विवाह महिला-पुरुष के कानून, सामाजिक और धार्मिक रूप से एक साथ रहने को मान्यता प्रदान करता है।सम्पूर्ण दुनिया में फरवरी के दूसरे रविवार को विश्व विवाह दिवस के रूप में मनाया जाता है और पति-पत्नी के आपसी संबंधों को नयी ताजगी एवं सुदृढ़ता देने का प्रयास किया जाता है। पति-पत्नी के रिश्तों में रस भरा रहे, इसके लिये इस दिन को उत्सवमय बनाकर उसमें प्यार, प्रणय एवं सौहार्द भरने का प्राणवान संकल्प लिया जाता है।। ‘विवाह शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से दो अर्थों में होता है। इसका पहला अर्थ वह क्रिया, संस्कार, विधि या पद्धति है जिससे पति-पत्नी के स्थायी-संबंध का निर्माण होता है। मनुस्मृति के अनुसार विवाह एक निश्चित पद्धति से किया जाने वाला, अनेक विधियों से संपन्न होने वाला तथा कन्या को पत्नी बनाने वाला संस्कार है। विवाह का दूसरा अर्थ समाज में प्रचलित एवं स्वीकृत विधियों द्वारा स्थापित किया जानेवाला दांपत्य संबंध और पारिवारिक जीवन भी होता है। इस संबंध से पति-पत्नी को अनेक प्रकार के अधिकार और कर्तव्य प्राप्त होते हैं। इससे जहाँ एक ओर समाज पति-पत्नी को कामसुख के उपभोग का अधिकार देता है, वहाँ दूसरी ओर पति को पत्नी तथा संतान के पालन एवं भरणपोषण के लिए बाध्य करता है। हिन्दुस्तान की संस्कृति में विवाह को ‘पाणिग्रहण’ की संज्ञा दी गई है। विवाह संस्कार के पीछे मानसिकता यह थी कि जिसका हाथ एक बार पकड़ लिया उसका साथ आजीवन नहीं छोडऩा।
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दुनिया के लिये भारत का विवाह आदर्श इसलिये माना गया है क्योंकि हमारे यहां विवाह प्रकाश का दूसरा नाम है। समस्याओं से मुक्ति एवं अंधेरों में उजालों के लिये विवाह के बंधन में बंधकर जीवन को रोशन किया जाता है। यही विवाह की सार्थक यात्रा का सारांश है। हमारे यहां दाम्पत्य का सुख मिलकर भोगा जाता हैं तो उसमें आने वाली परेशानियों को भी मिलकर ही निपटाया जाता है। साथी से प्यार करते हैं, तो उसके काम से भी प्यार किया जाता है। मानव-समाज में विवाह की संस्था के प्रादुर्भाव के बारे में अनेक तरह की बातें प्रचलित है। मानव समाज की आदिम अवस्था में विवाह का कोई बंधन नहीं था, सब नर-नारियों को यथेच्छित कामसुख का अधिकार था। महाभारत में पांडु ने अपनी पत्नी कुंती को नियोग के लिए प्रेरित करते हुए कहा था कि पुराने जमाने में विवाह की कोई प्रथा न थी, स्त्री पुरुषों को यौन संबंध करने की पूरी स्वतंत्रता थी। कहा जाता है, भारत में श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम विवाह की मर्यादा स्थापित की। चीन, मिस्र और यूनान के प्राचीन साहित्य में भी कुछ ऐसे उल्लेख मिलते हैं। इनके आधार पर लार्ड एवबरी, फिसोन, हाविट, टेलर, स्पेंसर, जिलनकोव लेवस्की, लिय्यर्ट और शुत्र्स आदि पश्चिमी विद्वानों ने विवाह की आदिम दशा कामचार की अवस्था मानी। क्रोपाटकिन व्लाख और व्रफाल्ट ने प्रतिपादित किया कि प्रारंभिक कामचार की दशा के बाद बहुभार्यता (पोलीजिनी) या अनेक पत्नियाँ रखने की प्रथा विकसित हुई और इसके बाद अंत में एक ही नारी के साथ पाणिग्रहण करने का नियम प्रचलित हुआ। विवाह एवं परिवार दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं। स्त्री-पुरुष के यौन-संबंधों से उत्पन्न संतान को सुरक्षित बनाए रखने की चिंता ने इनको जन्म दिया है। यदि पुरुष यौन-संबंध के बाद पृथक् हो जाए, गर्भावस्था में पत्नी की देखभाल न की जाए, संतान उत्पन्न होने पर उसके समर्थ एवं बड़ा होने तक उसका पोषण न किया जाए तो मानव जाति का अवश्यमेव उन्मूलन हो जाएगा। अत: आत्मसंरक्षण की दृष्टि से विवाह और परिवाररूपी संस्था की उत्पत्ति हुई है।
यह केवल मानव समाज में ही नहीं, अपितु मनुष्य के पूर्वज समझे जानेवाले गोरिल्ला, चिंपाजी आदि में भी पाई जाती हैं। वैयक्तिक दृष्टि से विवाह पति-पत्नी की मैत्री और साझेदारी है। दोनों के सुख, विकास और पूर्णता के लिए आवश्यक सेवा, सहयोग, प्रेम और नि:स्वार्थ त्याग के अनेक गुणों की शिक्षा वैवाहिक जीवन से मिलती है। नर-नारी की अनेक आकांक्षाएँ विवाह एवं संतान-प्राप्ति द्वारा पूर्ण होती हैं। उन्हें यह संतोष होता है कि उनके न रहने पर भी संतान उनका नाम और कुल की परंपरा अक्षुण्ण रखेगी, उनकी संपत्ति की उत्तराधिकारिणी बनेगी तथा वृद्धावस्था में उनके जीवन का सहारा बनेगी। हिंदू समाज में वैदिक युग से यह विश्वास प्रचलित है कि पत्नी पति का आधा अंश है, पति (पुरुष) तब तक अधूरा रहता है, जब तक वह पत्नी (स्त्री) प्राप्त करके संतान नहीं उत्पन्न कर लेता।एजेन्सी।