दमन के ख़िलाफ़ प्रतिरोध के मोर्चे पर सक्रिय ‘रिहाई मंच’ के प्रतिनिधि मंडल ने अभी हाल में बहराइच और बाराबंकी का दौरा किया. दोनों जगहें सांप्रदायिक हिंसा और बाद में पुलिसिया कार्रवाई से गुज़र चुकी हैं. इस दौरे में मैं भी शामिल था. इस दौरान जो जाना-समझा और महसूस किया, यह रिपोर्ट उसी का निचोड़ है; आदियोग
इस बार 12 परिवारों के घर ईद की ख़ुशियां काफ़ूर रहेंगी, सेवैंयां होंगी भी तो बेस्वाद लगेंगी. सूनी ईद का यह मंजर बहराइच, बाराबंकी और कानपुर में दिखेगा.
निशाना जैसे तय था. बस, किसी बहाने का इंतज़ार था. कुछ इसी तरह कहीं ढाई तो कहीं छह माह पहले आफ़त का पहाड़ टूटा. इसकी जद में आये मुसलमान और ज़ाहिर है कि उनका घर-परिवार भी, नाते-रिश्तेदार और दोस्त-असबाब भी. सब कुछ बदहवास हो गया, बहुत कुछ बर्बाद हो गया. गंवई निगाह से इनमें बमुश्किल तीन परिवारों को ग़रीबी से थोड़ा ऊपर का माना जा सकता है. बाक़ी तो हर पैमाने से ग़रीब से ग़रीबतर हैं. कोई मज़दूरी करता है, कोई रिक्शा खींचता है, कोई फेरी लगाता है, कोई साइकिल का पंक्चर बनाता है तो कोई गुमटी चलाता है. उनके घर बिना कहे भूख, अभाव और ग़रीबी की दास्तान सुनाते हैं.
दुख और तकलीफ़ों में डूबी इस दास्तान में अचानक फाट पड़े पहाड़ ने लाचारियों के सिलसिले का नया अध्याय जोड़ दिया. ना जाने कब से घिसट-घिसट कर चल रही ज़िंदगी को गहरे सदमे में झोंक दिया. यह पहाड़ क़ानून का बेरहम शिकंजा था. ऐसा शिकंजा जिसमें केवल मुसलमान फंसे और हिंदू नामधारी साफ़-साफ़ बच निकले. इसे हिंदू राष्ट्रवाद की विजय का नमूना कहें.
यह पहाड़ अभी हटा नहीं है. पीठ पर सवार उसका जानलेवा भार पूरी शिद्दत के साथ बरक़रार है.
मसला छोटा सा था, एकदम मामूली लेकिन तिल का ताड़ हो गया. यह कहना ज्यादा सही होगा कि पिद्दी सा मसला बड़े बवाल का सबब बना दिया गया. ऐसा बहराइच जिले के नानपारा में और बाराबंकी जिले के महादेवा में हुआ. इसने दो समुदायों के बीच की पहले से मौजूद लकीर को कई गुना गाढ़ा कर दिया. दोनों जगह कुल मिला कर 45 लोग गिरफ़्तार हुए जिसमें नौ पर रासुका लगा. कानपुर में भी तीन लोग रासुका के फंदे में फंसे.
नानपारा के गुरघुट्टी गांव में हमेशा की तरह पिछले साल 2 दिसंबर को भी बारावफ़ात का जुलूस निकला. तयशुदा रास्ते पर कुछ दूरी तक सड़क इस बुरे हाल में थी कि तालाब हो चली थी. इससे बचने को जुलूस ने रास्ता बदल दिया और बस बवाल मच गया. पत्थर भी चले. इस आपाधापी में दो दुकानें भी तोड़ी और लूटी गयीं. जुलूस बिखर गया. उल्लास का माहौल थम गया. चहल-पहल की जगह वीरानी ने छेक ली. पुलिस हरकत में आयी और ‘अमन के दुश्मनों’ की धरपकड़ में लग गयी. जो भी आसानी से हाथ लगा, बवालियों की कतार में खड़ा कर दिया गया. यह संख्या 33 हो गयी. बाद में उनमें से पांच को रासुका के हवाले कर दिया गया.
