जयराज हिन्दी फ़िल्म जगत् के एकमात्र ऐसे अभिनेता थे, जिन्होंने मूक फ़िल्मों के दौर से लेकर वर्तमान दौर तक की अनेक फ़िल्मों में काम किया। हिन्दी सिनेमा के पर्दे पर सर्वाधिक राष्ट्रीय और ऐतिहासिक नायकों को जीवित करने का कीर्तिमान इसी कलाकार के साथ जुड़ा है। महान् संगीतकार नौशाद अली को फ़िल्मों में ब्रेक देने का श्रेय भी पी. जयराज को ही जाता है। उनकी ज़िंदगी हिन्दी सिने जगत् के इतिहास के साथ-साथ चलती हुई, सिनेमा की कहानी जैसी थी।वे सरोजिनी नायडू के करीबी संबंधी थे।
जयराज का जन्म 28 सितम्बर, 1909 को निजाम स्टेट के करीमनगर में हुआ था। ‘पाइदीपाटी जैरुला नाइडू’ उनका आन्ध्रीय नाम था। हैदराबाद में पले बड़े हुए जिससे उर्दू भाषा पर पकड़ अच्छी थी, वो काम आयी। उनके पिताजी सरकारी दफ्तर में लेखाजोखा देखा करते थे। उनकी प्रारंम्भिक शिक्षा हैदराबाद के रोमन कैथोलिक स्कूल में हुई। फिर तीन साल के लिए उन्हें ‘वुड नेशनल कॉलेज’ के बॉडिंग हाउस में पढ़ाया गया जहां से उन्होंने संस्कृत की शिक्षा ली। फिर हैदराबाद के ‘निजाम हाईस्कूल’ में उर्दू पढी। बी. एस. सी. करने के बाद नेवी में जाना चाह्ते थे किंतु उनके बडे भाई सुन्दरराज इंजीनिय्ररिंग की पढाई के लिए लंदन भेजना चाह्ते थे। उनकी माताजी बड़े भाई को ज्यादा प्यार देतीं थीं और उनकी इच्छा थी इंग्लैंड जाकर पढाई करने की जिसका परिवार ने विरोध किया जिससे नाराज होकर, युवा जयराज, किस्मत आजमाने के लिए 1929 में बम्बई अब मुम्बई आ गये। उस समय उनकी उम्र 19 वर्ष थी। समुन्दर के साथ पहले से बहुत लगाव था सो, डॉक यार्ड में काम करने लगे ! वहाँ उनका एक दोस्त था जिसका नाम “रंग्या” था उसने सहायता की और तब, पोस्टर को रंगने का काम मिला जिससे स्टूडियो पहुंचे। उनकी मजबूत कद काठी ने जल्द ही उन्हें निर्माता की आंखों में चढ़ा दिया। महावीर फोटोप्लेज़ में काम मिला। उस समय चित्रपट मूक थे। कई जगह काम, ऐक्टर के बदले खड़े डबल का मिला, पर बाद में मुख्य भूमिकाएँ भी मिलने लगीं। भाभा वारेरकर उनके आकर्षक और सौष्ठव शरीर को देखकर उनके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म में नायक की भूमिका के लिए चुन लिया। दुर्भाग्य से यह फ़िल्म बीच में ही बंद हो गई क्योंकि वारेरकर का अपने पार्टनर के साथ मनमुटाव हो गया था।
निर्देशक नागेन्द्र मजूमदार के पास उन्हें ‘सहायक निर्देशक की नौकरी मिल गई। उनके साथ निर्देशन के अलावा संपादन, सिने-छांयाकन आदि का कार्य भी सीखा। दिलीप कुमार की पहली फ़िल्म “प्रतिमा” का निर्देशन जयराज ने किया था।
पी. जयराज ने फ़िल्मों के निर्देशन का काम भी किया जिसमें बतौर निर्देशक पहली फ़िल्म थी-‘प्रतिभा’, जिसकी निर्मात्री देविका रानी थीं
