पुण्य तिथि पर विशेष-हेमवती नंदन बहुगुणा को तब आखिरी बार देखा था। उत्तरकाशी से कुछ पहले उनकी कार रुकी। वह बाहर निकले। फिर कहने लगे, आज यूं ही थोड़ा टहलने की इच्छा हो रही है। साथ में चल रही दूसरी कारों को भी उन्होने रुकवा दिया। वह एक-दोनो लोगों को साथ लेकर वह अपनी आदत के विपरीत बहुत धीरे-धीरे चलने लगे। आमतौर पर वह बहुत तेज चला करते थे। मुख्य सड़क के एक ओर हरे-भरे पेड़ों का घना साया था। उसी साये के साथ-साथ वह चलते-चलते कुछ दूर तक निकल गए। करीब आधे-पौन घंटे बाद कार को चलाने का इशारा हुआ।
उन्हे जब भी देखा, लोगों से घिरा देखा। लेकिन उस समय वह शायद नितांत अकेलापन चाह रहे थे। हिमालयी क्षेत्र के प्रति उनमें गहरा अनुराग था। एक तरह से उन क्षणों में मौन रहकर वह प्रकृति के साथ एकाकार हो रहे थे। कुछ देर में सब मिले तो कहने लगे, बहुत दिनों से इच्छा थी, इन जंगलों में कुछ देर टहलूं। राजनीति की विवशता से ऐसे क्षण मुश्किल से मिले हैं। आज एकाएक मन हुआ तो बाहर निकल पड़ा। उस समय वह जिस तरह बातें कर रहे थे, इस तरह उन्हे कभी पाया नहीं था। थोड़ी ही देर में उनकी और साथ में चली रही चार-पांच कारें उत्तरकाशी की तरह चल पड़ी। एक बार वह फिर अपनी चिरपरिचित शैली में थे। इसके कुछ ही देर बाद अमेरिका से उनके निधन की खबर सुनने को मिली थी।
अब केवल उनकी स्मृतियां हैं। यह बात हमेशा मन में कौंधती है कि कैसे एक अनजाने से बुघाणी गॉव से निकले एख युवक ने भारतीय राजनीति में अपनी अलग पहचान बनाई होगी। यह उनकी विलक्षण प्रतिभा ही थी कि इलाहाबाद विश्वविधालय के मेघावी छात्र ने उन्हे अपना अध्यक्ष बनने के लायक माना। उनका संघर्ष लंबा हैं। यह बहुगुणा ही थे। जिन्हे पकड़ने के लिए अंग्रेज सरकार ने इनाम भी रखा हुआ थ। बहुत जटिल और विपरीत परिस्थितियों में वे अपने को निखारते गए। संभलते गए। इलाहाबाद के तमाम यूनियनों , संगठनों में रहकर अपनी राजनीति को मांजा। बाद में देश-दुनिया ने उन्हे कुशल प्रशासक, ओजस्वी वक्ता और प्रखर जननेता के तौर पर जाना। कई नेताओं ने उनके तेवर को अपनाने की कोशिश की, लेकिन उनके जैसा बनना आसान न था। इसके लिए गहरी दृष्टि और संवेदना चाहिए थी। उनकी संगत में रहने वाले जानते थए कि रह-रह कर वह पूरे दिन में कितना पढ़-लिख लेते थे। वह अपने भाषण में यू हीं नहीं कहते थे कि पहाड़ों की बात कर रहा हूं तो कोसी की बाढ़ प्रभावित इलाकों का भी ध्यान है।
राजनीति की महीन डगर पर चलते हुए उनकी गति कहीं धीमी जरूर हुई हो, लेकिन अपनी गरिमा को उन्होने कभी नहीं खोया। पौड़ी लोकसभा का उपचुनाव जीतने पर भी उनकी टिप्पणी संयत भरी थी तो 1984 के लोकसभा चुनाव में इलाहाबाद की पराजय को सहजता से स्वीकारना उनके व्यक्तित्व में था। हालांकि उस पराजय ने उन्हे निराश किया था। पर वह फिर से खड़े होने के लिए संघर्ष कर रहे थे। स्वास्थ्य ने साथ दिया होता तो वह थमने वालों में नहीं थे।
