देश की राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश है। यहां से 80 सांसद लोकसभा में जाते हैं और यह कहा जाता है कि केन्द्र में सरकार का रास्ता उत्तर प्रदेश से ही होकर गुजरता है। भाजपा ने 2014 और 2017 में जिस तरह से प्रचण्ड विजय हासिल की, उसने ही यहां के दो प्रमुख विपक्षी दलों-सपा और बसपा- को एक होने पर मजबूर किया। सपा-बसपा की एकता का असर पहले गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा के उपचुनाव में दिखाई पड़ा जब दोनों प्रतिष्ठापूर्ण सीटें समाजवादी पार्टी ने जीत ली। इसके बाद अभी हाल में कैराना लोकसभा उपचुनाव और नूरपुर विधानसभा उपचुनाव में भी भाजपा से दोनों सीटें विपक्ष ने छीन लीं। इन उपचुनावों में विपक्षी मजबूती ज्यादा आ गयी थी क्योंकि गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस और चौधरी अजित सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल विपक्षी एकता में शामिल नहीं थे जबकि कैराना में रालोद के प्रत्याशी को ही सभी विपक्षी दलों ने समर्थन दिया और नूरपुर में सपा के प्रत्याशी के साथ सभी एकजुट हो गये। इससे जहां एक तरफ भाजपा के लिए गंभीर समस्या पैदा हो गयी है, वहीं उत्तर प्रदेश में रालोद की मजबूती विपक्षी एकता में खलल भी डाल सकती है। राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष का चेहरा कांग्रेस ही बन सकती है लेकिन यूपी में अपनी स्थिति को समझते हुए उसने विपक्षी एकता में सबसे पीछे चलने की शर्त भी मानली है लेकिन चौधरी अजित सिंह में अगर उनके पिता स्व. चौधरी चरण सिंह के गुण शामिल हैं तो वे पीछे चलने को तैयार नहीं होंगे। प्रदेश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी, समाज वादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव, बसपा की प्रमुख सुश्री मायावती को किसी तरह संतुष्ट भी कर सकते थे लेकिन अब चैधरी अजित सिंह भी उसी लाइन में खड़े हो गये हैं।
कैराना लोकसभा उपचुनाव में राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) की प्रत्याशी तबस्सुम हसन ने भाजपा की उम्मीदवार मृगांका सिंह को 44618 मतों से पराजित किया है। रालोद ने विपक्षी दलों की मदद से यहां भाजपा के मतदाताओं को भी अपने पाले में कर लिया क्योंकि 2014 में भाजपा के हुकुम सिंह ने यहां पर 50 फीसद से अधिक मत पाये थे जबकि उनकी बेटी मृगांका सिंह 46 फीसद मत ही प्राप्त कर सकी हैं। राष्ट्रीय लोकदल यूपी में राजनीति के हाशिए पर पहुंच गया था। पहले लोकसभा के चुनाव में पिटा और बाद में विधानसभा चुनाव में भी वह काफी पीछे हो गया था लेकिन कैराना के उपचुनाव में उसका वही वोट बैंक मजबूत हो गया जो कभी चौधरी चरण सिंह का हुआ करता था। रालोद ने जाट और मुस्लिम वोट बैंक को साथ लाकर बसपा के वोट बैंक दलितों का भी समर्थन प्राप्त किया है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश को जाट लैण्ड कहा जाता है। यहां पर 10 से ज्यादा लोकसभा की ऐसी सीटें हैं, जहां जाट समुदाय चुनाव के समीकरण बदल देता है। इनमें फतेहपुर सीकरी, मथुरा, अलीगढ़, हाथरस, बागपत, कैराना, बिजनौर, गाजियाबाद मेरठ और मुजफ्फर नगर सीटें हैं। चौधरी चरण सिंह का इनपर अच्छा प्रभाव रहता था और अब बदले हालात में रालोद अकेले दम पर इन सीटों पर चुनाव नहीं जीत सकता। नवम्बर 2013 में मुजफ्फरनगर दंगे के बाद वोटों का जबर्दस्त ध्रुवीकरण हो गया। इसी के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों और मुस्लिमों के बीच मतभेद गहरा गया। इसका फायदा भाजपा को मिला था। भाजपा ने 2014 और 2017 में इसका भरपूर लाभ उठाया। इसलिए चैधरी अजित सिंह के सामने सबसे बड़ी चुनौती तो जाट वोट बैंक को वापस लाने की थी और सपा-बसपा के साथ आने से दलित और मुस्लिम वोट बैंक भी उनके साथ जुड़ गया।