फ़िल्मों में बतौर अभिनेता 1929 में नागेन्द्र मजूमदार ने ही प्रथम फ़िल्म ‘जगमगाती जवानी’ में ब्रेक दिया। जिसमें माधव काले नायक थे और जयराज सहायक चूंकि माधव काले को घुड्सवारी और फाइटिंग नहीं आती थी, लिहाजा जयराज ने मास्क पहनकर उनका भी काम किया। जिसके मुख्य कलाकार माधव केले के स्टंट सीन भी उन्होंने ही किए थे। उसके बाद ‘यंग इन्डिया पिक्चर्स’ ने 35 रुपये प्रतिमाह, 3 वक्त का भोजन और 4 अन्य लोगों के साथ गिरगाम मुम्बई में रहने की सुविधा वाला काम दिया। अब जीवन की गाडी चल निकली। 1930 में “रसीली रानी” फ़िल्म बनी। माधुरी उनकी हिरोइन थीं। उसके बाद जयराज ‘शारदा फ़िल्म कम्पनी’ से जुड़े। 35 रुपये से 75 रुपये मिलने लगे। जेबुनिस्सा हीरोइन थीं जो हिन्दुस्तानी ग्रेटा के नाम से मशहूर थीं और जयराज जी गिल्बर्ट थे हिन्दुस्तान के। (Anthony Hope’s की फ़िल्म ‘द प्रिज़नर ऑफ़ जेंडा’ ही हिन्दी फ़िल्म “रसीली रानी” के रूप में बनी थी) बतौर नायक उनकी पहली फ़िल्म ‘रसीली रानी’ 1929 में प्रदर्शित हुई माधुरी उनकी नायिका थीं। ‘नवजीवन फ़िल्म्स’ के बैनर तले बनी नागेन्द्र मजूमदार द्वारा निर्देशित वह फ़िल्म बहुत सफल रही थी। मूक फ़िल्मों के दौर में वह फ़िल्म कई सिनेमाघरों में पांच सप्ताह चली थी जो उन दिनों बहुत बड़ी बात थी। मूक फ़िल्मों में तो जयराज के नाम की धूम मची हूई थी।
1931 में जब ‘आलमारा’ से बोलती फ़िल्मों का दौर शुरू हुआ तो उन्होंने भी बोलती फ़िल्मों के अनुरूप खुद को ढाला। उनकी पहली बोलती फ़िल्म थी ‘शिकारी’। 1932 में प्रदर्शित इस फ़िल्म में जयराज ने बौद्ध भिक्षुक की भुमिका निभाई थी और सांप, बाघ, शेर जैसे हिंसक जानवरों के साथ लड़ने के दृश्य दिए। बोलती फ़िल्म के साथ संगीत शुरू हुआ। कई कलाकार प्ले बैक भी देने लगे पर 1935 से दूसरे गाते और कलाकार सिर्फ़ होंठ हिलाते जिससे आसानी हो गयी। अब सिनेमा संगीतमय हो गया। हमजोली फ़िल्म में नूरजहाँ और जयराज जी ने काम किया था। राइफल गर्ल, हमारी बात आदि फ़िल्म मिलीं। जयराज की लोकप्रियता देखकर ‘बाम्बे टॉकीज’ के मालिक हिमांशु राय ने अपनी कंपनी की फ़िल्म ‘भाभी’ के लिए उन्हें बतौर नायक अनुबंधित किया, जिससे फ़िल्म-जगत् में सनसनी फैल गई। तब ‘बाम्बे टॉकीज’ बाहर के कलाकारों को अपनी फ़िल्म में काम नहीं देता था। फांज आस्टिन द्वारा निर्देशित वह फ़िल्म ‘भाभी’ बहुत सफल रही। मुम्बई में उस फ़िल्म ने रजत जयंती मनाई थी तो कलकत्ता में वह 80 सप्ताह चली थी। फिर आयी ‘स्वामी’ फ़िल्म, जिसमें सितारा देवी थीं। हातिम ताई, तमन्ना, उस समय के सिनेमा