राजनेताओं के व्यक्तित्व लिखने में हमेशा संकोच का भाव रहता है। किसी बड़े नेता के व्यक्तित्व या उनकी जीवन शैली पर लिखी हुई बातों को किसी भी तरह से लिया जा सकता है। यहां बहुगुणा को याद करने के पीछे यही कसक है कि बदले हुए समय में हम ऐसे किसी जन-नेता को अपने पास क्यों नहीं पा रहे हैं? राजनीतिक विरोध तो उनका भी था उनकी धारा से जुड़ने वाले और उनके धुर आलोचक तब भी थे। लेकिन उनमें कुछ ऐसी बात थी कि दलगत और वैचारिक विरोधों के बावजूद लोग उन तक खिंचे चले आते थे। उनसे खुल कर बातें करते थे। उनसे खुल कर बातें करते थे। लोगों ने उनके करीब जाकर कभी ऐसा अनुभव नहीं किया कि वह किसी ऐसे बड़े नेता से मिलकर रहे हैं, जिससे थोड़ी दूरी बनाकर मिलना है। लखनऊ का मुख्यमंत्री आवास हो या फिर पांच सुनहरी बाग या दिल्ली की लोधी रोड लोगो के लिए ये सारी आवाजाही के स्थल थए, जहां उनसे मिलने वाले आसानी से आ-जा सकते थे। षीर्ष राजनीति में रहकर उनकी-सी आत्मीयता अब नजर नहीं आती। लोग उनके पास जाकर बहुत सहजता से बातें कर सकते थे। यहां तक कि लोग उनके अपनी समस्या को लेकर लड़-झगड़ भी लेते थे। वह बड़े गौर से सारी बातें सुनते थे। कुछ तो पास जाकर यह भी कहते थे कि आपको तो प्रधानमंत्री बनना है, लेकिन अपनेल गॉव में पानी न आने की शिकायत भी वे उतनी ही तत्परता से कर देते थे। देवरिया पथरदेव, श्रावस्ती, पडरौना, गोपेश्वर, अल्मोड़ा हर जगह के लोगों से वह घिरे रहते थे। कभी पहाड़ी बोलते तो कभी ठेठे अवधी। उर्दू पर भी अच्छा-खासा अधिकार था।
उन्होने विषम परिस्थितियों में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री के पद की जिम्मेदारी को संभाला था। हड़तालें चल रही थीं। छात्र जीवन की राजनीति और कर्मचारी संगठनों में बने रहने का कौशल और बाद का अपना राजनीतिक तजुर्बा सब काम आया। सब कुछ संभलने लगा। वह छा गए। कहते हैं कि सोवियत संघ से आया एक प्रतिनिधिमंडल जब इंदिरा गांधी से मिला तो उन्होने आग्रह करके कहा था कि कृप्या बहुगुणा से मिलने का भी इंतजाम करा दें। करीब ढ़ाई साल के अंतराल में वे ऐसे मुख्यमंत्री बन गए जिनकी अपनी शोहरत थी। राजनीति के हर मंच पर वह था रहे थे। यह उनका ही साहस था कि मुख्यमंत्री आवास पर इफ्तार पार्टियां भी होने लगीं। चर्चा तो यह भी थी कि इंदिरा गांधी तब चौंक गई थीं कि इस तरह राजनीतिक स्तर पर इफ्तार पार्टी के आयोजन से कहीं कोई झमेला खड़ा न हो जाए। तब बहुगुणा ने भी फोन पर कहा था, कल आप प्रशंसा पाएंगे, आलोचना नहीं। उनहे विभिन्न विषमों की जानकारी रहती थी। लखनऊ के पुराने लोग बताते थे कि बहुगुणाजी मुख्यमंत्री थे तो समय-समय पर शास्त्रीय संगत के आयोजनों में भी जाते थे, मुशायरे तो उन्हे खासे पसंद थे।
