येल्लप्रगड सुब्बाराव ने कैंसर के इलाज के लिए मेथोट्रेक्सेट को विकसित किया जिससे कैंसर का इलाज किया जाता है। इसकी मदद से सुब्बाराव ने लाखों कैंसर पीड़ितों को पूरी तरह ठीक किया । उन्होंने डाईथिलकार्बामैजीन की भी खोज की जोकि हाथी पांव की बीमारी का इलाज करने के लिए एकमात्र अच्छी दवा है।
येल्लप्रगड सुब्बाराव का जन्म (12 जनवरी 1895) तेलुगु नियोगी ब्राह्मण परिवार में भीमावरम, मद्रास प्रेसिडेन्सी (अब पश्चिम गोदावरी जिला, आंध्र प्रदेश) में हुआ था। राजमुंदरी में अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान इन्हें काफी कष्टदायक समय की से गुज़ारना पड़ा (घनिष्ठ सम्बन्धियों की रोगों से अकाल मृत्यु के कारण)। अंततः इन्होने अपनी मेट्रिक की परीक्षा तीसरे प्रयास में हिन्दू हाई स्कूल से पास की। ये काफी लम्बे समय से दस्त से पीड़ित थे और यह रोग काफी उपचारों के बाद नियन्त्रण में आया। उस समय के प्रसिद्ध आयुर्वेदिक चिकित्सक डॉ॰ अचंता लक्ष्मीपति ने इनका इलाज किया जिससे ये ठीक हो गए थे। इन्होने प्रेसिडेंसी कॉलेज से इंटरमिडीएट परीक्षा उत्तीर्ण की और मद्रास मेडिकल कॉलेज में प्रवेश किया, जहां पर इनकी शिक्षा का खर्च मित्रों और कस्तूरी सूर्यनारायण मूर्ति (जिनकी बेटी के साथ आगे चलकर इनकी शादी हुई) द्वारा उठाया गया। महात्मा गाँधी के ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार के आवाहन के सम्मान में इन्होने खादी की शल्य पोषाक पहनना शुरू कर दिया और इसके कारण इन्हें अपने शल्यचिकित्सा के प्रोफेसर एम्. सी. ब्रेडफिल्ड की नाराज़गी का सामना करना पड़ा। हालांकि इन्होने अपने लिखित परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त किये थे, परन्तु इस प्रकरण के कारण इन्हें एक पूर्ण एम्.बी.बी.एस. की डिग्री की बजाय एल.एम.एस. प्रमाणपत्र से संतोष करना पड़ा।
येल्लप्रगड सुब्बाराव ने मद्रास मेडिकल सेवा में प्रवेश करने की कोशिश की परन्तु इन्हें इसमें कोई सफलता हाथ नहीं लगी। इन्होंने फ़िर डॉ॰ लक्ष्मीपति आयुर्वेदिक कॉलेज, मद्रास में शरीररचना-विज्ञान के व्याख्याता के रूप में नौकरी ली। ये आयुर्वेदिक दवाईयों की चिकित्सा शक्तियों से इतने मोहित हुए की ये आयुर्वेद को आधुनिक स्तर पर पह्चान दिलाने के लिए अनुसन्धान में जुट गए।
अमेरिकी चिकित्सक, जो की रॉकफेलर छात्रवृत्ति पर भारतीय दौरा कर रहे थे, उनके साथ संयोग मुलाकात से इनका मन बदल गया। मल्लादी सत्यालिंगा नायकर दानसंस्था के समर्थन के वादे और इनके ससुर द्वारा दी गयी मदद से सुब्बाराव अमरीका के लिए निकल पड़े। 26 अक्टूबर 1922 को बोस्टन पहुंचे थे।
शिक्षा समाप्त करने के बाद उन्होंने आयुर्वेद के क्षेत्र में कई शोध किए। 1920 में उन्हें हार्वर्ड विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला। यहां से पीएचडी की डिग्री लेने का बाद उन्होंने यही से अपने करियर की शुरुआत की।अपने कैरियर का अधिकतर भाग इन्होने अमेरिका में बिताया था लेकिन इसके बावजूद भी ये वहाँ एक विदेशी ही बने रहे और ग्रीन कार्ड नहीं लिया, हालांकि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका के कुछ सबसे महत्वपूर्ण चिकित्सा अनुसंधानों का इन्होने नेतृत्व किया था। एडीनोसिन ट्राइफॉस्फेट के अलगाव के बावजूद इन्हें हार्वर्ड विश्वविद्यालय में प्राध्यापक पद नहीं दिया गया द्वितीय विश्वयुद्ध के समय उन्होंने अमेरिका में हुए कई शोधों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।सुब्बाराव की देख रेख में कार्य करते हुए बेंजामिन डुग्गर ने दुनिया के पहले टेट्रासाइक्लिन एंटीबायोटिक औरोमाइसिन की 1945 में खोज की।
सुब्बाराव की स्मृति दूसरों की उपलब्धियों और इनके अपने स्वयं के हितों को बढ़ावा देने में विफलता के कारण छिप गयी। एक पेटेंट वकील यह देख कर चकित रह गए थे की इन्होंने अपने कार्य से अपना नाम जोड़ने के लिए कोई भी कदम नहीं उठाया था जो की वैज्ञानिक दुनियाभर में नियमित रूप से करते हैं। इन्होंने कभी भी प्रेस को साक्षात्कार के लिए अनुमति नहीं दी और न ही वाहवाही बांटने के लिए अकादमियों का दौरा किया और न ही ये कभी व्याखान दौरे पर गए।
इनके सहयोगी, जॉर्ज हित्चिंग्स, जिन्हें 1988 में एलीयान गेरट्रुद के साथ चिकित्सा का साझा नोबेल पुरस्कार मिला था, का कहना था – “सुब्बाराव द्वारा अलग किये गए न्यूक्लेयोटाइडस कुछ साल बाद अन्य कर्मचारियों द्वारा फिर से खोजे जाने पड़े क्योंकि फिस्के की जाहिर तौर पर ईर्ष्या के कारण सुब्बाराव के योगदान को दिन की रोशनी नहीं देखने दी।” इनके सम्मान में अमेरिकी सायनामिड द्वारा एक फफूंद सुब्बरोमाइसिस स्प्लेनडेंस नामित किया गया था। 8 अगस्त 1948 में 53 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।एजेंसी।