9 अगस्त पर विशेष। दीवान सुशील पुरी । क्रांतिकारियों जो फांसी पर चढ़ गए वो भी एक माँ के लाल थे। देश की आजादी के लिए उनके अंदर एक जज्बा था। आज जो हम खुली सांस ले रहे हैं ,वह इन्हीं क्रांतिकारियों के कृपा से ले पा रहे हैं। क्रांतिकारियों जैसे अशफाकउल्ला खां , चंद्रशेखर आज़ाद , राजेंद्रनाथ लाहिड़ी , ठाकुर रोशन सिंह , राम प्रसाद बिस्मिल एवं ‘‘हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन‘‘ के केवल 10 सदस्यों ने काकोरी कांड को अंजाम दिया। ये छोटी सी दिखने वाली घटना नें तत्कालीन ब्रिटिश सरकार की नींव हिला कर रख दी थी। काकोरी कांड से केवल 8000/- मिला था जो इस समय के लाखों के बराबर था। चंद्रशेखर आज़ाद जी हर एक्शन में आगे रहे लेकिन वह कभी पकडे नहीं गए। ये लोग लखनऊ के ‘छेदीलाल धर्मशाला‘ में ठहरे थे। वे लोग एक टोली में नहीं बल्कि अलग-अलग अपरिचित व्यक्तियों के रूप में ठहरे थे। 8 अगस्त ,1925 को लखनऊ से पश्चिम की ओर रवाना हुए किन्तु अगले स्टेशन के सिग्नल के नजदीक भी नहीं पहुंचे थे कि 8 डाउन सहारनपुर लखनऊ पैसेंजर ट्रेन सामने से आ रही थी, इसलिए उस दिन कोई एक्शन नहीं हो सका। अगले दिन 9 अगस्त,1925 को सब लोग लखनऊ से पश्चिम की तरफ जाने वाली गाड़ी में अलग-अलग डिब्बे में सवार हुए और काकोरी स्टेशन पर उतर गए। उधर से 8 डाउन सहारनपुर एक्सप्रेस हर स्टेशन से खजाना इकठ्ठा होते हुए आ रही थी। उसमें अशफाकउल्ला खां , राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और शचीन्द्रनाथ बख्शी ने सेकेण्ड क्लास के टिकट लिए और ट्रेन में बैठ गए और बाकी लोग भी आगे बढ़कर साधारण क्लास में बैठ गए। सेकेण्ड क्लास में जो बैठे थे उनको जंजीर खींचने का काम सौंपा गया कि जंजीर खींचकर गाडी खड़ी करे। उनकी योजना थी कि जैसे ही गाडी रुके गार्ड को पकड़ लेंगे और खजाना को कब्जे में ले लेंगे। जैसे ही गाडी रुकी सब गाडी से उतर पड़े और फ़ौरन गार्ड को पेट के बल लिटा दिया गया और यात्रियों से कहा कि हमारी आपसे कोई दुश्मनी नहीं है। आपलोग अपने-अपने स्थान पर बैठे रहें। संदूक में प्रत्येक स्टेशन से जो खजाना इकट्ठा होता हुआ आया था उसे धकेल कर नीचे गिरा दिया गया। इस संदूक को तोड़ने के लिए एक बड़ा हथौड़ा और छेनी पहले से तैयार की गई थी। कई लोग इस संदूक को तोड़ने में लग गए लेकिन संदूक टूट नहीं रहा था तो अशफाक जी ने अपना माउजर मन्मथ नाथ गुप्त जी को पकड़ा दिया और खुद तोड़ने में लग गए। उन्होंने इस प्रकार हथौड़े की चोटें मारी की शीघ्र ही संदूक टूट गया और उसमें से 8000/- निकला जिसका जिक्र मैं पहले भी कर चुका हूँ। उधर मन्मथ नाथ गुप्त जी से उत्सुकता वश ट्रिगर दब गया और उस से छूटी गोली अहमद अली नाम के एक यात्री को लग गई जिससे वहीं पर उनकी मृत्यु हो गई। वहां से भागने पर एक चादर वहां छूट गई जो क्रांतिकारियों पर भाड़ी पड़ा। ब्रिटिश सरकार ने इस डकैती को बड़ी गंभीरता से लिया। खुफिया तसद्दुक हुसैन (जो अशफाकउल्ला जी का रिस्तेदार था) ने ब्रिटिश सरकार को बताया कि यह सुनियोजित षड्यंत्र है और चादर जो घटनास्थल पर छूट गई थी उसमें धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहांपुर के किसी व्यक्ति का है , फिर धोबियों से पूछने पर पता चला कि चादर बनारसी लाल का है, और उससे सारा भेद पुलिस ने ले लिया।