अमूमन थोड़ा शिकायती लहजे में कहा जाता है कि बहुगुणा राजनीति के शीर्ष स्तर पर रहने पर भी पहाड़ों के लिए बहुत कुछ नहीं कर पाए। लेकिन यह भी जानना चाहिए कि दुनिया में शायद उत्तर प्रदेश का पहाड़ी इलाका ही ऐसा था, जिसके लिए अलग से एक पर्वतीय विकास मंत्रालय बनाया गया था। शिक्षकों के स्तर को उठाने में उनकी कोशिशों को देखा जाना चाहिए। शायद यह भी कहना चाहिए कि केंद्रीय पेट्रोलियम रसायन मंत्री के बतौर उस समय प्राथमिकता के तौर पर पहाड़ों के घरों में गैस पहुंचाने के लिए उन्होने हिचक नहीं दिखाई। तब भी इतना कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय राजनीति की व्यस्तताओं के कारण वह पहाड़ों को उतना वक्त नहीं दे पाए। खासकर कुमाऊं में उनकी सक्रियता कम रही। फिर वह दौर भी ऐसा था कि राष्ट्रीय राजनीति करने वाले अपने खास क्षेत्रों तक सिमित नहीं रहते थे। तब एक खास संसदीय क्षेत्र पर ध्यान देकर देश की राजनीति नहीं की जाती थी। बहुगुणा बेशक पहाड़ों के रहे हों, लेकिन उन्होने अपने दायरे को फैलाया। इसलिए वह अगर जोशीमठ में स्वीकार्य थे तो वह इलाहाबाद, लखनऊ, गोंडा, बस्ती, आजमगढ़ हर जगह लोगों में उनकी पैठ थी। वह वहां के जन-जीवन से ही नहीं जुड़े थे, इन इलाकों की बोलियां भी समझते थे। वह राजनीति के धुरंधर माने गए। लेकिन वह विद्वानों, लोक कलाकारों, वैज्ञानिकों का भी बेहद सम्मान करते थे। आप यह जानकर चौंक सकते हैं कि मुख्यमंत्री बनने के बाद एकदम शुरुआती फैसले में उन्होने महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, डॉ हरिवंश राय बच्चन आदि बड़े कवियों पर एक वृत्तचित्र बनाने का आदेश दिया था।
उनकी मेधा को तब समझा जा सकता था जब वे अस्सी के दशक में श्रीनगर गढ़वाल विश्वविधालय में प्रख्यात चित्रकार मोलाराम तोमर की प्रतिमा का अनारण करने पहुंचे थे। तब उन्होने दुख जताया था कि कई लोगों को यह पता नहीं है कि यह प्रतिमा किस व्यक्ति की है, और उनकी प्रतिमा क्यों लगाई जा रही है। उनका क्या योगदान है? उन्होने मोलाराम तोमर के बारे में इतनी खूबसूरती से कहा कि लग रहा था कि एक राजनेता नहीं, एक चित्रकार किसी दूसरे चित्रकार के बारे में कुछ कह रहा है। आज के राजनेताओं से आप इसकी कम ही अपेक्षा कर सकते हैं। कुछ समय बाद बहुगुणा को फिर गढ़वाल विश्वविधालय के छात्रों के बीच पाया था। नए छात्र संघ ने उन्हे अपने समारोह में आमंत्रित किया था। मंच पर कई लोग थे। कईयों के भाषण हुए। खासकर छात्र नेता खासे उत्साहित थे। अपनी बातें बहुगुणा