#जयप्रकाशउत्तराखंडी सरकार ने लैंसडाउन का नाम बदलकर उसका नाम पुराने दौर का कालो डांडा करने का फैसला कर लिया है.हांलाकि हम जानते हैं कि यह अंकिता के हत्यारों, सरकारी नौकरी बेच खाने वाले सफेदपोशों और भू कानून, मूल निवास जैसे ज्वलंत सवालों से ध्यान भटकाने का घटिया प्रयास है.
यह सही है कि से 19 वीं सदी में आबाद होने से पहले वह जगह ‘कालो डांडा’ ही कहलाती थी, पुराने लोगों ने सदियों पहले काले बादलों से ढकी इस चोटी को काला डांडा(काली चोटी ) नाम दिया होगा, पर उसे 1887 में वीरान जंगलों से गढ़वाल राईफल्स की स्थापना कर शानदार मिल्ट्री छावनी बनाने वाले हमारे पुराने शासक अंग्रेज और आयरिश ही थे, जिसे भारत के तत्कालिन वायसराय लार्ड लैंसडाउन का नाम- लैंसडाउन दिया गया.
एक इतिहासकार के रूप में मेरे पास जितने भी ब्रिटिश कालिन करीब दो सौ साल पुराने दस्तावेज हैं, उनमें सिवाय लैंसडाउन के उनके द्वारा स्थापित किये गये किसी हिल स्टेशन या इलाके की स्थापना के बाद उनके पुराने नाम बदल कर उन्हें ईसाई या अंग्रेजी नाम देने का एक भी उदाहरण नहीं है.
मेरे शहर मसूरी को 1814-20 के बाद बसाने वाले ब्रिटिश फौज की बंगाल आर्मी के ज्यादातर अफसर आयरिश थे, जिसमें आयरलैंड निवासी फ्रेडरिक यंग प्रमुख था, उसने इस नये शहर को यहां के वीरान जंगलों और घाटियों में बहुतायत उगने वाले मन्सूर के पौधे( बाटनीकल नाम-Gariori an Palanesis ) के नाम पर रखा- ‘मसूरी’, मेरे बचपन तक लोग इसे मन्सूरी ही बोलते थे. मैने 27 साल पहले अपनी History book ‘मसूरी दस्तावेज:1815-1995’ में दस्तावेजी तथ्यों के आधार पर लिखा है कि हर बाजार और जगह का नाम पुराने ग्रामीणों के स्थानीय बोलचाल के नामों पर रखा गया था और कहीं पर अपने (अंग्रेजी) या ईसाई नाम थोपने की आज जैसी घटिया हरकत नहीं की गयी थी.
1842 में व्यापारी पीटर बैरेन द्वारा बसाये गये नैनीताल में कहां अंग्रेजी नाम घुसेडा गया, उसने स्थानीय प्राचीन नैना देवी मंदिर और अनेक तालों के ताल का सम्मान करते हुए इस नये शहर को नाम दिया- नैनीताल.
अंग्रेजों द्वारा 1869 में दो फौजी छावनी- रानीखेत और चकरौता बसायी गयी, कुमाऊँ रेजिमेंट के लिए स्थापित ‘रानीखेत’ कत्यूरी राजा सुधार देव की रानी की याद में इसका पुराना नाम- रानीखेत और कर्नल ह्यूम की 55 वी रेजिमेंट के लिए स्थापित छावनी चकरौता स्थानीय नाम पर बसायी गयी.
दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेजों और आयरिश ने अपनी ताकत का प्रदर्शन करते हुए किसी नये शहर या छावनी को बसाते हुए उनपर अंग्रेजीपना या ईसाईयत नहीं थोपी, चाहते तो ऐसा कर सकते थे. और जो जगह उन्होने बनायी या स्थापित कर उउसे सरसब्ज कर हमको दे गये, उनका नाम अगर वे अंग्रेजी भी रख देते तो यह उनका नर्सेगिक अधिकार भी था, पर उन्होने स्थानीय लोक मान्यताओं का हमेशा सम्मान किया.
उन्होने गांव से विकसित शहर बनाने के बाद भी देहरादून, पौडी, अल्मोड़ा के प्राचीन नाम नहीं बदले. उन्होने कैप्टन यंग के द्वारा 1815 के बाद देहरादून में बसायी फौजी छावनी- गढी का नाम नहीं बदला, आज भी वह उसी नाम पर सरकारी फेहरिस्त शुदा है. अपने बंगलों, सडकों के नाम भी उन्होने ज्यादातर प्रकृति आधार पर रखे- ओक्स काटेज(स्थानीय पेड बांज), स्प्रिंग(पानी स्त्रोत) विला आदि. मेरे शहर में 19 वीं सदी के तीसरे दशक में एक अंग्रेज की बनायी कोठी का नाम आज भी Cloud End है, जिसके नाम पर यह इलाका पूरे देश के पर्यटन मानचित्र पर प्रसिद्ध है, अब इसमें बदलने को क्या हुआ?
उधर मुल्लों के देश पाकिस्तान ने आजतक हम हिंदुओं की प्राचीन वेदकालिन तक्षशिला, मौहन जोदड़ो, राम के बेटे लव और कुश के बसाये शहर लाहौर,कसूर और ननकानासाहिब का नाम नही बदला, इसलिए कि वे इतिहास और परम्पराओं का सम्मान करते हैं, पर यहां संघी सरकारें नाम बदल कर इतिहास का कचरा करने में लगी है.इनसे कोई पूछे कि तुमने (कांग्रेस सरकारों ने भी) उत्तराखण्ड में अंग्रेजों के बनायें हिलस्टेशनों और छावनियों में आजादी के बाद एक नयी सडक तक तो बनायी नहीं, फिर नाम बदलकर क्या हासिल करोगे? याद रखना, यूरोप और विदेश पर आधारित उत्तराखण्ड पर्यटन का भठठा बैठेगा अंग्रेजी नाम बदलने के बाद, वे यहां अपने पूर्वजों का इतिहास ढूंढने आते हैं और हमारे पर्यटन को विदेशी करेन्सी दे जाते है.. कल जब उन्हे अपना अतीत नहीं मिलेगा, तो यहां कोई अंग्रेज, आयरलैंड वासी,यूरोपियन या विदेशी नहीं आने वाला..
( फोटो लगभग 1920: लैंसडाउन में नायक दरबान सिहं नेगी को विक्टोरिया क्रास देते हुए अंग्रेज जनरल)