आदिकवि वाल्मीकि उन्होने संस्कृत में रामायण की रचना की। उनके द्वारा रची रामायण वाल्मीकि रामायण कहलाई। जो कि राम के जीवन के माध्यम से हमें जीवन के सत्य से, कर्तव्य से, परिचित करवाता है। वाल्मीकि ने संस्कृत के प्रथम महाकाव्य की रचना की थी जो रामायण के नाम से प्रसिद्ध है। प्रथम संस्कृत महाकाव्य की रचना करने के कारण वाल्मीकि आदिकवि कहलाये।
महाकवि वाल्मीकि का वंश इस प्रकार है -ब्रह्मा, प्रचेता और वाल्मीकि। वाल्मीकि रामायण के उत्तर काण्ड सर्ग 16 श्लोक में वाल्मीकि ने कहा है, राम मैं प्रचेता का दशवाँ पुत्र हुँ। मनुस्मृति में लिखा है प्रचेता ब्रह्मा का पुत्र था। रामायण के नाम से प्रचलित कई पुस्तको में भी महाकवि वाल्मीकि ने अपना जन्म ब्राह्मण कुल में बताया है। एक बार वाल्मीकि एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि बहेलिये ने प्रेम-मग्न क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके इस विलाप को सुन कर वाल्मीकि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा।
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥’
हे दुष्ट, तुमने प्रेम मे मग्न क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी। और तुझे भी वियोग झेलना पड़ेगा।
उसके बाद उन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य “रामायण” (जिसे कि “वाल्मीकि रामायण” के नाम से भी जाना जाता है) की रचना की और “आदिकवि वाल्मीकि” के नाम से अमर हो गये।
अपने महाकाव्य “रामायण” में अनेक घटनाओं के घटने के समय सूर्य, चंद्र तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया है। इससे ज्ञात होता है कि वे ज्योतिष विद्या एवं खगोल विद्या के भी प्रकाण्ड ज्ञानी थे।
अपने वनवास काल के मध्य “राम” महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में भी गये थे।
देखत बन सर सैल सुहाए। वाल्मीक आश्रम प्रभु आए॥
तथा जब “राम” ने अपनी पत्नी सीता का परित्याग कर दिया तब महर्षि वाल्मीकि ने ही सीता को आसरा दिया था।
उपरोक्त उद्धरणों से सिद्ध है कि महर्षि वाल्मीकि को “राम” के जीवन में घटित प्रत्येक घटनाओं का पूर्णरूपेण ज्ञान था। उन्होने श्रीहरि विष्णु को दिये श्राप को आधार मान कर अपने महाकाव्य “रामायण” की रचना की।
आदिकवि वाल्मीकि के जन्म होने का कहीं भी कोई विशेष प्रमाण नहीं मिलता है। सतयुग, त्रेता और द्वापर तीनों कालों में वाल्मीकि का उल्लेख मिलता है वो भी वाल्मीकि नाम से ही। रामचरित्र मानस के अनुसार जब राम वाल्मीकि आश्रम आए थे तो वो आदिकवि वाल्मीकि के चरणों में दण्डवत प्रणाम करने के लिए जमीन पर डंडे की भांति लेट गए थे और उनके मुख से निकला था “तुम त्रिकालदर्शी मुनिनाथा, विश्व बिद्र जिमि तुमरे हाथा।” अर्थात आप तीनों लोकों को जानने वाले स्वयं प्रभु हो। ये संसार आपके हाथ में एक बेर के समान प्रतीत होता है।]
महाभारत काल में भी वाल्मीकि का वर्णन मिलता है जब पांडव कौरवों से युद्ध जीत जाते हैं तो द्रौपदी यज्ञ रखती है,जिसके सफल होने के लिये शंख का बजना जरूरी था और कृष्ण सहित सभी द्वारा प्रयास करने पर भी पर यज्ञ सफल नहीं होता तो कृष्ण के कहने पर सभी वाल्मीकि से प्रार्थना करते हैं। जब वाल्मीकि वहां प्रकट होते हैं तो शंख खुद बज उठता है और द्रौपदी का यज्ञ सम्पूर्ण हो जाता है। इस घटना को कबीर ने भी स्पष्ट किया है “सुपच रूप धार सतगुरु आए। पांडों के यज्ञ में शंख बजाए