के समक्ष रख रहे थे। बहुगुणा के साथ आए एक नेता ने समय का ध्यान दिलाया तो उन्होने हाथ के इशारों से उन्हे रोका और कहा, इन्हे अपनी बात कहने दो, मुझे कोई जल्दी नहीं, मैं सुनना चाहता हूं। और बड़े धैर्य के साथ वह सुनते रहे। काफी देर बाद उन्हे कुछ कहने के लिए आमंत्रित किया गया तो उन्होने कहा कि मैं छात्रों को बोलते हुए देखना चाहता था। ये इसी तरह सीखेंगे। अजब यह था कि उन्होने अपने भाषण में किसी संदर्भ में न्यूटन के सिद्धांत को भी अपने भाषण से जोड़ा था और छात्रों को नसीहत भा दे दी थी कि शहर के कोतवालजी का बहुत सम्मान करते हो, पर यह जो वनस्पति शास्त्र के वैज्ञानिक प्रोफेसर उनकी बगल में बैठे हैं, क्या कभी इनसे भी दुआ-सलाम करने की कोशिश की? क्या उनसे मिलने भी जाते हो? बहुगुणा प्रखर वक्ता थए और ऐसे राजनेता कम देखने में आए जो अपने भाषण में छात्रों को बहुत कुछ सिखा भी दें। उनकी बातों में अनायास ही बहुत सी चीजें जानने को मिल जाया करती थी। एक बात याद आती है। रुद्रप्रयाग में वह अपने भाषण में बताने लगे कि अपने छात्र जीवन में उन्होने अंग्रेजी कैसे सिखी। उन्होने बताया था कि वह रोज दो या तीन अनुवाद जरूर किया करते थे। राजनीति के मंच पर यह बात कुछ अलग लग सकती है, पर बाद में किसी ने पुछा, बहुगुणाजी आज अंग्रेजी सीखने की बात कैसे याद आई। उन्होने कहा, यह सुनकर अगर बीस-पच्चीस लड़कों ने भी अनुवाद कर अंग्रेजी सीखनी शुरू कर दिया तो मेरी बात का मतलब रहेगा। आज भी याद आती है उनकी बातें, जब उन्होने कहा था यह मत कहना कि पहाड़ों को उनकी वजह से जाना जाता गया। पांडवों से क्या उन्होने कहा था कि हिमालय के रास्ते स्वर्ग में जाना। उनकी याददाश्त जबरदस्त थी। एक बार वह जिससे मिल लें, उसे फिर शायद ही भूलते थे। पहाड़ो में भी अपनी जनसभा और बैठकों के लिए आते तो यहॉ-वहॉ लोगों को उनके नामों से पुकारते। किसी ने उनसे कुछ कहा हो तो उसे याद रखते थे। लंबे अंतराल के बाद वह उसी व्यक्ति से वह बात दोहरा सकते थे। कई बार तो यह भी होता था कि कहने वाला तो भूल जाए पर बहुगुणा को बातें याद रहती थीं। वह उससे एकाएक पूछ सकते थे कि क्या वह काम हो गया था। कहा जाता था कि बहुगुणा की स्मृति भगवान की देन है। पर वह स्वयं कहते थे कि यह ईश्वर की देन होगी,पर अगर मन से मिल लो और दिल से किसी की बात सुन लो तो आप किसी को भूल नहीं सकते। बातें याद रहती हैं। उन्हें यह पता रहता था कि पिछली बार किस गॉव के लोग क्या समस्या लेकर उनके पास आए थे। वह उस बारे में रिपोर्ट जरुर लेते थे। स्थानीय विधायकों,नेताओं और समर्थकों के साथ बातचीत में राजनीति का कर्म भी साथ-साथ चलता रहता था। कहीं कुछ अवरोघ नहीं आता था। सब कुछ सुलझाते हुए चलते थे।
