प्रतिष्ठित परिवार में 14 जनवरी 1905 को पैदा हुईं दुर्गा खोटे का शुरुआती जीवन सुखमय नहीं रहा और मात्र 26 साल की उम्र में ही उनके पति का निधन हो गया। दुर्गा खोटे का बचपन तो सामान्य रूप से कटा लेकिन अपनी पसन्द से विवाह के बाद भी उनका घरेलू जीवन बहुत ही कठिन व दुख से भरा रहा। अपने पति की ओर से बेहद परेशान रही दुर्गा को जो कुछ खुशी मिली, वह अपने बच्चों से ही मिली। पति के निधन के बाद दुर्गा खोटे पर दो बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी भी आ गई थी। ऐसे में उन्होंने फि़ल्मों की राह ली। उस दौर में बहुधा पुरुष ही महिलाओं की भूमिका निभाते थे और अधिकतर घरों में फि़ल्मों को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था। दुर्गा खोटे फि़ल्मों के दौर में ही फि़ल्मों में आ गई थी और ‘फरेबी जाल उनकी पहली फि़ल्म थी। बतौर मूक नायिका’अयोध्येचा राजा उनकी पहली फि़ल्म थी जो मराठी के साथ साथ हिंदी में भी थी। यह फि़ल्म कामयाब रही और दुर्गा खोटे नायिका के रूप में सिनेमा की दुनिया में स्थापित हो गईं। दुर्गा खोटे की कामयाबी ने कइयों को प्रेरित किया और हिंदी फि़ल्मों से जुड़ी सामाजिक वर्जना टूटने लगी। दुर्गा खोटे ने एक और पहल करते हुए स्टूडियो व्यवस्था को भी दरकिनार कर दिया और फ्रीलांस कलाकार बन गई। स्टूडियो सिस्टम में कलाकार मासिक वेतन पर किसी एक कंपनी के लिए काम करते थे। लेकिन दुर्गा खोटे ने इस व्यवस्था को अस्वीकार करते हुए एक साथ कई फि़ल्म कंपनियों के लिए काम किया। दुर्गा खोटे के फि़ल्मों में काम करने से पहले पुरुष ही स्त्री पात्र भी निभाते थे। हिन्दी फि़ल्मों के पितामह दादा साहेब फाल्के ने जब पहली हिन्दी फीचर फि़ल्म राजा हरिश्चंद्र बनायी तो उन्हें राजा हरिश्चंद्र की पत्नी तारामती का किरदार निभाने के लिए कोई महिला नहीं मिली। उन्हें मजबूर होकर एक युवक सालुंके से यह भूमिका करानी पडी। इस स्थिति को देखकर दुर्गा खोटे ने फि़ल्मों में काम करने का फैसला किया और उनके इस कदम से सम्मानित परिवारों की लड़कियों के लिए भी फि़ल्मों के दरवाज़े खोलने में मदद मिली।
उन्होंने 1931 में प्रभात फि़ल्म कम्पनी की मूक फि़ल्म ‘फरेबी जाल में छोटी सी भूमिका से अपने फि़ल्मी कैरियर की शुरुआत की लेकिन उनका अनुभव अच्छा नहीं रहा और फि़ल्मों से उनका मोहभंग हो गया था। वह शायद फिर फि़ल्मों में काम नहीं करतीं लेकिन निर्माता-निर्देशक वी. शांताराम ने उन्हें मराठी और हिन्दी भाषाओं में बनने वाली अपनी अगली फि़ल्म ‘अयोध्येचा राजा 1932, में रानी तारामती की भूमिका के लिए किसी तरह मना लिया। उन्होंने इस काम के लिए फि़ल्म के नायक गोविंदराव तेम्बे की मदद ली। कहा जाता है कि तेम्बे शांताराम बापू के साथ दुर्गा खोटे के घर इतनी बार गए कि उनका रंग काला पड गया और लोग कहने लगे थे कि उन्हें ‘अयोध्येचा राजा कहा जाए या ‘अफ्रीकाचा राजा बोला जाए। मराठी की इस पहली सवाक् फि़ल्म की जबरदस्त कामयाबी के बाद दुर्गा खोटे ने फिर पलट कर नहीं देखा। प्रभात फि़ल्म कंपनी की ही 1936 में बनी ‘अमर ज्योति से वह सुर्खियों में आ गयीं। 