सात जुलाई को दिलीप कुमार की पहली बरसी है। उन्हें याद करने की कई वजहें हैं : उन्हें ट्रेजडी किंग यानी शहंशाहे जज़बात कहा गया, ये भी कहा गया कि उनके बाद के ज़्यादातर कामयाब हीरो उनकी नक़ल उतारते रहे। फ़िल्मी दुनिया में ‘दिलीप कुमार से पहले और दिलीप कुमार के बाद’ एक लकीर अभी तक खिंची हुई है। हम उन्हें उनकी आत्मकथा से याद कर रहे हैं। उनकी ज़िंदगी के बारे में ‘द सब्सटेंस एंड द शैडो : एन आटोबॉयग्राफी’ में उदय तारा नैयर को जो कुछ उन्होंने बताया है, वह पढ़ने से ताल्लुक़ रखता है।
इसका हिंदी तर्जुमा हमारे डीयू के साथी और मशहूर लेखक ‘जानकीपुल’ वाले प्रभात रंजन ने ‘दिलीप कुमार, वजूद और परछाईं’ शीर्षक से किया है। तर्जुमे में अगर दिलीप कुमार के डिक्शन और अंदाज़ को ज़ह्न में रख लिया जाता तो मज़ा और बढ़ जाता। इसकी भूमिका लिखी है सायरा बानो ने, उनका अपने शौहर के लिए लिखा गया एक एक लफ़्ज़ प्यार से लबरेज़ है। लिखती हैं, ‘दिलीप कुमार बड़े पढ़ाकू रहे हैं। चाहे वह कोई उपन्यास हो, चाहे नाटक या जीवनी, क्लासिक साहित्य के लिए उनका प्यार सबसे बढ़कर था। उर्दू, फारसी और अंग्रेज़ी साहित्य की क्लासिक साहित्यक किताबें हमारे घर के बुकशेल्फ़ की शोभा बढ़ाती थीं। जब उनकी लाइब्रेरी के बुकशेल्फ़ भर गए तो हमें हमेशा इसके लिए तैयार रहना पड़ता था कि कब उनको कौन सी किताब देनी पड़ जाए, जो हमने बड़ी सावधानी से घर के बड़े से स्टोर रूम में सजाकर रखी थीं। बरसों बरस इस जीवन का हिस्सा मैंने उनकी आराम कुर्सी से लगी रीडिंग लैम्प के रात के अंधेरे से लेकर सुबह के उजाले तक चमकती रौशनी के साथ गुज़ारा है। चाहे मुम्बई का घर हो, या जम्मू कश्मीर के डाचीगाम का सुदूर डाक बँगला हो, जहां इस बात पर कोई हैरानी नहीं होती थी जब कोई बालों वाला भालू जंगल से निकल कर हमारे बरामदे में खर्राटे भरता मिल जाता था, या कुल्लू मनाली, स्विट्ज़रलैंड या दुनिया के किसी भी हिस्से में, जहां वे वैसे पढ़ते जैसे कोई बच्चा अपने पसंदीदा खेल में लगा हो, उसके पन्नों से हटने को बिल्कुल तैयार नहीं होते जब तक कि मैं उनसे आराम के लिए बार बार मिन्नतें नहीं करने लगती थी। अगर वह कोई क्लासिक या यूजीन ओ नील, जोसेफ कोनराड, फ्योदोर दास्तोव्यसकी और टेनीसन विलियम्स जैसे लेखकों की कोई किताब नहीं होती थी तो निश्चित तौर पर किसी स्क्रिप्ट या सीन को पढ़ने में डूबे रहते थे अगली सुबह जिसकी शूटिंग होने वाली थी।’
ये तो सायरा बानो ने लिखा, वो खुद अपने बारे में लिखते हैं ‘अंतर्मुखी होने के कारण मुझे अकेले रहना पसंद था, अपनी चीज़ों के साथ। मैंने अपने रिश्ते के भाइयों तथा बाकी बच्चों को अकेला छोड़ दिया, नहीं चाहता था कि उनके साथ बेकार की बहसबाजी में पड़ूं। मुझे याद है कि मैं दादा से यह पूछा करता था कि घर के सामने जो नदी थी वह हमेशा बहती क्यों रहती थी और इसमें पानी कहां से आता था और जाता कहां था।