हेमवती नंदन बहुगुणा ने जमीन से जुड़कर राजनीति की थी।वे छोटी-छोटी बातों का ख्याल रखते थे। मुझे याद है कि पौड़ी लोकसभा का उपचुनाव जीतने के बाद उन्होंने बुघाणी की ओर जाने लगे तो उनकी बहन दुर्गादेवी भी साथ में थीं। उनकी वजह से मैं भी कार में जगह पा गया। रास्ते में बुघाणी से कुछ पहले उन्होंने ड्राइवर से कार में रुकवाई और कहा,जरा रोको,दो-तीन बच्चे आ रहे हैं। बहन ने भाई से कहा कि गॉव में देर हो जाएगी,इन छोटे बच्चों के लिए क्या रुक गए हो। वह अपनी बहन को दुर्गा दीदी कहा करते थे। इसी संबोधन से उन्होंने कहा,दुर्गा दीदी, तुम्हें नहीं मालूम, ये बच्चे मुझसे मिलने आते हैं अभी देखना नारे भी लागाएंगे। कुछ देर में बच्चे आए, उनसे बातें करने लगे। गॉव और आसपास की बातें हुईं। फिर नारे भी लगे ‘बहुगुणा देश का बाजू है, चुनाव चिह् तराजू है। हालांकि उस समय चुनाव हो गए थे, लेकिन उन स्कूली बच्चों के लिए इस नारे की अलग अहमियत थी। तब वहॉ पर न तो टीवी कैमरा था, न कोई कार्यकर्ता बहुगुणा, उनकी बहन,कार का ड्राइवर,शायद निर्मोही भी थे। पीछे से आ रही कारों में बैठे लोगों को पता भी न चला,बहुगुणा वहॉ पर थोड़ी देर क्यों रुक गए।
वे उ.प्र. के अलग-अलग इलाकों की बोलियॉ भी समझते थे और उसमें अधिकार से बात भी कर लेते थे। पहाड़ों पर आते तो उनके धाराप्रवाह भाषण के बीच में कहीं से यह आवाज जरूर उठती कि बहुगुणाजी पहाड़ी में भी कुछ बोलिए। फिर एक क्षण रुककर वह कुछ बातें पहाड़ी में भी कहते। खासकर पहाड़ी लोक मुहावरे में बातें करते। लोगों को अच्छा लगता कि एक बड़ा राष्ट्रीय नेता इस पहाड़ से है और उनके बीच में हैं। जगह-जगह के लोगों में उनकी पैठ थी। वह वहॉ के जन-जीवन से ही नहीं जुड़े थे, इन इलाकों में उन लोगों से उनकी बोली में बात भी कर लेते थे। पहाड़ो में जब आते थे तो पूरे शहर-कस्बों में कार्यकर्ता जीप पर माइक लगाकर उनके आगमन की सूचना देते थे। लोग उन्हें सुनना चाहते थे, अपने बीच देखना चाहते थे। पहाड़ो में ही नही,मेरठ,खतौली, मुजफ्फरनगर से होती हुई उनकी कार गुजरती तो रास्तों में जगह-जगह उनका स्वागत होता। पहाड़ों में आते ही लोगों में जोश-खरोश नजर आता। अगर माहौल चुनाव का हो तो बात ही अलग। उत्साही कार्यकर्ता नारे लगाते। यह जुमला भी साथ-साथ चलता कि क्या किया है बहुगुणा ने पहाड़ों के लि।