थे। जयराज ने मराठी, गुजराती फ़िल्म भी कीं। अपने फ़िल्मी कैरियर में बतौर अभिनेता तो लगभग 300 फ़िल्मों में अभिनय किया जिनमें से 160 फ़िल्मों में नायक की भूमिकाएँ निभाईं। बतौर नायक उनकी अंतिम फ़िल्म थी-खूनी कौन मुजरिम कौन’, जो वर्ष 1965 में प्रदर्शित हुई थी। उसके बाद उन्होंने उम्र की मांग के अनुसार चरित्र भूमिकाएँ निभानी शुरु कर दीं। महात्मा गांधी की हत्या पर आधारित अमरीकी फ़िल्म- ‘नाईन आवर्स टू रामा’, मार्क रोब्सन निर्मित में जी. डी. बिड़ला की भूमिका निभाने का भी अवसर मिला जो आज तक हिन्दुस्तान में प्रदर्शित नहीं हो पायी है। माया फ़िल्म में आई. एस. जौहर के साथ काम किया। यह दोनों अमरीकी फ़िल्में हैं। इन्डो-रशियन फ़िल्म ‘परदेसी’ में भी काम किया। दो बार दुर्घट्ना ग्रस्त हो जाने के कारण चलने फिरने में तकलीफ होने लगी तो फ़िल्मों से दूरी बनानी शुरु कर दी।
एक फ़िल्म जयराज जी ने बनाना शुरू किया था जिसमें नर्गिस, भारत भूषण और ख़ुद वे काम कर रहे थे। फ़िल्म का नाम था सागर। उनका बहुत नाम था सिने जगत में और कई सारे निर्माता, निर्देशक, कलाकार उन्हें जन्मदिन की बधाई देने सुबह से उनके घर पहुँचते थे। 1951 में सागर फ़िल्म बनायी, जो लॉर्ड टेनिसन की “इनोच आर्डेन” पर आधारित कथा थी। वह निष्फल हुई क्योंकि जयराज ने अपना खुद का पैसा लगाया था और उन्होंने कुबूल किया था कि व्यवासायिक समझ उनमें नहीं थी।
1939 में अपने घनिष्ठ मित्र पृथ्वीराज कपूर के कहने पर उन्होंने सावित्री नाम की युवती से विवाह कर लिया। तब उन्होंने ही सावित्री के कन्यादान की रस्म निभाई थी। 1942 में उनका वेतन 200 रुपये प्रतिमाह से बढ़कर 600 रुपये प्रतिमाह हो गया। उनकी 5 संतान थीं, दो पुत्र, दिलीप राज व जयतिलक और तीन पुत्रियाँ, जयश्री, दीपा एवं गीता। सबसे बड़े दिलीप राज, जो ऐक्टर बने। उनके द्वारा अभिनीत के. ए. अब्बास की फ़िल्म “शहर और सपना” को राष्ट्रपति पुरस्कार मिला था। जयराज का दूसरा पुत्र अमेरिका में रहता है। दूसरी बेटी थीं जयश्री, उनका विवाह राजकपूर की पत्नी कृष्णा के छोटे भाई भूपेन्द्रनाथ के साथ हुआ था। तीसरी बेटी थीं दीपा, फिर थी गीता सबसे छोटी।
पी. जयराज को लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से नवाजा गया। 1982 में उन्हें दादा साहेब फाल्के पुरस्कार भी मिला।
जयराज का निधन लीलावती अस्पताल, मुम्बई में 11 अगस्त 2000 को हुआ और हिन्दी सिने संसार का मूक फ़िल्मों से आज तक का मानो एक सेतु ही टूट कर अदृश्य हो गया। 11 मूक चित्रपट और 200 बोलती फ़िल्मों से हमारा मनोरंजन करने वाले समर्थ कलाकार ने इस दुनिया से विदा ले ली।एजेन्सी