पुण्य तिथि पर विशेष- रमाबाई आम्बेडकर ,भारतीय संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आम्बेडकर की पत्नी थीं। उन्हें माता रमाबाई, माता रमाई और ‘रमाताई’ के नाम से भी जाना जाता है। जब भीमराव आम्बेडकर चौदह वर्ष के थे, तभी रमाबाई का विवाह उनसे हो गया था। रमाबाई कर्तव्यपरायण, स्वाभिमानी, गंभीर और बुद्धिजीवी महिला थीं, जिन्होंने आर्थिक कठिनाइयों का सामना सुनियोजित ढंग से किया और घर-गृहस्थी को कुशलतापूर्वक चलाया। उन्होंने हर क़दम पर अपने पति भीमराव आम्बेडकर का साथ दिया और उनका साहस बढ़ाया।
रमाबाई आम्बेडकर का जन्म 7 फ़रवरी, 1898 को के दापोली के निकट वानाड गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम भीकू वालंगकर था। रमाबाई के बचपन का नाम ‘रामी’ था। रामी के माता-पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था। उनकी दो बहनें और एक भाई था। भाई का नाम शंकर था। बचपन में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण रामी और उनके भाई-बहन अपने मामा और चाचा के साथ मुंबई (भूतपूर्व बम्बई) में रहने लगे थे। रामी का विवाह 9 वर्ष की उम्र में सुभेदार रामजी सकपाल के सुपुत्र भीमराव आम्बेडकर से 1906 में हुआ। भीमराव की उम्र उस समय 14 वर्ष थी। तब वे पाँचवी कक्षा में पढ़ रहे थे। विवाह के बाद रामी का नाम रमाबाई हो गया।
भले ही भीमराव आम्बेडकर को पर्याप्त अच्छा वेतन मिलता था, परंतु फिर भी वह कठिन संकोच के साथ व्यय किया करते थे। वहर परेल, मुंबई में इम्प्रूवमेन्ट ट्रस्ट की चाल में मजदूर मौहल्ले में दो कमरों में, जो कि एक-दूसरे के सामने थे, वे रहते थे। वह वेतन का निश्चित भाग घर के खर्चे के लिए अपनी पत्नी रमाबाई को देते थे। रमाबाई जो कर्तव्यपरायण, स्वाभिमानी, गंभीर और बुद्धिजीवी महिला थीं, घर की बहुत ही सुनियोजित ढंग से देखभाल करती थीं। रमाबाई ने प्रत्येक कठिनाई का सामना किया। उन्होंने निर्धनता और अभावग्रस्त दिन भी बहुत साहस के साथ व्यतीत किये। माता रमाबाई ने कठिनाईयां और संकट हंसते-हंसते सहन किये, परंतु जीवन संघर्ष में साहस कभी नहीं हारा। रमाबाई अपने परिवार के अतिरिक्त अपने जेठ के परिवार की भी देखभाल किया करती थीं। वे संतोष, सहयोग और सहनशीलता की मूर्ति थीं। भीमराव आम्बेडकर प्राय: घर से बाहर रहते थे। वे जो कुछ कमाते थे, उसे वे रमाबाई को सौंप देते और जब आवश्यकता होती, उतना मांग लेते थे। रमाबाई घर खर्च चलाने में बहुत ही किफ़ायत बरततीं और कुछ पैसा जमा भी करती थीं। क्योंकि उन्हें मालूम था कि भीमराव आम्बेडकर को उच्च शिक्षा के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ेगी।
रमाबाई सदाचारी और धार्मिक प्रवृत्ति की गृहणी थीं। उन्हें पंढरपुर जाने की बहुत इच्छा रही। पंढरपुर में विठ्ठल-रुक्मणी का प्रसिद्ध मंदिर है, किंतु तब हिन्दू मंदिरों में अछूतों के प्रवेश की मनाही थी। भीमराव आम्बेडकर रमाबाई को समझाते थे कि ऐसे मन्दिरों में जाने से उनका उद्धार नहीं हो सकता, जहाँ उन्हें अन्दर जाने की मनाही हो। कभी-कभी रमाबाई धार्मिक रीतियों को संपन्न करने पर हठ कर बैठती थीं।
जब भीमराव आम्बेडकर अपनी उच्च शिक्षा हेतु अमेरिका गए थे तो रमाबाई गर्भवती थीं। उन्होंने पुत्र रमेश को जन्म दिया। परंतु वह बाल्यावस्था में ही चल बसा। भीमराव के लौटने के बाद अन्य पुत्र गंगाधर उत्पन्न हुआ, परंतु उसका भी बाल्यकाल में ही देहावसान हो गया। उनका इकलौता बेटा यशवंत ही था, परंतु उसका भी स्वास्थ्य खराब रहता था। रमाबाई यशवंत की बीमारी के कारण पर्याप्त चिंताग्रस्त रहती थीं, परंतु फिर भी वह इस बात का पूरा विचार रखती थीं कि डॉ. आम्बेडकर के कामों में कोई विघ्न न आए औरउनकी पढ़ाई खराब न हो। रमाबाई अपने पति के प्रयत्न से कुछ लिखना पढ़ना भी सीख गई थीं।
