राही मासूम रज़ा बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी एवं प्रसिद्ध साहित्यकार थे। राही का जन्म एक सम्पन्न एवं सुशिक्षित शिया परिवार में हुआ। राही के पिता गाजीपुर की जि़ला कचहरी में वकालत करते थे। राही की प्रारम्भिक शिक्षा ग़ाज़ीपुर में हुई, बचमें पैर में पोलियो हो जाने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ सालों के लिए छूट गयी, लेकिन इंटरमीडियट करने के बाद वह अलीगढ़ आ गये और उच्च शिक्षा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हुई। जहाँ उन्होंने 1960 में एम.ए. की उपाधि विशेष सम्मान के साथ प्राप्त की। 1964 में उन्होंने अपने शोधप्रबन्ध तिलिस्म-ए-होशरुबा में भारतीय सभ्यता और संस्कृति विषय पर पी.एच.डी करने के बाद राही ने दो वर्ष अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में अध्याकिया और अलीगढ़ के मुहल्ले ‘बदरबाग में रहने लगे। यहीं रहते हुए उन्होंने आधा गाँव, दिल एक सादा कागज़़, ओस की बूंद, हिम्मत जौनपुरी, उपन्यास व 1965 के भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए ‘वीर अब्दुल हामिदÓ की जीवनी छोटे आदमी की बड़ी कहानी लिखी। उनकी ये सभी रचनाएँ हिंदी में थीं।
अलीगढ़ में राही के भीतर साम्यवादी दृष्टिकोण का विकास हुआ और वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी बन गये। अपने व्यक्तित्व के इस समय में वे बड़े ही उत्साह से साम्यवादी सिद्धान्तों से समाज के पिछड़ेको दूर करने के लिए वे प्रयत्नशील रहे। परिस्थितिवश उन्हें अध्याकार्य छोडऩा पड़ा और वे रोज़ी-रोटी की तलाश में मुंबई पहुंच गये।
1968 से राही बम्बई रहने लगे थे। वह अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फि़ल्मों के लिए भी लिखते थे जिससे उनकी जीविका की समस्या हल होती थी। राही स्पष्टतावादी व्यक्ति थे। धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण वह अत्यन्त लोकप्रिय हो गए थे। मुम्बई रहकर उन्होंने 300 फि़ल्मों की पटकथा और संवाद लिखे तथा दूरदर्शन के लिए 100 से अधिक धारावाहिक लिखे, जिनमें ‘महाभारत और ‘नीम का पेड़ अविस्मरणीय हैं। इन्होंने प्रसिद्ध टीवी सीरियल महाभारत पटकथा भी लिखी है और 1979 में ‘मैं तुलसी तेरे आँगन की फि़ल्म के लिए फि़ल्म फ़ेयर सर्वश्रेष्ठ संवाद पुरस्कार भी जीत चुके हैं।
उर्दू शायरी से अपनी रचना यात्रा आरंभ करने वाले राही मासूम रज़ा ने पहली कृति ‘छोटे आदमी की बड़ी कहानी लिखी जो 1965 के भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए वीर अब्दुल हमीद की जीवनी पर आधारित है। अपने सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘आधा गांव के अलावा उनके अन्य उपन्यास हैं- ‘टोपी शुक्ला, ‘ओस की बूंद, ‘हिम्मत जौनपुरी, ‘सीन 75, ‘कटरा बी आरजू , ‘दिल एक सादा कागज़ और ‘नीम का पेड। इसके अतिरिक्त ‘मैं एक फेरीवाला, ‘शीशे का मकां वाले और ‘गऱीबे शहर उनकी उर्दू नज़म तथा शायरी के तीन संकलन भी हिन्दी में प्रकाशित हुए हैं। इससे पहले वह उर्दू में एक महाकाव्य ‘1857 जो बाद में हिन्दी में ‘क्रांति कथा नाम से प्रकाशित हुआ तथा छोटी-बड़ी उर्दू नज़्में व गजलें लिखे चुके थे। आधा गाँव, नीम का पेड़, कटरा बी आरजू टोपी शुक्ला, ओस की बूंद और सीन 75 उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। राही का कृतित्त्व विविधताओं भरा रहा है।
