनाव में भाजपा ने इस मामले को जोर शोर से उठाया था और कानून बनाने की बात भी कही थी। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मुस्लिम महिलाओं ने इस मुद्दे पर भाजपा का साथ दिया था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद तलाक के सबसे ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश से ही मिले हैं। इसलिए केन्द्र सरकार ने कानून बनाने की योजना बनायी है। तलाक और विवाह का विषय संविधान की समवर्ती सूची में आता है। केन्द्र सरकार आपातकालीन स्थिति में इस पर कानून बनाने का अधिकार भी रखती है लेकिन सरकारिया आयोग ने केन्द्र सरकार को राज्यों से सलाह मशविरा करने की सिफारिश की थी। इसलिए तलाक पर कानून बनाने से पहले केन्द्र सरकार राज्यों से सलाह मशविरा करना चाहती है।
मुस्लिम समाज में जागरूकता आयी है, इसमें कोई दो राय नहीं हैं। अब परिवार नियोजन के बारे में भी वे गंभीरता से सोचने लगे हैं और कितने ही दम्पत्ति ऐसे मिलेंगे जो एक या दो बच्चों तक ही अपने परिवार को सीमित रखे हुए हैं जब कि मुस्लिम कट्रपंथी अभी भी मुस्लिमों की आवादी बढ़ाने के लिए परिवार नियोजन का विरोध करते हैं। इसी प्रकार मुस्लिम समाज के समझदार युवक निकाह करते समय ही देख लेते हैं कि लड़की जीवन भर साथ निभाने की योग्यता रखती है अथवा नहीं। तलाक की परम्परा को अच्छा नहीं मानने वालों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है लेकिन जिनकी सोच नहीं बदली है, उनके लिए तीन तलाक पर कानून बनाना ही एक मात्र रास्ता बचा है। (हिफी)