यह कोई ट्रेन डकैती नहीं थी बल्कि क्रांतिकारियों का मकसद था देश को आजाद कराने के लिए खजाना लूटकर हथियार खरीदना। इस ऐतिहासिक मामले में 40 व्यक्तियों को अपराधी ठहराया गया था। काकोरी कांड में वास्तविक तौर पर 10 लोग ही शामिल थे। उनमें से राम प्रसाद बिस्मिल , राजेंद्रनाथ लाहिड़ी , ठाकुर रोशन सिंह एवं अशफाकउल्ला खां को फांसी दी गई। 19 दिसंबर 1927 को राम प्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में फांसी दे दी गई। फांसी के एक दिन पूर्व बिस्मिल जी के माता-पिता और छोटा भाई सुशील उनसे अंतिम मुलाकात करने जेल गए। मां को देखकर बिस्मिल जी की आंखों में आंसू आ गए। सबको यह डर था कि मां दहाड़ मार कर रो पड़ेंगी। लेकिन मां ने कहा तुम्हें कल फांसी लगने वाली है आज तुम्हारी आंखों में आंसू ? मेरे पास कोई मिलने आता था तो मैं कहती थी कि मेरा बेटा हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ेगा। अच्छा होता कि तुम मेरी कोख से जन्म नहीं लेता। इस पर बिस्मिल जी ने कहा मां यह आंसू कमजोरी के नहीं बल्कि प्रार्थना के हैं , कि मेरा अगला जन्म भी आप जैसी वीरांगना मां की कोख से ही हो। राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को 17 दिसंबर,1927 को गोण्डा के जिला कारागार में फांसी दे दी गई। राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी सुबह नियमानुसार दंड बैठक लगा कर स्नान किया और गीता का पाठ किया। जेल वाले उनकी गतिविधियों का अवलोकन कर रहे थे कि जो व्यक्ति 5 मिनट बाद नहीं रहेगा, वह दंड-बैठक लगा रहा है और गीता का पाठ पढ़ रहा है। लाहिड़ी जी ने कहा कि मैं जानता हूं कि मैं कुछ देर बाद नहीं रहूंगा। लेकिन आपको मालूम है , मैं हिंदू हूं , मुझे अटल विश्वास है कि मैं मरने नहीं पुनर्जन्म लेने जा रहा हूँ। ठाकुर रोशन सिंह को 19 दिसंबर,1927 को मलाका/नैनी जेल, इलाहाबाद में फांसी हो गई। वह भी पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे।
कुछ लोग फरार थे जैसे चंद्रशेखर आज़ाद, असफाकउल्ला खां और शचीन्द्रनाथ बख्शी। असफाकउल्ला खां को दिल्ली और शचीन्द्रनाथ बख्शी को भागलपुर से अवरुद्ध किया, जब काकोरी कांड के प्रकरण का फैसला सुनाया जा चुका था। न्यायाधीश जे.आर.