राही ने 1946 में लेखन कार्य आरंभ किया। उनका प्रथम उपन्यास ‘मुहब्बत के सिवाÓ 1950 में उर्दू में प्रकाशित हुआ। राही कवि भी थे और उनकी कविताएं ‘नया साल मौज-ए-गुल में मौज-ए-सबा, उर्दू में सर्वप्रथम 1954 में प्रकाशित हुईं। उनकी कविताओं का प्रथम संग्रह ‘रक्स-ए-मैं उर्दू में प्रकाशित हुआ। इससे पहले ही वे एक महाकाव्य ‘अठारह सौ सत्तावन लिख चुके थे जो बाद में ‘क्रांति कथा नाम से प्रकाशित हुआ। इसके बाद उनका बहुचर्चित उपन्यास ‘आधा गांव 1966 में प्रकाशित हुआ। राही ने स्वयं अपने इस उपन्यास का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है –वह उपन्यास वास्तव में मेरा एक सफर था। मैं ग़ाज़ीपुर की तलाश में निकला हूं लेकिन पहले मैं अपनी गंगोली में ठहरूंगा। अगर गंगोली की हक़ीक़त पकड़ में आ गयी तो मैं ग़ाज़ीपुर का एपिक लिखने का साहस करूंगा।
राही मासूम रज़ा का दूसरा उपन्यास ‘हिम्मत जौनपुरी था, जो मार्च 1969 में प्रकाशित हुआ। 1969 में ही राही का तीसरा उपन्यास ‘टोपी शुक्ला प्रकाशित हुआ। 1970 में प्रकाशित राही के चौथे उपन्यास ‘ओस की बूंद का आधार भी हिन्दू-मुस्लिम समस्या है। 1973 में राही का पांचवाँ उपन्यास ‘दिल एक सादा कागज़ प्रकाशित हुआ। 1977 में प्रकाशित उपन्यास ‘सीन 75 का विषय भी फि़ल्मी संसार से लिया गया है। 1978 में प्रकाशित राही मासूम रज़ा के सातवें उपन्यास ‘कटरा बी आरजू का आधार फिर से राजनीतिक समस्या हो गया। राही मासूम रज़ा की अन्य कृतियाँ है – मैं एक फेरी वाला, शीशे का मकां वाले, गरीबे शहर, क्रांति कथा (काव्य संग्रह), हिन्दी में सिनेमा और संस्कृति, लगता है बेकार गये हम, खुदा हाफिज कहने का मोड़ (निबन्ध संग्रह) साथ ही उनके उर्दू में सात कविता संग्रह भी प्रकाशित हैं।
इन सबके अलावा राही ने फि़ल्मों के लिए लगभग तीन सौ पटकथा भी लिखा था। इन सबके अतिरिक्त राही ने दस-बारह कहानियां भी लिखी हैं। जब वो इलाहाबाद में थे तो अन्य नामों से रूमानी दुनिया के लिए पन्द्रह-बीस उपन्यास उर्दू में उन्होंने दूसरों के नाम से भी लिखे है। उनकी कविता की एक बानगी देखिये जिसे मैं एक फेरी बाला से साभार उद्धरित किया गया है- मेरा नाम मुसलमानों जैसा है मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो। मेरे उस कमरे को लूटो जिस में मेरी बयाज़ें जाग रही हैं और मैं जिस में तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के कालिदास के मेघदूत से ये कहता हूँ मेरा भी एक सन्देशा है मेरा नाम मुसलमानों जैसा है मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो। लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है,मेरे लहु से चुल्लु भर कर महादेव के मूँह पर फैंको,और उस जोगी से ये कह दो महादेव! अपनी इस गंगा को वापस ले लो,ये हम ज़लील तुर्कों के बदन में गाढा, गर्म लहु बन बन के दौड़ रही है।
राही लगातार विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छिटपुट तथा नियमित स्तंभ भी लिखा करते थे, जो व्यक्ति, राष्ट्रीयता, भारतीय संस्कृति और समाज, धार्मिकता तथा मीडिया के विभिन्न आयामों पर केन्द्रित हैं। अपने समय में राही भारतीय साहित्य और संस्कृति के एक अप्रतिम प्रतिनिधि हैं। उनका पूरा साहित्य हिन्दुस्तान की साझा विरासत का तथा भारत की राष्ट्रीय एकता का प्रबल समर्थक है।
राही मासूम रज़ा का निधन 15 मार्च, 1992 को मुंबई में हुआ। राही जैसे लेखक कभी भुलाये नहीं जा सकते। उनकी रचनायें हमारी उस गंगा-यमुना संस्कृति की प्रतीक हैं जो वास्तविक हिन्दुस्तान की परिचायक है। साभार