राकेश अचल। कांग्रेस अध्यक्ष के लिए कांग्रेस की म्यान में एक से बढ़कर एक तलवारें [खड़गें ] भरी पड़ीं हैं। आखिर में अस्सी साल के मल्लिकार्जुन खड़गे अध्यक्ष पद के लिए सामने आये हैं.अब सवाल ये किया जा रहा है कि खड़गे,गांधी परिवार की कठपुतली बनकर काम करेंगे या फिर अपने ढंग से संगठन को चलाएंगे ? वे बाबू जगजीवनराम की तरह काम करेंगे या सीताराम केसरी की तरह ?मै किसी राजनीतिक दल का कार्यकर्ता नहीं हूँ लेकिन कांग्रेस में अध्यक्ष पद के लिए मेरी पसंद दिग्विजय सिंह हैं। ठीक वैसे ही जैसे भाजपा में किसी जमाने में मेरी पसंद मेरे अपने शहर के अटल बिहारी बाजपेयी हुआ करते थे। देश के दूसरे तमाम दलों में अध्यक्ष पद का झगड़ा नहीं है,अधिकाँश में सुप्रीमो होते हैं और वे ताउम्र के लिए होते हैं। अध्यक्ष पद पर ताउम्र बने रहने की गुर हालांकि कांग्रेस ने ही दूसरे राजनीतिक दलों को दिया है.मुश्किल ये है कि कांग्रेस और भाजपा समेत तमाम राजनितिक दलों में अध्यक्ष सुप्रीम होकर भी सुप्रीम नहीं होता।
बात कांग्रेस की चल रही थी,कांग्रेस को एक अध्यक्ष की जरूरत थी। उसके लिए पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का प्रहसन भी किया जाना था,उसकी के तहत गांधी परिवार से हटकर किसी दूसरे नेता को अध्यक्ष बनाने का पिछ्ला रास्ता खोला गया। चुनाव प्रक्रिया शुरू हुई तो शशि थरूर,अशोक गहलोत और दिग्विजय सिंह जैसे अनेक नाम आये। लेकिन अंत में अध्यक्ष पद के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे को कार्यकर्ताओं के सामने खड़ा किया गया.मुमकिन है खड़गे साहब निर्विरोध अध्यक्ष चुन लिए जाएँ और उनके सामने खड़ी कांग्रेस की दूसरी कठपुतलियां मैदान छोड़ दें।
मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस की ऐसी खड्ग हो सकते हैं जो शायद सीताराम केसरी और देवकांत बरुआ से अलग हो। देश ने खड़गे को संसद के दोनों सदनों में पैंतरेबाजी करते हुए देखा है। वे हिंदी में भी बोल लेते हैं इसलिए वे कर्नाटक के बाहर भी जाने-पहचाने जाते हैं. ये बात और है कि उनके पास न पार्टी को नौजवानों की तरह ऊर्जा है और न समय। वे कांग्रेस को दोबारा अपने पांवों पर खड़ा करने के लिए न देशाटन कर सकते हैं और न ही अपने भाषणों से उसमें जान फूंक सकते हैं. ये काम पार्टी के नेता राहुल गांधी कर रहे हैं,और अपने ढंग से काफी ठीक कर रहे हैं।
कांग्रेस के अध्यक्ष पद के चुनाव को लेकर कांग्रेस से ज्यादा तनाव सत्तारूढ़ भाजपा में है।इसी तनाव के चलते भाजपा ने अपने संगठन के अध्यक्ष पद के चुनाव टाल दिए और मौजूदा अध्यक्ष जेपी नड्ढा साहब को एक साल के लिए और काम करने के लिए कह दिया। अब नड्ढा के लिए ये फैसला किसने किया ये कोई नहीं जानता और सब जानते हैं।जाहिर है कि भाजपा का लोकतंत्र भी कांग्रेस के लोकतंत्र की ही तरह है। वहां भी एक परिवार है,जिसकी चलती है। कांग्रेस में भी एक ही परिवार की चलती आ रही है। अब सीधा मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के परिवारवाद के बीच है .
