स्मृति शेष। पण्डित मुखराम शर्मा सिनेमा में अपने समय के ख्यातिप्राप्त पटकथा लेखक थे। वे मेरठ से साधारण शख्स के तौर पर मायानगरी बम्बई अब मुंबई पहुँचे थे और फिल्मी दुनिया में कथा, पटकथा और संवाद लेखक के तौर पर महान दर्जा पाया था। फिल्म वितरक मुखराम शर्मा को फोन करके पूछा करते थे कि उनकी अगली फिल्म कौन-सी है और किसके साथ है। उस समय मुखरामजी का जवाब किसी फिल्म के सभी अधिकार रातों-रात बिकवाने की गारंटी हुआ करता था। वे जो लिख रहे होते थे, उसका ट्रैक रखने के लिए वितरक और निर्माता उनके घर के नियमित चक्कर लगाते रहते थे। उनके पास अपनी पसंद के निर्माता और निर्देशकों को अपनी कहानियाँ को बेचने का विशेष अधिकार प्राप्त था।
पंडित मुखराम शर्मा का जन्म 30 मई, 1909 में मेरठ के किला परीक्षितगढ़ क्षेत्र के गाँव पूठी में हुआ था। उन्होंने अपने व्यावसायिक जीवन की शुरुआत हिन्दी और संस्कृत के शिक्षक के रूप में की थी। मुखरामजी मेरठ में ही शिक्षक के पद पर नियुक्त हुए थे, लेकिन शिक्षण कार्य से प्यार करने के बावजूद भी वे अपने भीतर कमी महसूस करते थे। उन्होंने महसूस किया कि शिक्षण उनका असली व्यवसाय नहीं था। फिल्में देखना मुखराम शर्मा जी बहुत पसंद करते थे और प्रभात फिल्म कंपनी और न्यू थियेटर द्वारा बनाई गई फिल्मों के बड़े शौकीन तथा प्रशंसक थे। पत्रिकाओं के लिए लघु कहानियाँ और कविताएँ लिखने वाले मुखराम शर्मा ने निश्चय किया किa अब वे फिल्मों के लिए भी लिखना शुरू करेंगे। वह मेरठ में अपने एक मित्र के पास गए, जो हिन्दी फिल्म उद्योग के साथ जुड़ा हुआ था और मुम्बई आता-जाता रहता था। उन्होंने उसे अपनी एक कहानी सुनाई। दोस्त उनसे इतना प्रभावित हुआ कि उसने मुखरामजी से बम्बई अब मुम्बई आने को कहा। इस प्रकार 1939 में मुखराम शर्मा सपनों के शहर बम्बई अब मुम्बई आ गये। शुरुआत में मुखराम शर्मा जी को सफलता प्राप्त नहीं हुई।
फिल्म निर्माताओं ने इस प्रतिभाशाली लेखक का स्वागत नहीं किया और मुखराम बहुत ही हताशा और निराशा में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ, जो उनके साथ ही बम्बई अब मुंबई रहने आ गये थे, पुणे चले गए। वे प्रभात फिल्म्स, जिसे वी. शांताराम चला रहे थे, पहुँचे और वहाँ चालीस रुपया प्रति माह पर कलाकारो को मराठी सिखाने की जिम्मेदारी स्वीकार कर ली। 1942 में उन्हें राजा नेने द्वारा निर्देशित फिल्म दस बजे के गीत लिखने का मौका मिला, जिसमें उर्मिला और परेश बनर्जी अदाकारी कर रहे थे। फिल्म दस बजे एक सुपर हिट साबित हुई। इस प्रारंभिक सफलता के चलते मुखराम शर्मा को राजा हरिश्चंद्र और तारामती की प्रेम कहानी पर आधारित शोभना समर्थ अभिनीत राजा नेने की अगली फिल्म तारामती लिखने का अवसर मिला। यह फिल्म न सिर्फ एक बड़ी हिट सबित हुई बल्कि मुखरामजी द्वारा इसके तुरंत बाद लिखी गईं अगली दो फिल्मों विष्णु भगवान और नल दमयंती को भी सफलता मिली। किंतु अब मुखराम शर्मा एक बदलाव चाहते थे और उनकी कामना सामाजिक समस्याओं के विषयों पर भी कहानी लिखने की थी। यह अवसर भी मुखराम शर्मा को जल्द ही मिल गया। उन्हें यह मौका तब मिला, जब राजा नेने ने अज्ञात मराठी अभिनेताओ के साथ उनकी एक शुरूआती कहानी पर फिल्म बनायी। लेकिन यह फिल्म असफल रही। इसके बाद उनकी अगली मराठी फिल्म स्त्री जन्मा तुझी कहानी को भारी सफलता मिली। यह फिल्म निर्देशक दत्ता धर्माधिकारी के साथ थी, जिन्होंने मुखरामजी की एक लघु कथा को मराठी में बना डाला था। इस फिल्म की सफलता यादगार रही और बाद में इसे औरत तेरी यही कहानी फिल्म के रूप में हिन्दी में पुनर्निर्मित भी किया गया। इसके बाद हालाँकि उनके पुणे स्थित घर में निर्माताओं का तांता बंध गया था, किंतु मुखरामजी उसकी अनदेखी करके बम्बई अब मुंबई लौट आए।