पुलिस कार्रवाई की आंच ने दूसरे पक्ष को छुआ तक नहीं. मुसलमानों को मुसलमान होने का सबक़ मिला. बिगड़े हालात को फ़ौरन काबू करने में पुलिस की कार्रवाई पर भेदभाव का चश्मा पहने प्रशासन ने अपनी मोहर ठोंकने में तनिक देर नहीं की. काफी हद तक मीडिया ने भी दिल खोल कर वाहवाही लुटाई. इस पर किसी की भौं तिरछी नहीं हुई कि गुनाहगारों की सूची में केवल मुसलमान? कि आख़िर एक हाथ से ताली बजने का कमाल कैसे? ऐसे सवाल उठे ही नहीं तो उसकी तह में जाने की ज़हमत कौन करता या कहें कि सरकारी महकमे की आंख की किरकिरी बन जाने का जोखिम कौन मोल लेता….
कमोबेश यही सीन महादेवा का भी है. मामला कुल इतना सा कि ढोल-नगाड़े और जयकारे के साथ प्राण प्रतिष्ठा के लिए मूर्ति ले जाई जा रही थी. हुड़दंगी नज़ारा था. यह गुज़री 14 मार्च की बात है. इसी दौरान मोटरसाइकिल से 17 साल का लड़का अपनी बहन के साथ घर लौट रहा था कि किसी ने पीछे बैठी बहन पर गुलाल फेंक दिया. भाई ने इस बदतमीजी पर एतराज़ जताया तो मामला कहासुनी और धक्कामुक्की से होता हुआ मारपीट में बदल गया. दो पक्ष बन गये, एक-दूसरे के खिलाफ़ खड़े हो गये.
आदतन पुलिस यहां भी बहुत देर से आयी. तब तक मामला ठंडा हो चुका था. लेकिन अगले दिन हिंदू युवा वाहिनी और हिंदू साम्राज्य परिषद के संग स्थानीय भाजपा विधायक शरद अवस्थी और महादेवा मंदिर के महंत आदित्यनाथ तिवारी ने पुलिस पर दबाव बनाते हुए मामले को गरमा दिया. स्थानीय पुलिस ने उनके कहे पर फ़ौरन अमल किया और 12 लोग नप गये- ज़ाहिर है कि सबके सब मुसलमान. यह कार्रवाई दूसरे पक्ष द्वारा की गयी प्राथमिकी के आधार पर हुई जिसमें कहा गया था कि मुसलमानों ने उनकी शोभा यात्रा पर हमला बोला और मूर्तियों का अपमान किया. रामनगर के थानेदार ने भी अपनी प्राथमिकी में मुसलमानों पर तोहमत मढ़ी और उन्हें सांप्रदायिक बिगाड़ के लिए जिम्मेदार बताया. दोनों प्राथमिकी में गुलाल फेंकने की घटना सिरे से नदारद थी. हालांकि स्थानीय मीडिया में आया पुलिस अधीक्षक का बयान दोनों प्राथमिकी के ठीक उलट था. उन्होंने विवाद की जड़ में गुलाल फेंके जाने का हवाला देते हुए स्थिति को सामान्य बताया था. लेकिन थानेदार की प्राथमिकी के मुताबिक़ स्थिति असामान्य थी- ‘अभियुक्त’ नेपाल भागने की फ़िराक में थे कि उन्होंने ड्राइवर समेत अपने पांच सहयोगियों के दम पर सभी बारह शातिरों को गिरफ़्तार कर जेल भिजवा दिया.
खैर, जमानत पर रिहाई का समय आया तो जेल से बाहर क़दम रखने से ठीक पहले चार लोगों पर रासुका लगाये जाने का फ़रमान आ पहुंचा और उन्हें उल्टे पांव बैरक पहुंचा दिया गया. कुल मिला कर अपने सियासी मक़सद में हिंदू साम्राज्यवादियों को स्थानीय पुलिस का साथ मिला और पुलिस को प्रशासन का. तीनों का गठबंधन मुसलमानों पर कहर बन कर टूटा. हिंदुत्व का परचम गदगद हो गया.
