पुण्य तिथि पर विशेष-स्वप्निल संसार। Balraj Sahniहिन्दी फिल्मों के प्रसिद्ध अभिनेता थे। । बलराज साहनी ख्याति प्राप्त लेखक भीष्म साहनी के बड़े भाई व चरित्र अभिनेता परिक्षत साहनी के पिता थे। वे रंगमंच और सिनेमा की अप्रतिम प्रतिभा थे। बलराज साहनी को ऐसे अभिनेता के रूप में जाना जाता था, जिन्हें रंगमंच और फिल्म दोनों ही माध्यमों में समान दिलचस्पी थी। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे अपने सशक्त अभिनय से दर्शकों को पर्दे के पात्र से भावनात्मक रूप से जोड़ देते थे।
रावलपिंडी में एक मध्यम वर्गीय व्यवसायी परिवार में 1 मई, 1913 को बलराज साहनी का जन्म हुआ था। उनका मूल नाम युधिष्ठर साहनी था। बलराज साहनी का झुकाव बचपन से ही पिता के पेशे की ओर न होकर अभिनय की ओर था। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में स्नात्तकोत्तर की शिक्षा लाहौर के मशहूर गवर्नमेंट कॉलेज से पूरी की थी। पढ़ाई पूरी करने के बाद बलराज साहनी रावलपिंडी लौट गये और पिता के व्यापार में उनका हाथ बंटाने लगे। 1930 के अंत मे बलराज साहनी और उनकी पत्नी दमयंती रावलपिंडी को छोड़कर गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर के शांति निकेतन पहुंचे, जहां बलराज साहनी अंग्रेजी के शिक्षक नियुक्त हुए। 1938 में बलराज साहनी ने महात्मा गांधी के साथ भी काम किया। इसके एक वर्ष के पश्चात महात्मा गांधी के सहयोग से बलराज साहनी को बी.बी.सी के हिन्दी के उदघोषक के रूप में इंग्लैंड में नियुक्त किया गया। लगभग पांच वर्ष के इग्लैंड प्रवास के बाद वह 1943 में भारत लौट आये। बलराज साहनी अपने बचपन का शौक पूरा करने के लिये इंडियन प्रोग्रेसिव थियेटर एसोसियेशनश् में शामिल हो गये। इप्टा में 1946 में उन्हें सबसे पहले फणी मजमूदार के नाटक इंसाफ में अभिनय करने का मौका मिला। इसके साथ ही ख्वाजा अहमद अब्बास के निर्देशन में इप्टा की ही निर्मित फिल्म धरती के लाल में भी बलराज साहनी को बतौर अभिनेता काम करने का मौका मिला। इप्टा से जुडे रहने के कारण बलराज साहनी को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उन्हें अपने क्रांतिकारी और कम्युनिस्ट विचारों के कारण जेल भी जाना पडा। उन दिनों वह फिल्म हलचल की शूटिंग में व्यस्त थे और निर्माता के आग्रह पर विशेष व्यवस्था के तहत फिल्म की शूटिंग किया करते थे। शूटिंग खत्म होने के बाद वापस जेल चले जाते थे। साम्यवादी विचारधारा के मुखर समर्थक साहनी जनमानस के अभिनेता थे, जो अपने सशक्त अभिनय से दर्शकों को पर्दे के पात्र से भावनात्मक रूप से जोड़ देते थे। जब पर्दे पर वह अपनी दो बीघा जमीन फिल्म में जमीन गंवा चुके मजदूर, रिक्शा चालक की भूमिका में नजर आए तो कहीं से नहीं महसूस हुआ कि कोलकाता की सड़कों पर रिक्शा खींच रहा रिक्शा चालक शंभु नहीं बल्कि कोई स्थापित अभिनेता है। दरअसल पात्रों में पूरी तरह डूब जाना उनकी खूबी थी। यह काबुली वाला, लाजवंती, हकीकत,दो बीघा जमीन धरती के लाल, गर्म हवा, वक्त, दो रास्ते सहित उनकी किसी भी फिल्म में महसूस किया जा सकता है। बलराज साहनी का फिल्मों में आना संयोग ही रहा था। उन्होंने हंस पत्रिका को एक कहानी लिखी थी, जो अस्वीकृत होकर लौट आई। उन्होंने खुद ही लिखा है कि- वह उन भाग्यशाली लेखकों में थे जिनकी भेजी हुई कोई रचना अस्वीकृत नहीं हुई थी। लेकिन बीच में चार साल तक उन्होंने कोई कहानी नहीं लिखी। छूटे अभ्यास को बहाल करने का प्रयास करते हुए उन्होंने एक कहानी लिखी और उसे हंस पत्रिका को भेज दिया, लेकिन वह अस्वीकृत होकर वापस आ गई। इससे उनके स्वाभिमान को ठेस लगी और उसके बाद उन्होंने कोई कहानी नहीं लिखी। उन्होंने अपने एक आलेख में लिखा था कि फिल्मों का मार्ग अपनाने का कारण वह अस्वीकृत कहानी भी रही। 