हिंदी -बंगला सिनेमा के एक्टर और डायरेक्टर उत्पल दत्त का जन्म 29 मार्च, 1929 को पूर्वी बंगाल (ब्रिटिश भारत) के बारीसाल में में हुआ था। इनके पिता का नाम गिरिजारंजन दत्त था। इन्होंने अपनी पढ़ाई कलकत्ता से की और 1945 में मेट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और फिर 1949 में ‘सेंट जेवियर कॉलेज’, कलकत्ता अब कोलकाता से अंग्रेज़ी साहित्य से ग्रेजुएशन की । उत्पल दत्त ने थिएटर और फ़िल्म एक्ट्रेस शोभा सेन से 1960 में शादी की। व उन्हें बेटी हुई जिसका नाम डॉक्टर बिष्णुप्रिया है । अभिनेता के रूप में उत्पल दत्त ने लगभग हर किरदार को निभाया। हिन्दी पर्दे पर कभी पिता तो कभी चाचा, कहीं डॉक्टर तो कहीं सेठ, कभी बुरे तो बहुधा अच्छे बने ‘उत्पल दा’ को दर्शक किसी भी रूप में नहीं भूल सकेंगे। अमिताभ बच्चन की प्रथम फ़िल्म ‘सात हिन्दुस्तानी’ में वे भी एक ‘हिन्दुस्तानी’ थे। बल्कि एक तरह से देखा जाय तो उत्पल जी ही मुख्य भूमिका में थे और अमिताभ बच्चन समेत अन्य सभी कलाकार सहायक थे! उसी तरह से ’70 के दशक में भारतीय समांतर सिनेमा की नींव जिन फ़िल्मों से रखी गई थी, उन प्रमुख कृतियों में ‘भुवन शोम’ भी थी और उसके नायक भी उत्पल दत्त थे। इस फ़िल्म के अभिनय के लिए उत्पल जी को 1970 में श्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। मगर हिन्दी सिनेमा में उनको भरपूर प्रतिष्ठा और काम ऋषिकेश मुकरजी की ‘गोलमाल’ से मिली, जो न आर्ट फ़िल्म बनाते थे और न ही कमर्शियल फ़ार्मुला पिक्चर।‘गोलमाल’ में ऋषिदा ने उत्पल दत्त की गंभीर छवी के विपरित ‘भवानीशंकर’ के ऐसे पात्र की भूमिका दी, जिन्हें मूछों से लगाव था। हीरो अमोल पालेकर से लेकर दीना पाठक तक के सभी अदाकारों का हास्य अभिनय आज भी एक मिसाल है। मगर उत्पल दा गंभीर रहकर भी इतना हंसा गए थे कि उस वर्ष ‘बेस्ट कमेडियन’ का फ़िल्मफ़ेयर एवार्ड उन्हें मिला था। जिस अंदाज़ से “अच्छाआ…” बोलते थे, वो उनका ट्रेड मार्क बन गया था। आज भी मिमिक्री आर्टिस्ट उस तकिया कलाम को बोलते हैं, तो दर्शक समज जाते हैं कि वह उत्पल दत्त की नकल कर रहे हैं। हिन्दी फ़िल्मों में फिर तो उनको हलकी फुलकी भूमिकाएं मिलतीं गईं।उत्पल दत्त ने न सिर्फ कॉमेडी रोल में अपने आप को श्रेष्ठ साबित किया, जब कभी भी उन्हें नकारात्मक भूमिका में लिया गया, वहाँ खलनायिकी भी उतनी ही सहजता से की थी। उनकी बंगाली फ़िल्में भी विविधता से भरी हैं। मगर उत्पल दत्त का रंगमंच का योगदान इन सब के उपर गिना जाना चाहिए। रंगमंच की एक प्रतिष्ठित संस्था इन्डियन पिपल्स थियेटर्स एसोसीएशन ‘इप्टा’ के स्थापक सभ्यों में से एक थे उत्पल दत्त। उनके नाटक विचार करने पर मजबुर करने वाले होते थे। तो बंगाल का एक विशीष्ट नाट्य प्रकार ‘जात्रा’ करने के लिए गाँव गाँव और शहर शहर जाने वाले इस कर्मठ रंगकर्मी की याद में उनके निधन के बाद ‘उत्पल दत्त नाट्योत्सव’ भी होता था।बंगाली में सत्यजीत राय से लेकर मृणाल सेन तक के सिद्ध और प्रसिद्ध निर्देशकों के वे प्रिय अभिनेताओं में से एक थे। फ़िल्मों में प्रॉफेसर या प्रिन्सीपाल का रोल स्वाभाविकता से करने वाले उत्पल दा फ़िल्मों में आने के बाद भी कई बरसों तक अंग्रेजी विषय के अध्यापक रहे थे। हिन्दी पर्दे पर कभी पिता तो कभी चाचा, कहीं डॉक्टर तो कहीं सेठ, कभी बुरे तो बहुधा अच्छे बने उत्पल दा को दर्शक किसी भी रूप में नहीं भूल सकेंगे। बाद में उन्होंने बहुत सी फिल्मों का निर्देशन भी किया। जिनमें खास हैं – मेघ, घूम भांगर गान, झार, बेखाखी मेघ, मा और इंकलाब के बाद। फ़िल्म ‘घनचक्कर’ के बेंक रोबरी सीन में इमरान हाश्मी अपने चेहरे पर उत्पल जी के चेहरे का सिर्फ मोहरा लगाकर घुमते हैं और फिर भी जब जब उत्पल दत्त का चेहरा पर्दे पर दिखता है, तब तब दर्शक हंसते हैं।उत्पल दत्त एक बड़े मार्क्सवादी भी थे। वे अक्सर वामपंथी दलों के लिए क्रांतिकारी नाटक करते थे। इस कारण उन्हें कांग्रेस ने 1965 में जेल में भी डाल दिया था। 1970 में बैन के बावजूद उनके तीन नाटकों दुश्वापनेर नगरी, एबार राजर पाला और बेरिकेड के लिए लोगों की भीड़ देखी गई। ऐसे सहज स्वाभाविक कलाकार का, 1993 में 64 साल की आयु में देहांत हो गया। मगर उनकी अनेक भूमिकाओं के जरिये उत्पल दत्त आज भी हम सब के बीच जिन्दा ही हैं।