1934 में कलकत्ता की ईस्ट इंडिया फि़ल्म कंपनी ने ‘सीता का निर्माण किया, जिसमें उनके नायक पृथ्वीराज कपूर थे। देवकी कुमार बोस निर्देशित इस फि़ल्म में उनके दमदार अभिनय ने उन्हें शीर्ष अभिनेत्रियों की कतार में खडा कर दिया। वह भारतीय अभिनेत्रियों की कई पीढियों की प्रेरणास्रोत रहीं। इनमें शोभना समर्थ जैसी नायिकाएं भी शामिल थीं जो बताया करती थीं कि किस तरह दुर्गा खोटे से उन्हें प्रेरणा मिली। हिंदी फि़ल्मों में उन्हें मां की भूमिका के लिए विशेष रूप से याद किया जाता है। फि़ल्मकार के. आसिफ की बहुचर्चित फि़ल्म मुग़ल ए आजम में जहाँ उन्होंने सलीम की मां जोधाबाई की यादगार भूमिका निभाई वहीं उन्होंने विजय भट्ट की ‘भरत मिलाप में कैकेई की भूमिका को भी जीवंत बना दिया। बतौर मां उन्होंने चरणों की दासी, मिर्जा गालिब, बॉबी, विदाई जैसी फि़ल्मों में भी बेहतरीन भूमिका की। प्रभात कंपनी की ही ‘माया मछिन्द्र 1932 में दुर्गा खोटे ने बहादुर योद्धा की भूमिका निभायी। इसके लिए उन्होंने योद्धा के कपडे पहने, हाथ में तलवार पकडी और सिर पर शिरस्त्राण पहना। फि़ल्म के एक दृश्य में एक बाज ने एक चरित्र अभिनेता पर सचमुच हमला कर दिया तो दुर्गा खोटे ने उसे पकड लिया और उसे तब तक काबू में किए रखा जब तक उसका प्रशिक्षक नहीं आ गया। इस तरह की भूमिकाओं ने दूसरी अभिनेत्रियों के लिए भी मार्ग प्रशस्त करने का काम किया। अभिनय के अलावा दुर्गा खोटे ने लंबे समय तक लघु फि़ल्में, विज्ञापन फि़ल्में, वृत्त चित्रों और धारावाहिकों का भी निर्माण किया। दुर्गा खोटे ने 1937 में ‘साथी नाम की फि़ल्म का निर्माण और निर्देशन भी किया।
दुर्गा खोटे को हिंदी सिनेमा में उल्लेखनीय योगदान के लिए 1983 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1958 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला। 1968 में पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया।विदाई में बेहतरीन अभिनय के लिए उन्हें 1974 में सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का फि़ल्मफेयर पुरस्कार दिया गया। दुर्गा खोटे ने अपनी आत्मकथा (मी दुर्गा खोटे) भी लिखी जिसकी व्यापक सराहना हुई। मूल रूप से मराठी भाषा में लिखी आत्मकथा का अंग्रेज़ी में भी अनुवाद हुआ है।
सिनेमा जगत में महिलाओं की स्थिति मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली इस हस्ती का 22 सितंबर 1991 में निधन हो गया। हिंदी एवं मराठी फि़ल्मों के अलावा रंगमंच की दुनिया में कऱीब पांच दशक तक सक्रिय रहीं दुर्गा खोटे अपने दौर की प्रमुख हस्तियों में थी जिन्होंने फि़ल्मों में महिलाओं की राह सुगम बनाई।एजेन्सी।