साधारणतः महापुरुषों के जीवन में यह एक सुखद बात होती रही है कि उन्हें जीवन साथी बहुत ही साधारण और अच्छे मिलते रहे। भीमराव आम्बेडकर भी ऐसे ही भाग्यशाली महापुरुषों में से थे, जिन्हें रमाबाई जैसी बहुत ही नेक और आज्ञाकारी जीवन साथी मिली थी। इस बीच भीमराव आम्बेडकर के सबसे छोटे पुत्र ने जन्म लिया। उसका नाम राजरत्न रखा गया। वह अपने इस पुत्र से बहुत प्यार करते थे। राजरत्न के पहले रमाबाई ने कन्या को जन्म दिया था, वह भी बाल्यकाल में ही चल बसी थी। रमाबाई का स्वास्थ्य खराब रहने लगा। इसलिए उन्हें दोनों लड़कों- यशवंत और राजरत्न सहित वायु परिवर्तन के लिए धारवाड़ भेज दिया गया। भीमराव आम्बेडकर की ओर से अपने मित्र दत्तोबा पवार को 16 अगस्त, 1926 को लिखे एक पत्र से पता लगता है कि राजरत्न भी शीघ्र ही चल बसा। दत्तोबा पवार को लिखा गया पत्र बहुत ही दर्द भरा है। उसमें एक पिता का अपनी संतान के वियोग का दुःख स्पष्ट दिखाई देता है। उस पत्र में डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने लिखा कि- “हम चार सुन्दर रूपवान और शुभ बच्चे दफन कर चुके हैं। इनमें से तीन पुत्र थे और एक पुत्री। यदि वे जीवित रहते तो भविष्य उनका होता। उनकी मृत्यु का विचार करके हृदय बैठ जाता है। हम बस अब जीवन ही व्यतित कर रहे हैं। जिस प्रकार सिर से बादल निकल जाता है, उसी प्रकार हमारे दिन झटपट बीतते जा रहे हैं। बच्चों के निधन से हमारे जीवन का आनंद ही जाता रहा और जिस प्रकार बाईबल में लिखा है, “तुम धरती का आनंद हो। यदि वह धरती को त्याग जाये तो फिर धरती आनंदपूर्ण कैसे रहेगी?” मैं अपने परिक्त जीवन में बार-बार अनुभव करता हूँ। पुत्र की मृत्यू से मेरा जीवन बस ऐसे ही रह गया है, जैसे तृणकांटों से भरा हुआ कोई उपवन। बस अब मेरा मन इतना भर आया है कि और अधिक नहीं लिख सकता।”
डॉ. भीमराव आम्बेडकर जब अमेरिका में थे, उस समय रमाबाई ने बहुत कठिन दिन व्यतीत किये। पति विदेश में हो और खर्च भी सीमित हों, ऐसी स्थिती में कठिनाईयाँ पेश आनी एक साधारण सी बात थी। रमाबाई ने यह कठिन समय भी बिना किसी शिकायत के बड़ी वीरता से हंसते-हंसते काट लिया। भीमराव आम्बेडकर प्रेम से रमाबाई को ‘रमो’ कहकर पुकारा करते थे। दिसम्बर, 1940 में भीमराव आम्बेडकर ने जो पुस्तक “थॉट्स ऑफ़ पाकिस्तान” लिखी, वह उन्होंने अपनी पत्नी ‘रमो’ को भेंट की। भेंट के शब्द इस प्रकार थे-मैं यह पुस्तक रमो को उसके मन की सात्विकता, मानसिक सदवृत्ति, सदाचार की पवित्रता और मेरे साथ दुःख झेलने में, अभाव व परेशानी के दिनों में जब कि हमारा कोई सहायक न था, अतीव सहनशीलता और सहमति दिखाने की प्रशंसा स्वरूप भेंट करता हूँ।उपरोक्त शब्दों से स्पष्ट है कि रमाबाई ने भीमराव आम्बेडकर का किस प्रकार संकटों के दिनों में साथ दिया और डॉ. आम्बेडकर के हृदय में उनके लिए कितना आदर-सत्कार और प्रेम था।
भीमराव आम्बेडकर का पारिवारिक जीवन उत्तरोत्तर दुःखपूर्ण होता जा रहा था। उनकी पत्नी रमाबाई प्रायः बीमार रहती थीं। वायु-परिवर्तन के लिए वह पत्नी को धारवाड भी ले गये, परंतु कोई अन्तर न पड़ा। भीमराव आम्बेडकर के तीन पुत्र और एक पुत्री देह त्याग चुके थे। वे बहुत उदास रहते थे। 27 मई, 1935 को तो उन पर शोक और दुःख का पर्वत ही टूट पड़ा। उस दिन नृशंस मृत्यु ने उनसे पत्नी रमाबाई को भी छीन लिया। दस हज़ार से अधिक लोग रमाबाई की अर्थी के साथ गए। डॉ. आम्बेडकर की उस समय की मानसिक अवस्था अवर्णनीय थी। उनका अपनी पत्नी के साथ अगाध प्रेम था। उनको विश्वविख्यात महापुरुष बनाने में रमाबाई का ही साथ था। रमाबाई ने अतीव निर्धनता में भी बड़े संतोष और धैर्य से घर का निर्वाह किया और प्रत्येक कठिनाई के समय उनका साहस बढ़ाया। उन्हें रमाबाई के निधन का इतना धक्का पहुंचा कि उन्होंने अपने बाल मुंडवा लिये। उन्होंने भगवे वस्त्र धारण कर लिये और गृह त्याग के लिए साधुओं का सा व्यवहार अपनाने लगे। वह बहुत उदास, दुःखी और परेशान रहते थे। वह जीवन साथी जो ग़रीबी और दुःखों के समय में उनके साथ मिलकर संकटों से जूझता रहा और अब जब कि कुछ सुख पाने का समय आया तो वह सदा के लिए बिछुड़ गया।एजेंसी।