माना कि नानपारा में मुसलमानों से ग़लती हुई कि उन्होंने जुलूस का रास्ता बदला. माना कि ऐसा जानबूझ कर किया, कि कुछ मीटर तालाब हो गयी सड़क तो बहाना थी, कि इरादा तो दूसरे पक्ष को उकसाना था. हिंदू हो या मुस्लिम समाज, धार्मिक आयोजनों को भव्य से भव्य बनाने और इसके लिए रूपया बहाने का चलन इधर तेजी से बढ़ा है. बारावफात के लिए पैसा जुट सकता है तो रास्ता कामचलाऊ बनाने के लिए क्यों नहीं? उसे गिट्टी-मिट्टी से पाटा भी जा सकता था. यह काम जुलूस की तैयारी में शामिल किया जाना था.
रास्ता बदलना ग़लत हो सकता है लेकिन इसे संगीन जुर्म का दर्ज़ा भी नहीं दिया जा सकता. यह अशांति और तनाव का कोई महाविस्फोट नहीं था कि जिसे क़ाबू करने के नाम पर इलाक़े को हफ़्तों के लिए पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया जाये. इसने जन जीवन को और अधिक असहज किया, वर्दी से खौफ़ खाने की पुरानी रवायत को केवल मज़बूत किया.
दोनों जगह जो हुआ, वो दो समुदायों के बीच भिडंत का मामला नहीं था. पूरा बवाल इकतरफ़ा था. पुलिस भी इकतरफ़ा थी और प्रशासन भी. तो इसमें अचरज कैसा कि इल्ज़ाम बस मुसलमानों पर लगा. उनमें अधिकतर नाम ऐसे हैं जो हंगामा मचने के समय वहां थे ही नहीं. बड़ी संख्या में मुसलमानों को ‘धर दबोचा’ गया और बिना किसी देरी के जेल रवाना कर दिया गया. किसी तरह ज़मानत पर रिहाई का सिलसिला चला लेकिन नानपारा के पांच और महादेवा के चार लोगों की रिहाई में भारी पेंच फंस गया. उन पर रासुका लग गया. मतलब कि उनसे देश की सुरक्षा को ख़तरा पैदा हो गया था.
इस सरकारी भूकंप ने पीड़ित परिवारों का सुकून छीना, ग़रीबी में उनका आटा गीला कर दिया. जेल में अपनों से मिलाई की मद में नया ख़र्चा अलग से जुड़ गया. हरेक बंदी की रिहाई की कोशिश में औसतन कम से कम 35 हज़ार रूपये स्वाहा हो गये. हैसियत भले ही थोड़ा ऊपर-नीचे हो लेकिन सबकी कहानी लगभग इक जैसी है- चाहे वे बिना गुनाह के जेल गये या बाद में रासुका में जा फंसे. तो भी तीन क़िस्से हाज़िर हैं.
11 जून को रिहाई मंच के प्रतिनिधि मंडल ने महादेवा के मामले में बाराबंकी के जिलाधिकारी से मुलाक़ात की और उनसे यह मांग रखी कि रिज़वान, जुबैर, अतीक़ और मुमताज पर लगा रासुका ख़ारिज करने की सिफ़ारिश की जाये. साथ ही पूरे मामले की उच्चस्तरीय जांच कराई जाये ताकि सियासी मक़सद के चलते किसी ख़ास समुदाय के इंसानी और जम्हूरी हुक़ूक़ पर आंच न आये. प्रतिनिधि मंडल में रिहाई मंच के अध्यक्ष एडवोकेट मोहम्मद शोएब, पूर्व आईजी एसआर दारापुरी, एडवोकेट रणधीर सिंह सुमन, राजीव यादव, ब्रजमोहन वर्मा, सरदार भूपेंदर सिंह, रोबिन वर्मा, शम्स तबरेज, अनिल यादव, वीरेंद्र कुमार गुप्ता शामिल थे. इस मौक़े पर पीड़ित चारों परिवारों के लोग भी मौजूद थे.