अब सफलता उनके कदम चूम रही थी। पंडित मुखराम शर्मा की बम्बई अब मुम्बई में फिल्म औलाद थी। जब 1954 में यह फिल्म परदे पर आई तो इसकी सफलता के बाद मुखरामजी ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1955 में अपनी कहानी के लिए पहला फिल्म फेयर पुरस्कार लेने के बाद उन्होंने निम्नलिखित सफल फिल्में लिखीं-वचन एक ही रास्ता दुश्मन साधना संतान बहनें तलाक धूल का फूल समाधि हमजोली वचन स्वप्न सुहाने पतंगा दादी माँ जीने की राह मैं सुन्दर हूँ राजा और रंक दो कलियाँ घराना गृहस्थी प्यार किया तो डरना क्या हमजोली नौकर सौ दिन सास के मुखराम शर्मा जी ने 1958 में एक निर्माता के तौर पर तलाक और संतान सहित आधा दर्जन फिल्में बनाई थीं। सामाजिक समस्याओं पर प्रकाश डालने और अपनी कहानियों के द्वारा उनका हल ढूँढने में उनकी रूचि ने उनके लेखन के पीछे की असली ताकत के रूप में काम किया। उनकी लगभग सभी फिल्में अपनी सामाजिक टिप्पणी और सुधार की दिशा में दिए गए सुझावों के कारण पसंद की जाती थीं।
फिल्म एक ही रास्ता विधवाओं की समस्याओं पर आधारित थी। वचन एक अविवाहित बेटी की कहानी थी, जो अपने परिवार का लालन-पालन करती है। फिल्म स्वप्न सुहाने भाइयों और उनके पारस्परिक संबंधों की कहानी थी, जबकि पतंगा में मालिक और नौकर के बीच के संवेदनशील रिश्ते को प्रमुखता के साथ प्रस्तुत किया गया था। मुखरामजी की सबसे मशहूर फिल्मों में से एक साधना गहरी अंतर्दृष्टि के साथ एक वेश्या के जीवन पर प्रकाश डालती है। यह वकालत करती है कि वेश्यावृत्ति एक ऐसी सामाजिक प्रथा है, जहाँ पुरुष भी समान रूप से जिम्मेदार है और कोई भी वेश्या सबसे पहले एक स्त्री है फिर कुछ और। अपनी इस फिल्म के माध्यम से मुखरामजी जी ने समाज के समक्ष यह बात रखी कि एक वेश्या को समाज द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए। उन्होंने फिल्म के माध्यम से दर्शकों को विश्वास दिलाया कि यह न सिर्फ संभव है बल्कि सही भी है। बॉक्स-ऑफिस पर साधना फिल्म की सफलता ने यह साबित कर दिखाया कि मुखरामजी समय के साथ थे और उन्हें अपने दर्शकों की नब्ज की पूरी तरह समझ थी। फिल्म साधना के निर्माण के बारे में एक दिलचस्प किस्सा भी है। इस फिल्म की कहानी को पूरा करने के बाद मुखरामजी बिमल रॉय के पास गये और उनसे इसका निर्देशन करने के लिए आग्रह किया। बिमल रॉय ने मोहन स्टूडियो में मिलने का सुझाव दिया और कार यात्रा के दौरान मुखरामजी से साधना की कहानी सुनाने को कहा। कहानी सुनते ही बिमल रॉय इसके बोल्ड विषय से प्रभावित होकर तुरंत इसे बनाने पर सहमत हो गये। लेकिन वे एक उलझन में थे कि इस कहानी को दर्शकों द्वारा स्वीकार किया जाएगा या नहीं।
उन्होंने फिल्म का अंत बदलने के लिए एक सुझाव दिया। उनका दावा था कि रजनी (उर्फ चम्पाबाई, अभिनेत्री वैजयंती माला द्वारा निभाया गया चरित्र) चूँकि एक बदनाम औरत है, लोग उसे बहू के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए कहानी को उसकी मौत के साथ समाप्त करना बेहतर होगा। मुखरामजी ने बिमल दा को सुना और ड्राइवर से गाड़ी रोकने को कहा। वे कार से बाहर आ गये, बिमल दा को लगा कि मुखरामजी शंका निवारण अथवा किसी और आवश्यक कार्य हेतु उतरे हैं, परन्तु उनके आश्चर्य का ठिकाना ना रहा, जब मुखरामजी वहाँ से चल दिए। उन्होंने एक टैक्सी ली और सीधे बी.आर.चोपड़ा के पास पहुँचे, जो कहानी को जस का तस फिल्माने के लिए राजी थे। पण्डित मुखराम शर्मा और बी. आर. चोपड़ा ने लम्बे अरसे तक एक साथ काम किया। बी. आर. चोपड़ा उनके अंतिम दिनों तक गहरे दोस्त भी बने रहे। चोपड़ा ने हमेशा अपनी फिल्मों में मुखरामजी के योगदान को भरपूर सराहा तथा उन्हें हमारी सफलता का लेखक (ऑथर ऑफ ऑवर सक्सेस) कह कर उनका सम्मान किया। पण्डित मुखराम शर्मा ने आने वाले वर्षों में एक शानदार सितारे का दर्जा हासिल किया और उनका महत्व इस बात से पता चलता है कि वे अपनी लिखी फिल्म में कहानी, पटकथा और संवाद के लिए अलग-अलग क्रेडिट्स लिया करते थे।