1953 में बिमल राय के निर्देशन मे बनी फिल्म दो बीघा जमीन बलराज साहनी के कैरियर मे अहम पड़ाव साबित हुई। फिल्म दो बीघा जमीन की कामयाबी के बाद बलराज साहनी शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे। इस फिल्म के माध्यम से उन्होंने एक रिक्शावाले के किरदार को जीवंत कर दिया। रिक्शावाले को फिल्मी पर्दे पर साकार करने के लिये बलराज साहनी ने कलकत्ता की सड़कों पर 15 दिनों तक खुद रिक्शा चलाया और रिक्शेवालों की जिंदगी के बारे में उनसे जानकारी हासिल की। फिल्म की शुरूआत के समय निर्देशक बिमल राय सोचते थे कि बलराज साहनी शायद ही फिल्म मे रिक्शावाले के किरदार को अच्छी तरह से निभा सकें। वास्तविक जिंदगी मे बलराज साहनी बहुत पढे लिखे इंसान थे। लेकिन उन्होंने बिमल राय की सोच को गलत साबित करते हुये फिल्म में अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया। दो बीघा जमीन को आज भी भारतीय फिल्म इतिहास की सर्वश्रेष्ठ कला फिल्मों में शुमार किया जाता है। इस फिल्म को अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी काफी सराहा गया तथा कांस फिल्म महोत्सव के दौरान इसे अंतराष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। फिल्म ‘हलचल’ के ठीक बाद बलराज साहनी को जिया सरहदी की फिल्म ‘हम लोग’ का प्रस्ताव मिला था। इसमें उन्हें एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार के बेरोजगार युवक की भूमिका मिली। यह पहली फिल्म थी, जिसमें बलराज काफी हद तक अपने रंग में नजर आये और कैमरे के सामने की उनकी अकड़न खत्म-सी हो गयी। ‘हम लोग’ सफल रही और बलराज के अभिनय को काफी सराहा गया। अब वे आर्थिक रूप से भी बेहतर स्थिति में थे। ‘दो बीघा जमीन’ में तो उनकी प्रतिभा पूरी तरह परवान चढ़ गई थी। वे अपने किरदार के साथ एकाकार हो गये और एक बेहतरीन स्क्रीन अभिनेता के तौर पर उनकी पहचान स्थापित हो गयी। मुंबई के उपनगर जोगेश्वरी में दूध वालों की एक बस्ती थी। ये दूध वाले उत्तर प्रदेश से थे। जिस दिन बलराज को ‘दो बीघा जमीन’ के लिए चुना गया, उस दिन से ही उन्होंने जोगेश्वरी के इन दूध वालों की कॉलोनी में जाना शुरू कर दिया। वे गौर से दूध वालों के जीवन को देखा करते थे। उनके बातचीत करने, उठने-बैठने के तरीके पर गौर करते थे। उन्होंने लिखा है कि- दो बीघा जमीन’ में मेरी सफलता के पीछे इन दूध वालों की जिंदगी का नजदीकी मुआयना काफी काम आया। फिर कलकत्ता में शूटिंग के दौरान उनकी बिहार से आये एक रिक्शे वाले से मुलाकात हुई।
जब बलराज साहनी ने उस रिक्शे वाले को फिल्म की कहानी सुनाई तो वह रोने लगा और उसने बताया कि यह तो बिल्कुल मेरी कहानी है। उसके पास भी दो बीघा जमीन थी, जो उसने एक जमींदार के पास गिरवी रखी थी और वह उसे छुड़ाने के लिए पिछले पंद्रह साल से कलकत्ता में रिक्शा चला रहा था। हालांकि उसे उम्मीद नहीं थी कि वह उस जमीन को कभी हासिल कर पायेगा। इस अनुभव ने बलराज साहनी को बदल कर रख दिया। उन्होंने खुद से कहा कि-मुझ पर दुनिया को एक गरीब, बेबस आदमी की कहानी बताने की जिम्मेदारी डाली गयी है, और मैं इस जिम्मेदारी को उठाने के योग्य होऊं या न होऊं, मुझे अपनी ऊर्जा का एक-एक कतरा इस जिम्मेदारी को निभाने में खर्च करना चाहिए।बलराज साहनी बेहतरीन साहित्यकार भी थे, जिन्होंने पाकिस्तान का सफर और रूसी सफरनामा जैसे चर्चित यात्रा वृतांतों की रचना की, जिनमें उन देशों की राजनीतिक, भौगोलिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थतियों का शानदार चित्रण किया गया है। बलराज साहनी की मृत्यु 13 अप्रैल 1973 को मुंबई में हुई थी