बहुगुणा राजनीति में जितनी ऊंचाई पर थे,उसी तरह उनका विरोध भी कई संदर्भों में होता था। यह कहा जाता है कि बहुगुणा ने मुस्लिम राजनीति के तुष्टीकरण का खूब जतन किया। लेकिन भारतीय राजनीति नब्बे के बाद जितने हिचकोले खाती रही है, जाति-सप्रंदाय के नाम पर जितनी खाइयॉ पैदा की गई,उसमें अगर पीछे मुड़कर देखें तो आप कहीं भी उनका कोई अप्रिय संवाद नहीं पाएंगे। शायद उनकी कोई ऐसी कोशिश न दिखे जिससे लगे कि वह वोटों की राजनीति के लिए कोई खतरनाक खेल खेल रहे हैं। वे बेशक मुसलमानों में खासे लोकप्रिय थे। उनकी शौली सबको साथ लेकर चलने वाली थी, इसलिए लाल गलीचा बिछ जाता था। दरअसल उनकी राजनीतिक संकीर्ण नहीं,बड़े फलक वाली थी। यह जरुर है कि इससे राजनीतिक हित भी साथ-साथ सधते थे। इसलिए उन पर कुछ आरोप भी लगते रहे हों,लेकिन उनके आवास पर संघ और जनसंघ या बाद में भाजाप से प्रभावित पत्रकारों-विचारकों का भी गर्मजोशी से आना जाना रहता था।
वे एक खूंटे में नहीं बंधे थे। उन पर दल बदलने की राजनीति का आरोप लगता रहा। आपातकाल के बाद ही जगजीवन राम को साथ मिलकर उन्होंने कांग्रेस से नाता तोड़कर कांग्रेस फॉर डेमोकेसी बनाई थी। जनता पार्टी का प्रयोग विफल रहा। उन्हें फिर घर वापस बुलाया गया। वह फिर जुड़े,लेकिन तब तक कांग्रेस,संजय गांधी और उनके लोगों के हाथों में आ चुकी थी। जाहिर है कि राजनीति में बहुगुणा और फिल्म जगत में किशोर कुमार ही हो सकते थे। जो साफ कह सकते थे। कि वे किसी के इशारे पर चलने वाले नहीं। एक बार वह कांग्रेस में गए कि शायद कुछ स्थितियॉ सुधर जाएं।लेकिन तब की स्थितियों को देख उन्होंने पार्टी छोड़ना और उसका टिकट लौटाना ही उचित समझा। उनके तेवर अलग थे। उन्होंने पौड़ी लोकसभा उपचुनाव लड़ा और नारा दिया हिमालय टूट सकता है पर झुक नहीं सकता। इस चुनाव की यादें लोगों के दिलों में हैं। एक तरफ बहुगुणा,दूसरी ओर पूरी सरकार। हिमाचल,मध्यप्रदेश और हरियाणा के मुख्यमंत्री भी अपने राज्य का काम छोड़कर बहुगुणा को हराने के लिए आ गए। मगर बहुगुणा के लिए लोग राजनीतिक समर में खड़े हो गए। बस्ती,बहराइच,रांची न जाने कहॉ-कहॉ से लोग बहुगुणा के प्रचार के लिए आ गए थे। कामरेड राजेश्वर राव,हषिकेश बहादुर,अतुल अनजान सब पहाड़ों में घूम-घूम कर प्रचार कर रहे थे और उस ऐतिहासिक चुनाव में बहुगुणा ही जीते।
पर भारतीय राजनीति में बाद के घटनाक्रम में इतनी नाटकीयता और उथल-पुथल थी कि वह सियासी गालियारा ही बनाते रह गए। इलाहाबाद के चुनाव से उन्हें धक्का लगा था। सड़कों पर दुपट्टे बिछ गए और राजनीति का महारथी हार गया। उधर ग्वालियर में वाजपेयी,इधर इलाहाबाद में बहुगुणा हारे। हालांकि बाद में कुछ लोगों को मलाल हुआ। अटलजी ने एक बार श्रीनगर गढ़वाल में कहा था कि ‘मेरी हार के मायने नहीं, मैं तो एक नेता से हारा, पर बहुगुणाजी की हार बर्दाश्त नहीं हुई।