बाद में वे नायडू की फिल्म देवता लिखने के लिए दक्षिण भारत की ओर चले गए। फिर एक के बाद एक एल.वी. प्रसाद की दादी माँ,जीने की राह, मैं सुंदर हूँ, राजा और रंक एवीएम स्टूडियो की दो कलियां,जैमिनी फिल्म्स की घराना,गृहस्थी तथा अन्य निर्माताओं के लिए प्यार किया तो डरना क्या और हमजोली जैसी अनेकों फिल्में लिखते चले गये। ये सभी फिल्में उस समय की बड़ी हिट्स थीं। प्रसिद्धि और सौभाग्य की वर्षा से बिना डिगे पण्डित मुखराम शर्मा ने 70 वर्ष की उम्र में एक लम्बी फिल्मी पारी खेलने के बाद लेखन कार्य से सेवानिवृत्त होने का फैसला कर लिया। 1980 में फिल्म नौकर और सौ दिन सास के प्रदर्शित होने के बाद वे मेरठ वापस लौट आए।
पंडित मुखराम शर्मा ने अपने बेहतरीन काम के लिए कई पुरस्कार भी जीते। 1950 से 1970 तक उनके उल्लेखनीय पुरस्कारों में तीन फिल्मफेयर पुरस्कार भी थे, जो उन्हें फिल्म औलाद, वचन और साधना के लिए मिले थे। 1961 में उन्हें प्रतिष्ठित संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी मिला, जिसे उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से ग्रहण किया था। मुखरामजी मेरठ रत्न पुरस्कार से भी नवाजे गये, जो उन्हें मेरठ को दिए गये अपने उत्कृष्ट योगदान के लिए प्रदान किया गया था। फिल्मों में उनके योगदान के लिए उन्हें इम्पा, और टीवी कलाकार एसोसिएशन से भी सम्मान हासिल हुए। फरवरी 2000 में उनके निधन से थोड़ा पहले उन्हें जी लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। पण्डित मुखराम शर्मा हमेशा जमीन से जुड़े व्यक्ति रहे। वे कड़ी मेहनत की सराहना करते थे और समय के महत्व को भली-भाँति समझते थे। उन्हें नयी कारों का शौक था और उन दिनों में उन्होंने एम्बैसैडर कार का नवीनतम मॉडल भी अपने लिए खरीदा था, किंतु सफलता ने इस साधारण आदमी को नहीं बदला। हालाँकि वे बम्बई अब मुंबई फिल्म सर्किट की बड़ी से बड़ी हस्ती के साथ उठते-बैठते थे, लेकिन उन्होंने इसकी खुमारी को कभी अपने पर हावी नहीं होने दिया।
उनकी दुनिया उनके कमरे तक ही सीमित थी, जो उनका ऑफिस भी था। वे अपनी प्रेरणा ढूँढने के लिए होटल या शहर के बाहर जाना पसंद नहीं करते थे। अपने कमरे में अपने दीर्घकालिक सहयोगी विष्णु मेहरोत्रा के साथ बैठ कर, मुखरामजी रोज सवेरे नियमित तौर पर लेखन करते थे। दोपहर के भोजन बाद वे निर्माताओं से मिलना पसंद करते थे। सफलता ने उन्हें और अधिक विनम्र बनाने और अपनी जड़ों से बांधे रखने में ही सहयोग दिया। 5000 रुपये की वह धनराशि, जो उन्होंने साधना फिल्म के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार द्वारा प्राप्त की थी, पूरी कन्या पाठशाला को दान कर दिये थे। अपनी बढ़ती हुई उम्र में भी मुखरामजी ने लिखने का सिलसिला जारी रखा और कई कहानियाँ तथा आधा दर्जन से भी अधिक उपन्यास प्रकाशित करवाये। अपने बाद के वर्षों में मुखरामजी, जिनका नाम दर्शक फिल्म के पोस्टर्स पर देखने के मुरीद थे, प्रसिद्धि और पैसे की तरफ मुड़ने में जरा भी दिलचस्पी नहीं रखता था। उन्होंने अपने प्रियजनों के बीच अपने शहर में 25 अप्रैल, 2000 को मेरठ में अपनी अंतिम साँस ली। यद्यपि उनके बेटे रामशरण ने स्वप्न सुहाने,देवर भाभी,बहनें और पतंगा फिल्मों के निर्माण के जरिये अपने पिता के पदचिह्नों पर चलने का प्रयास किया, पर मुखरामजी अपने बच्चों को फिल्म उद्योग में लाने के लिए उत्सुक नहीं थे। इसका मुख्य कारण था- उनका अपना प्रारंभिक वर्षों का कठिनतम संघर्ष।एजेन्सी