कुंठाग्रसित मोदी सरकार एक बड़े साज़िश के तहत एन-केन-प्रकारेण विगत दो वर्षों से लगातार इन को कोशिशों में लगी है कि किसी भी तरह से स्वतंत्रता आंदोलन के वक़्त महापुरुषों के द्वारा दी गई कुर्बनियों को नयी पीढ़ी के सामने अर्थहीन बना सके, चाहे इसके लिए इतिहास के पन्नों को ही क्यों ना एक सिरे से नकारना या हटाना पड़े और उसकी जगह झूठे तथ्यों को स्थापित करना पड़े। इस सरकार के बौद्धिक दिवालियापन का आलम यह है कि वोट बैंक के ख़ातिर “महात्मा गांधी और सरदार पटेल” तक के नाम का बख़ूबी इस्तेमाल करतीं रहीं, पर उनके द्वारा अपनायें गए विचारों के प्रति सदैव ही संवेदनहीन रही हैं। जहाँ तक नेहरू- गांधी परिवार की बात करें, तो शुरू से ही मोदी जी “गांधी परिवार फोबिया” से ग्रसित है। तभी तो इस परिवार के किसी भी नाम से ही संभवत: उनका ब्लड प्रेशर (बी. पी) और शुगर बढ़ जाता हैं। जबकि हम सभी जानते हैं कि नेहरू जी द्वारा लिखित पुस्तकें “डिस्कवरी ओफ इंडिया/ ग्लिम्प्सेस ओफ वर्ल्ड हिस्ट्री” आज ना केवल एक मिशाल है, अपितु उनके बुद्धिजीवी गहराइयों को दर्शाता है। नेहरू जी की आदर्शवादिता ना केवल भारत, बल्कि वैश्विक समुदाय के लिए आज भी प्रेरणादायक है।
मोदी सरकार के साथ संघ एवं भाजपा के लोगों से मैं यह पूछना चाहता हूँ कि क्या भारत के संदर्भ में “पंडित नेहरू के योगदान की तुलना” में वे अपने एक भी ऐसे पुराने नेता का नाम उल्लिखित कर सकतें है, जिनके कार्यों को हमारी नयी पीढ़ियाँ आदर्श के रूप में अपना सकें। आपके माध्यम से इन दो संघी मूर्द्धन्य महापुरुषों के कार्यों की चर्चा भी नयी पीढ़ी के समक्ष करना चाहता हुँ, जो आजकल सर्वाधिक चर्चित हैं और इन दोनो को ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, संघ, भाजपा और उसके साथी अपना आदर्श मानतें हैं। इस कड़ी में पहला नाम वीर सावरकर का लेना उचित है, जिसे भाजपायी पूजते है। पर क्या वो इस बात से बच सकते हैं कि उसी वीर सावरकर की हिन्दू महासभा के नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की थी। इस संदर्भ में सावरकर पर भी मुकदमा चला था। दूसरे, स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सावरकर एक बार नहीं, पूरे 6 बार अंग्रेजी सरकार से माफी मांगी थी। एक माफीनामे में सावरकर ने यहां तक कह डाला था कि भारत का हर ‘बौद्धिक’ समर्थक पूरी निष्ठा के साथ देश के हित में ब्रिटिश सरकार का साथ देगा।
दूसरा नाम “श्यामा प्रसाद मुखर्जी” का लेना उचित होगा, जिसे मोदी सरकार पूजनीय मानती है, पर सच यह है कि वो हिन्दू महासभा के पूर्व अध्यक्ष थे और बंगाल के वित्त मंत्री के रुप में उन्होने ब्रिटिश सरकार को पत्र लिखकर “भारत-छोड़ो आंदोलन” का विरोध किया था। यह ही नहीं, सुभाष चंद्र बोस ने एक बार श्यामा प्रसाद मुखर्जी को सांप्रदायिकता फैलाने के खिलाफ चेताया भी था और यह बात मुखर्जी ने खुद अपनी डायरी में लिखी थी।
हिटलरशाही अन्दाज़ में आज झूठ और फ़रेब की बुनियाद पर भारत के वर्तमान पीढ़ी को दिग्भ्रमित करने का एक षड्यंत्र भाजपा सरकार के द्वारा जारी है। बुद्धिजीवी समाज की आवाज़ को ज़बरदस्ती दबाने की बात हो, स्वतंत्र न्यायपालिका पर लगातार किये जा रहे हमले की बात हो, या फिर किसी तरह से प्रजातंत्र के चौथे स्तम्भ मीडिया को प्रभावित करने का कुत्सित प्रयास हो, मोदी सरकार की तानाशाही सर्वत्र जारी हैं। परंतु मोदीजी को यह कदापि नही भूलना चाहिए कि वर्तमान की ग़लतियों को कई बार भविष्य की आनेवाली पीढ़ियाँ स्वयं ही सुधार देतीं हैं, बावजूद इसके इतिहास कभी माफ़ नही करता। जैसे जर्मनी कब का एक हो चुका है, पर हिटलर के कुकृत्यों को आज भी लोग भूल नही पाते।