जहां तक बात मल्लिकार्जुन खड़गे की है तो वे भले ही पांच दशक से सियासत में हैं और दलित नेता हैं लेकिन उनकी छवि जगजीवनराम जैसे दलित नेता की नहीं है। वे अजेय हैं,निडर हैं ,फिर भी कांग्रेस के लिए संकट के इस दौर में उतने धारदार नहीं हैं जितने की होने चाहिए। खड्ग संस्कृतका शब्द है। जिसे हम तलवार का रूप कह सकते हें। इसमें दो भाग होते हैं – मूठ और लंबा पत्र। तलवार के पत्र में केवल एक ओर धार होती हैं। खड्ग के दोनों ओर धार होती है। इससे काटना और भोंकना, दोनों कार्य किए जाते हैं।मल्लिकार्जुन खड़गे भी दोधारी तलवार साबित होंगे ये उम्मीद कम है।
भारतीय राजनीति में जाति का बड़ा महत्व है। खड़गे अपनी जाति की वजह से कांग्रेस को कर्नाटक या कर्नाटक के बाहर कितना लाभ करा पाएंगे,ये वक्त ही बताएगा,किन्तु फिलहाल एक बात तय है कि कांग्रेस अध्यक्ष मिलने के बाद राहुल गांधी और उनकी बहन अगले आम चुनाव में खुलकर खेलने के लिए और ज्यादा वक्त निकाल पाएंगे। उन्हें कामयाबी मिलेगी या नहीं,वे गंभीरता से लिए जायेंगे या भाजपा उनकी ‘ पप्पू ‘ छवि को और गहरा करने की कोशिश करेगी ये अभी से कहना कठिन है।
सबसे बड़ी बात ये है कि कांग्रेस अपने जीवनकाल के सबसे कठिन दौर में विभाजन से बच गयी. कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व से आक्रान्त लोग पार्टी छोड़कर भाजपा में चले गए या उन्होंने नाम के लिए अपनी पार्टी बना ली। कांग्रेस के लिए चुनौती बन रहे जी-23 समूह ने भी हथियार डाल दिए एक तरह से ये गांधी परिवार की रणनीति की कामयाबी है। अब संघ परिवार कांग्रेस से निबटने के लिए कौन सा नया पैंतरा खेलगा इस पर हम सबकी नजर रहेगी। भाजपा ने अगला आम चुनाव जीतने के लिए अपनी प्रामाणिक मोदी,शाह और नड्ढा की तिकड़ी को बरकरार रखा है। ये जरूरी भी यहां भाजपा यदि नए अध्यक्ष को लेकर आती तो उसे काम करने का समय होई नहीं मिलता।
मल्लिकार्जुन खड़गे के कांग्रेस अध्यक्ष बनने से विपक्षी एकता में कितना लाभ मिलेगा ये भी गौर करने लायक बात है। यद्द्यपि इस काम में खड़गे की भूमिका सीमित ही होगी किन्तु नगण्य नहीं होगी। बिखरा विपक्ष जर्जर कांग्रेस को अपना नेता मानेगा या नहीं,ये भी भविष्य के गर्त में है। अभी तो सिर्फ एक ही बात है की कांग्रेस अपने तमाम संकटों में से एक अध्यक्ष के संकट से बाहर आती दिखाई दे रही है। कांग्रेस के सामने अध्यक्ष पद के संकट से भी बड़ा एक संकट राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारों को बचाये रखने का है। दोनों ही राज्यों में कांग्रेसियों के बदले सुर भी संकेत दे रहे हैं की मामला सुलझता जा रहा है। अब देश उम्मीद कर सकता है की आने वाले दिनों में सियासत का नया चेहरा सामने आएगा।