डब्ल्यू. बैनट की न्यायलय में काकोरी षड़यंत्र का प्रकरण दर्ज हुआ और 13 जुलाई,1927 को इन दोनों पर सरकार के विरुद्ध साजिश रचने का संगीन आरोप लगाते हुए अशफाकउल्ला खां को फांसी और शचीन्द्रनाथ बख्शी को आजीवन कारावास (काला पानी) की सजा हुई। ‘‘यंग जेनेरशन डज नॉट नो अबाउट कालापानी पनिशमेंट गिवेन बाई ब्रिटिशर्स टिल डेथ‘‘। एक क्रन्तिकारी को दूसरे क्रांतिकारियों का मैला ढोना पड़ता था , कोल्हू का बैल बनना पड़ता था। हाथ की चक्की से आटा पीसना पड़ता था। जब किसी कैदी को पेशाब आता था तो एक घड़े में ही करना पड़ता था , जब घड़ा भर जाता था तो उस दिन जिस क्रान्तिकारी कैदी की बारी होती थी,उसे बाहर पेशाब बहाना पड़ता था तथा इस तरह की अन्य कई यातनाएँ झेलनी पड़ती थी। कई क्रांतिकारियों ने तो इस कार्य में आत्महत्या तक कर ली थी।
मुक़दमे के दौरान अशफाकउल्ला खां जी ने एक शेर कहा था , ‘‘चलो-चलो यारों रिंग थियेटर दिखाएं। वहाँ पर लिबरल, जो चंद टुकड़ों पर सीमोजर का नया तमाशा दिखा रहा है।‘‘ दरअसल यह शेर सरकारी वकील पंडित जगत नारायण मुल्ला पर सुनाया गया था। अशफाकउल्ला खां जी को फैज़ाबाद जिला जेल में 19 दिसंबर,1927 को फांसी दे दी गई। 7 मार्च, 1925 में बिचपुरी तथा 24 मई 1925 को द्वारकापुर में डकैती डाली गई लेकिन विशेष धन प्राप्त नहीं हो सका । जिसमें आजाद जी छत पर से गोली चलाते रहे जिसमें एक किसान की गोली लगने से मृत्यु हो गई थी। इस खबर से सबको आत्मग्लानि सी महसूस हुई तो यह निर्णय लिया गया कि अब घरों में डकैती ना डालकर किसी बैंक या सरकारी खजाना को लूटा जाए। जिसका अशफाकउल्ला जी ने विरोध किया कि यह कहकर कि ब्रिटिश सरकार हमारे पीछे पड़ जायेगी और पार्टी का अंत हो जाएगा और ऐसा ही हुआ।
गाजीपुर में साधुओं का अच्छा-खासा मठ था। जिसकी आय भी काफी अच्छी थी। एक दिन उसका महंत बीमार हो गया और क्रांतिकारी राम कृष्ण खत्री से मिला ,जिससे वह परिचित थे। महंत जी ने खत्री जी से कहा कि कोई सुशील लड़का बताइये जो मेरी सेवा कर सके। मैं उन्हें मठ का उत्तराधिकारी बना दूंगा । चंद्रशेखर आजाद जी पास में ही बैठे यह सब सुन रहे थे। उन्होंने कहा कि मुझसे अच्छा शिष्य कोई नहीं हो सकता क्योंकि मैं जात का पंडित हूँ। इस पर उनके साथियों ने कहा कि तुम पागल हो गए हो ? पार्टी का काम कौन करेगा ? शिष्य बनोगे तो सर मुड़वाना पडेगा , गुरुमुखी पढ़नी पड़ेगी तथा पशुओं (गाय-भैंस ) का गोबर भी उठाना पड़ेगा। आजाद जी ने कहा देश कि आजादी के लिए मैं सब कुछ कर लूँगा। फिर सभी क्रांतिकारियों ने उन्हें पूर्ण सहमति से मठ पहुंचा दिया। थोड़े दिनों बाद राम कृष्ण खत्री एवं मन्मथ नाथ गुप्त आजाद जी से मिलने मठ गए। आजाद जी ने कहा महंत अस्वस्थता से ठीक हो गया हैं और रोज दो किलो दूध पीता है और अब यह मरने वाला नहीं है। फिर आजाद जी वहां से भागकर बनारस चले आये । धन इकठ्ठा करने का कोई चारा नजर नहीं आ रहा था इसलिए उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर 9 अगस्त,1925 को काकोरी काण्ड को अंजाम दिया।
(लेखक: ’’शहीद स्मृति समारोह समिति’’ के उपाध्यक्ष एवं कोषाध्यक्ष थे)