– वीर विनोद छाबड़ा-ससुर अपने दामाद की बेहतरी के लिए किसी भी सीमा तक चले जाते हैं, ताकि बेटी सुखी रहे. लेकिन एक ससुर विलायत जाने वाले जहाज का लंगर उठने से ठीक पहले बंबई पहुंच गए. उस दौर के ब्राडकास्टिंग के लौह स्तंभ ज़ेड.ए.बुखारी से मिले. भयाक्रांत हो बोले – अगर युद्ध से ग्रस्त लंदन में दामाद पर बम गिरा तो बेटी की ज़िंदगी तबाह हो जायेगी…और बुखारी का दिल एक बाप की इमोशनल स्पीच पर पिघल गया. उन्होंने दामाद को बीबीसी, लंदन ज्वाइन करने की इजाज़त देने का आर्डर कैंसिल कर दिया. ये दामाद थे, राज मेहरा. तकरीबन 180 फ़िल्मों में करैक्टर आर्टिस्ट का रोल करने वाले राज मेहरा 20 मई 913 में बनारस में जन्मे, शिक्षित हुए. फिर दिल्ली आये. सेल्समैन से कैरीयर शुरू किया.
राज मेहरा की पर्सनाल्टी का सबसे स्ट्रांग पॉइंट था, उनकी अहसास से भरी दमदार आवाज़, साफ़ लहज़ा, किसी को भी आसानी से समझाने की कला. दूसरी कला थी, मैनरिज़्म. जो किसी को सहज ही आकर्षित कर लेती थी. किसी ने उन्हें रेडियो के लिए सलाह दी. दिल्ली रेडियो स्टेशन पर ऑडिशन दिया और वो रेडियो आर्टिस्ट हो गए. रेडियो पर चेहरा नहीं दिखता, सिर्फ़ आवाज़ के उतार-चढाव के दम पर श्रोताओं के दिलों में उतरना होता है. और राज मेहरा जल्दी ही छा गए श्रोताओं की दुनिया में. बहुत जल्दी ही वो मुख्य न्यूज़ कमेंटेटर हो गए और फिर प्रोग्राम डायरेक्टर भी. उनकी योग्यता के कारण ही उन्हें बीबीसी लंदन का आकर्षक ऑफर मिला. उन दिनों दूसरा महायुद्ध चल रहा था, हिटलर लंदन पर आये दिन बम गिरा रहा था. जान के खतरे के अंदेशे को भांप ससुर जी ने अपॉइंटमेंट कैंसिल करा दिया. राज मेहरा ने हालात की नज़ाकत को कबूल किया और बंबई में इनफार्मेशन फिल्म्स ऑफ़ इंडिया में बतौर कमेंटेटर ज्वाइन कर लिया. यहां भी उनकी दमदार आवाज़ का डंका बजा.
कुछ समय बाद वो कंपनी बंद हो गयी. मगर राज मेहरा सड़क पर नहीं आये. उनकी आवाज़ के दीवाने प्रोड्यूसर-डायरेक्टर शाहिद लतीफ़, जो सुप्रसिद्ध उर्दू लेखिका इस्मत चुग़ताई के हस्बैंड थे, राजमेहरा को ‘शिक़ायत’ (1948) में रोल का ऑफर देने खुद आये. राइटर कृष्ण चंदर ने भी उन्हें ‘सराय की बहार’ में काम दिया. यानी राज कभी खाली नहीं बैठे. कोई समय ऐसा नहीं गुज़रा जब आधा दर्जन से कम फ़िल्में उनके हाथ में रही हों. उन्हें भांति-भांति के रोल मिले, कभी बाप तो कभी ठेकेदार और कभी जज. मगर पहचान उनकी दमदार आवाज़ ही रही. उनका गोल्डन पीरियड तब शुरू हुआ जब प्रसाद प्रोडक्शन की ‘शारदा’ (1957) में उनकी शानदार परफॉरमेंस पर बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड मिला. इसमें मीना कुमारी उनकी दूसरी पत्नी थीं जो शादी से पहले उनके बेटे राजकपूर से प्यार करती थीं.
यों तो पुलिसवाले की भूमिका में सबसे ज़्यादा जगदीश राज को याद किया जाता है, मगर राज मेहरा भी पीछे नहीं रहे. याद करिये दिलीप कुमार की ‘आज़ाद’ में वो दरोगा हैं जो तफ्तीश करने साईकिल से निकलते हैं. ‘जिस देश में गंगा बहती है’ के कमिश्नर ऑफ़ पुलिस जो राजकपूर की मदद से डाकूओं को आत्मसमर्पण कराते देखे थे. इसके अलावा साजन, नया ज़माना, मेमसाब, नन्हा फरिश्ता, कहीं आर कहीं पार, जवां मोहब्बत, अमीर-गरीब, बदला, दो झूठ, बारूद, चलता पुर्ज़ा, दरिंदा, चोर के घर चोर, बेरहम, मेरी आवाज़ सुनो आदि दर्जनों फ़िल्में हैं जिसमें वो ईमानदार पुलिस वर्दी में दिखे. राज मेहरा की कुछ अन्य यादगार फ़िल्में हैं, चोरी चोरी, तुमसा नहीं देखा, आस का पंछी, मैं चुप रहूंगी, सगाई, झूला, भीगी रात, जब प्यार किसी से होता है, नीला आकाश, वो कौन थी, ज़िद्दी, तीसरी मंज़िल, पत्थर के सनम, राजा जानी, शोर, लोफर आदि. 1986 में ये आवाज़ हमेशा के लिए खामोश हो गयी. सुना है उस वक़्त वो फ़कीरी में जैसे-तैसे वक़्त गुज़ार रहे थे.