बहुत हल्के तर्कों के साथ यह कहने वाले भी मिल जाते हैं कि अस्सी के लोकसभा चुनाव के बाद इस इलाके में राजनीति का जातीय द्धेष देखने को मिला। पहली बात यह कि ऐसा नहीं हैं। अगर ऐसा है भी तो इसके लिए कांग्रेस या तराजू का चिह लेकर एक छोटी पार्टी बनाकर लड़ रहे प्रत्याशी जिम्मेदार नहीं थे। उनकी लंबी राजनीति में कहीं कोई ऐसा वक्तव्य या कथन नहीं मिलता,जिसमें जातीय दुराग्रह देखने को मिला हो। उन्होंने जातीय आग्रहों का खेल नहीं खेला। उनके साथ हर वर्ग के नेताओं,युवाकों की निष्ठा बनी रही। वह पहाड़ों की राजनीति की संकीर्णता से चलते तो राज्य और देश की राजनीति में छाना उनके लिए मुशिकल होता। बहुगुणा बहुत सावधानी से अपने को इस दलदल से बचाते रहे। उनकी राजनीति बड़े आधारों पर थी। वह धुर कांग्रेस की परंपरा में रहते थे। उनके भाषणों में नेहरु-गॉधी के प्रसंग रहते थे। तो दूसरी तरफ वामपंथी खेमा भी उन्हें अपने से दूर नहीं मानता था बल्कि पर्वतीय इलाकों में तो वामपंथी नेताओं का उनके साथ परस्पर तालमेल रहता था।यहॉ तक कि वामपंथियों को छोटे-बड़े चुनाव जीतने के लिए बहुगुणा की सभाओं की जरुरत पड़ती थी। राजनीति में वैचारिक लड़ाइयों से हटकर उनका अपने दौर के सभी कद्वार नेताओं से व्यक्तिगत परिचय था। उस समय जिन नेताओं को बहुगुणा ने प्रश्रय दिया, उनमें कई आज राजनीति में अपना खासा मुकाम बनाए हूए हैं। मुलायम सिंह आज भारतीय राजनीति की धुरी हैं,लेकिन तबके नए युवा मुलायम को बहुगुणा ने पहले पहचान लिया था।
1984 में उन्हें संसद में पहुंचना चाहिए था । बहुगुणाजी आगे जितना लड़ सकते थे,लड़े । लेकिन नियति के आगे कुछ नहीं हो सकता। उन्हें चाहने वाले लोगों के मन में एक सपना था कि एक दिन बहुगुणाजी प्रधानमंत्री बनेंगे। वह अधूरा ही रहा। यह कसक उनके मन मे है। उत्तराखंड मिलने के बाद तो नेताओं की भरमार हैं। कई लोग बड़े हौसलों के साथ राजनीति मे आए हैं। जीत भी रहे है,हार भी रहे हैं। लेकिन पहाड़ों की पथराई ऑखों को बहुगुणा जैसे नेता की तलाश है। कहीं अहंकार है,कहीं अशिक्षा,कहीं सोच की कमी,कहीं अपने सीट को बचाने की चिंता,कहीं धनकुबेर हो जाने की प्रलब इच्छा। पर बहुगुणा के संघर्ष बहुत अलग थे। उन्होंने बड़ी राजनीति में प्रभाव बढ़ाया जाता है। अगर होते तो वह भी राजनीति की बैसाखियों पर चलते। वह कहते थे, ईश्वर की इच्छा थी कि इंदिरा के जन्म के ठीक एक साल बाद मैं भी इस दुनिया में आया।शायद उसकी इच्छा यही रही हो,मैडम कहीं कोई गलत फैसला लेंगी तो बहुगुणा उसका विरोध करने का साहस कर सकेगा।उनके भाषणों में व्यंग्य का पुट भी रहता था और उनमें श्रोताओं को बांधने की गजब शौली थी । ऐसा कभी नहीं पाया कि वह आक्रोश में कोई बात कह रहे हों या हल्के संवादों का सहारा ले रहे हों। अपने समकालीन नारायण दत्त तिवारी को वह अपना अनुज और ‘लक्ष्मण’कहते थे। अगर कुछ कहना ही हो तो इस तरह कह देते थे,’उस लक्ष्मण ने तो वन में जाकर भी राम की सेवा की।