नानपारा में ईंट-भट्टे के मज़दूर मुन्ना पर रासुका लगा. इसने उनके परिवार का भट्टा बिठा दिया. कहानी अभी आगे और है. पुलिस की दबिश ने उनके भाई अब्दुल ख़ालिक का कारोबार भी चौपट कर दिया. उनका मुर्गा-मछली का धंधा है. पुलिस के छापे से पहले वे निकल चुके थे लेकिन छोटा भाई और दो भतीजे ज़रूर पुलिस के हत्थे चढ़ गये. किसकी हिम्मत कि दूकान के पास फटकता. इलाके में पुलिसवालों का डेरा लग चुका था और खुली पड़ी दूकान ने वर्दीधारियों की बढ़िया दावत का मुफ़्त इंतज़ाम कर दिया. मछलियों से भरे हौज का पानी रोज दो बार बदलना होता है और मुर्गों को भी दाना-पानी देना होता है. यह पुलिस की ड्यूटी नहीं है. बहरहाल, कुछ माल तो पुलिस हजम कर गयी और बाकी का दम भूख-प्यास ने तोड़ दिया. दूकान 16 दिन बंद रही और तीन लाख रूपये से अधिक का नुकसान हो गया. ख़ाली हो चुकी दूकान को दोबारा जमाने के लिए तीन बीघा ज़मीन बिक गयी.
नानपारा के अरशद पर रासुका लगा. वह होश संभालते ही केरल के मदरसे में आलिमत कर रहा था. पढ़ाई का आख़िरी साल बाक़ी था. छुट्टियों में घर आया हुआ था कि धर लिया गया. गांव में मदरसा चला रहे उसके वालिद शाहिद रज़ा भी पुलिस की गिरफ़्त में आने से नहीं बचे और उसके ननिहाल से आये तीन लोग भी. इनमें 14 साल का कलीम भी था.
महादेवा में रिज़वान पर रासुका लगा. उनके वालिद जान मोहम्मद जेल जाते-जाते बचे. एक साल पहले उन पर फालिज गिरा था जिसने उनके शरीर का दाहिना हिस्सा बेजान कर दिया. वह चलने-फिरने तक को मोहताज हो गये. वह साइकिल का पंक्चर बनाने का काम करते रहे हैं. फालिज ने उन्हें इस काम के लायक़ नहीं छोड़ा. मजबूरी में यह काम उनके बड़े बेटे को संभालना पड़ा जो ख़ुद भी एक पैर से विकलांग है. रिज़वान के दो छोटे बच्चे हैं. वह जेल गया तो उसका परिवार संकट में आ गया. उसके किसी भाई की माली हालत ऐसी नहीं कि रिज़वान के परिवार का बोझ उठा सके.
रासुका माने राष्ट्रीय सुरक्षा कानून- सुनने में ही भारी और धमकादार. लेकिन जिन पर रासुका लगा, उनके घरवालों और पड़ोसियों में से अधिकतर को पता ही नहीं कि रासुका आख़िर किस बला का नाम है, कि है तो क्यों है. उन्होंने पहली बार यह शब्द सुना. उन्हें तो यही पता नहीं कि राष्ट्रीय सुरक्षा कौन सी चीज होती है भला, कि उस पर ख़तरे का मतलब क्या होता है. सच तो यह है कि रासुका के फंदे में फंसे लोग किसी कोने से राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा नहीं हैं और ना हो सकते हैं. लेकिन रासुका ने उनके परिवार के ज़िंदा रहने के अधिकार के सामने ज़रूर बड़ा ख़तरा पैदा कर दिया.
अदने से झगड़े की बिना पर लगे रासुका ने इस जन विरोधी क़ानून को कटघरे में खड़ा कर दिया, उसके वजन को हल्का कर दिया. जून के मध्य में इसकी मियाद ख़त्म होने को है जिसे और आगे बढ़ाये जाने का अंदेसा भी बना हुआ है. जो भी हो लेकिन पीड़ित मुसलमानों के दिमाग़ के किसी कोने में यह समझ ज़रूर घर कर गयी कि उनके साथ मुसलमान होने के नाते नाइंसाफ़ी हुई, कि क़ानून का डंडा इसीलिए केवल उन पर बरसा, कि देश में उनकी हैसियत दोयम दर्ज़े के नागरिक से अधिक नहीं. देश की एकता, तरक्क़ी और मज़बूती के लिए यह सबसे बड़ा ख़तरा है. हुक्मरानों को इसे समझना होगा.