रालोद उम्मीदवार तबस्सुम हसन के बहाने चौधरी अजित सिंह ने जनाधार वापस पा लिया तो उनकी महत्वाकांक्षाएं भी बढ़ना स्वाभाविक है। हालांकि अभी रालोद नेता संयम बरत रहे हैै। कैराना में जीत के बाद पार्टी के उपाध्यक्ष और चौधरी अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी ने गठबंधन को समर्थन करने के लिए कांग्रेस, सपा, बसपा और अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी समेत तमाम राजनीतिक पार्टियों का शुक्रिया अदा किया। इस मामले में वे सपा प्रमुख अखिलेश यादव के समकक्ष खड़े नजर आये। श्री अखिलेश यादव ने भी सभी विपक्षी दलों को एक साथ खड़े रहने के लिए धन्यवाद दिया था। इसी दौरान समाचार चैनल ने जयंतचौधरी से सवाल किया कि बसपा प्रमुख सुश्री मायावती अगर प्रधान मंत्री बनना चाहें तो क्या वे उनका समर्थन करेंगे? इस प्रश्न का जयंत ने सीधा जवाब नहीं दिया और कहा कि उस समय जैसे हालात होंगे, वैसा किया जाएगा। जयंत चैधरी ने अभी रालोद को प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल नहीं किया है लेकिन रालोद की ताकत बढ़ने की बात उन्होंने भी स्वीकार की है। पिछली बार 2014 में लोकसभा के जब चुनाव हुए थे, तब चौधरी अजित सिंह का गढ़ माने जाने वाले कैराना में मोदी लहर की सुनामी में रालोद प्रत्याशी को 50 हजार वोट भी नहीं मिल पाये थे।
कैराना लोकसभा उपचुनाव की एक खास बात और रही। इस बार विपक्ष एक तो था क्योंकि कांग्रेस ने कोई प्रत्याशी नहीं खड़ा किया और सपा रालोद के प्रत्याशीं को समर्थन दिया लेकिन वहां पर किसी भी बड़े विपक्षी नेता ने चुनावी सभा अथवा रैली नहीं की। बसपा प्रमुख सुश्री मायावती भी वहां नहीं गयी और न कांग्रेस के राहुल गांधी वहां पहुंचे। इस प्रकार महागठबंधन ने एक खामोश चुनाव लड़ा। विपक्षी महा गठबंधन ने डोर टु डोर सम्पर्क पर ज्यादा जोर दिया। घोषित रूप से रालोद नेता ही चुनाव सभाएं करते रहे। इससे रालोद के मन में यह बात आ रही है कि उसका प्रभाव पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बढ़ गया है तो इसे आश्चर्यजनक नहीं मानना चाहिए। प्रदेश में 2017 के
विधान सभा चुनाव में चैधरी अजित सिंह की पार्टी रालोद को पूरे प्रदेश में एक प्रतिशत वोट ही मिले थे और उनका एक विधायक चुना जा सका। अब रालोद प्रत्याशी तबस्सुम 48 फीसद से ज्यादा वोट प्राप्त कर रही हैं तो रालोद की महागठबंधन में हिस्सेदारी बढ़ना ही चाहिए।
उत्तर प्रदेश में विपक्षी दलों की एक जुटता ने भाजपा को निश्चित रूप से परेशान किया है। गोरखपुर और फूलपुर की पराजय पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा था कि हम अतिविश्वास में हारे लेकिन कैराना और नूरपुर में भाजपा पूरी तैयारी से उतरी थी। कैराना के बगल में एक कार्यक्रम के बहाने श्री योगी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सभा भी करा दी। इसके बाद भी भाजपा के दोनों प्रत्याशी हार गये लेकिन रालोद के उभरने से यह आशंका भी बढ़ गयी कि 2019 तक यह एकता कितनी रह पाती है। अभी तक सपा और बसपा को ही सीटों का बंटवारा करना था और सुश्री मायावती पहले से ही कह रही हैं कि सम्मान जनक सीटें मिलने पर ही गठबंधन कर चुनाव लड़ेंगी, अब इसी प्रकार की सम्मान जनक सीटें चौधरी अजित सिंह भी मांग सकते हैं। विपक्षी गठबंधन में जितने ज्यादा मजबूत दल होंगे, उतना ही वोटों का विभाजन भी होगा और इसका सीधा फायदा भाजपा को मिलेगा। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी ने भाजपा के खिलाफ तीसरे मोर्चे का जो फार्मूला बनाया है, उसके अनुसार भी जहां जो पार्टी मजबूत है, उसे ही बाकी दल समर्थन दें। इस प्रकार यूपी के पूर्वांचल में सपा ने गोरखपुर और फूलपुर का उपचुनाव जीता तो वहां की सीटों पर उसे अधिकार मिलेगा और पश्चिमी यूपी में रालोद दावेदार बन जाएगा। बसपा और कांग्रेस इसको कैसे मंजूर करेंगे। (हिफी)