उनको आदर दिया। पर हमारे लक्ष्मण कब,कहॉ छोड़ देते हैं, पता ही नहीं चलता। राजनीति में उन्होंने भी दल बदले ,नई पार्टियॉ बनाई। लेकिन भारतीय राजनीति में अस्सी के बाद जिस तरह घटनाक्रम चला है, उसमें इस तरह की परिस्थितियॉ उत्पन्न हुई है। बेशक इसमें स्थायित्व नहीं था। शायद इसलिए भी वह लगातार कमजोर होते चले गए। अपने जनाधार के लिए उन्होंने सुदूर मुंबई में भी अपनी पार्टी का सम्मेलन कराया था। उनके इस कदम ने सबको चौंकाया था। आखिर मुंबई में डेरा क्यों डाला। तब कई लोग मजाक में कहते थे,बहुगुणा जी ने कार्यकर्ताओं को घुमाने के लिए मुंबई में डेरा क्यों डाला। तब कई लोग मजाक में कहते थे, बहुगुणा ने किस तरह सालों पहले महसूस कर लिया था।
उन्होंने कभी जीते जी उत्तराखंड जैसे राज्य की परिकल्पना पर ज्यादा कुछ नहीं कहा। लेकिन पहाड़ों के विकास को लेकर उनका एक सपना था। वह जब कभी श्रीनगर आते थे तो कहते थे,यह शहर तो पेरिस की तरह बनना चाहिए। एक बार मुंबई के षणामुखानं हाल में मैंने उनसे पूछा था कि वह अक्सर श्रीनगर को पेरिस बनाने की बाते करते है, आखिर पेरिस जैसा ही क्यों। उनका जवाब था कि पेरिस के भी बीचों-बीच साइन नदी बहती है। अलकनंदा भी यहॉ कुछ इसी तरह लगती है। पर इससे बढ़कर यह बात है। कि श्रीनगर की ख्याति एक कला-संस्कृति के संरक्षण के लिए बहुत काम किया है। उन्हें अपनी संस्कृति-सभ्यता से बहुत गहरा लगाव है। मैं चाहता हूं कि श्रीनगर में भी इस दिशा में काम हो।इसके लिए हम सबको प्रवाय करना होगा।
पहाड़ों को लेकर उनका अपना नजरिया था,चिंतन था। उनके मन में शायद यह कसक थी कि वह अपने इस क्षेत्र को उतना समय नहीं दे पाए,जितना दे सकते थे। युवावस्था अंग्रेजों से संघर्ष और छात्र राजनीति में गुजर गई। बड़े हुए तो कांग्रेस पार्टी की जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ गया। वह रह-रह कर पहाड़ों पर आते थे,लोगों से हर पक्ष पर बात करते थे,राय लेते थे। लेकिन वह पहाड़ों के होकर नहीं रहे। अगर रहते तो उनका फलक इतना बड़ा कैसे होता। फिर भी वे इतना कुछ योगदान दे चुके हैं कि उस पगड़डी पर चलना दूसरे राजनेताओं के लिए कसौटी है। नेहरु टोपी पहने और झक सफेद कुर्ता और कभी शेरवानी पहने उनकी अलग छवि मन में उभरती है।
अस्सी के चुनाव की जिसे थोड़ी-सी याद हो अहसास होगा कि राजनीति में बहुगुणा की ऑच क्या थी। किस तरह चार राज्यों के मुख्यमंत्री ,उन्हें हराने के लिए अपने-अपने राज्य को छोड़कर पहाड़ों में डेरा डाले हुए थे। किस तरह स्वयं इंदिराजी का हेलीकॉप्टर पहाड़ों के लिए उड़ा था। किसी एक नेता को हराने के लिए इतनी कवायद नहीं की जा सकती अगर वह असाधारण न हो। पत्रकार वेद विलास उनियाल की पुस्तक ‘सुन मेरे बंधु’ से साभार