जयंती पर विशेष-माखीजानी मैक मोहन 24 अप्रैल 1938 को करांची में पैदा हुए 218 फिल्मों में उन्होंने काम किया। शर्त, मोर्चा, ईमान धर्म, ‘ज़ंजीर’, ‘डॉन’, ‘शान’ रफू चक्कर चलते चलते क़र्ज़। मैकमोहन को बचपन से ही क्रिकेट का शौक था और वो क्रिकेटर बनना चाहते थे। 1940 में उनके पिता का ट्रांसफर कराची से लखनऊ हो गया, फिर मैकमोहन की शुरुआती पढ़ाई लखनऊ में ही हुई।
मैक मोहन ने सुनील दत्त के साथ कुछ वक्त लखनऊ में भी गुज़ारा। दत्त साहब उन दिनों लखनऊ की गन्ने वाली गली के मकान न. 102 में रहते थे तब उनका नाम अख्तर था। सिर्फ मकान हासिल करने के लिए बलराज अख्तर बने थे। इसके बाद कुछ दिनों के लिए वो मसूरी भी रहे। मैकमोहन ने कहा था कि उन्होंने उत्तर प्रदेश की क्रिकेट टीम के लिए भी खेला था। फिर एक वक्त ऐसा भी आया जब उन्होंने तय कर लिया कि अब उन्हें क्रिकेटर बनना ही है। उन दिनों क्रिकेट की अच्छी ट्रेनिंग सिर्फ बम्बई अब मुंबई में दी जाती थी, वहां कई क्रिकेट ऐकेडमी हुआ करती थीं।
मैकमोहन 1952 में बम्बई अब मुंबई आ गए। लेकिन बम्बई अब मुंबई आने के बाद उन्होंने जब रंगमंच को देखा तो वो उन्हें ज़्यादा करिश्माई लगा। उन दिनों कैफी आज़मी की पत्नी शौकत कैफी जो कि इप्टा की सदस्य थी, एक स्टेज ड्रामा डायरेक्ट कर रही थीं जिसका नाम था ‘इलेक्शन का टिकट’। उसके लिए उन्हें एक दुबले-पतले लेकिन साफ बोलने वाले शख्स की ज़रूरत थी। मैकमोहन के किसी दोस्त ने उन्हें इसके बारे में बताया। उन्हें पैसों की ज़रूरत थी लिहाज़ा सिर्फ थोड़े-बहुत पैसे बनाने के लिए उन्होंने शौकत कैफी से नाटक में काम मांगने के लिए मुलाकात की। काम मिल भी गया लेकिन जब उनकी एक्टिंग मंच पर देखी गई तो सभी हैरान हो गए, मौकमोहन को खुद भी नहीं पता था कि वो इतने बेहतरीन एक्टर हैं। अदाकारी उन्हें ‘गॉड गिफ्टेड’ मिली थी। सहायक निर्देशक के साथ वो फिल्मों में विलन की भूमिका में आते थे.उड़िया,मराठी ,पंजाबी ,गुजराती,हरयाणवी फिल्मों के अलावा इंग्लिश,रशियन,स्पेनिश भाषाओँ में बनी फिल्मों में भी उन्होंने काम किया। उनकी आखिरी फिल्म थी अतिथि तुम कब जाओगे।
शोले में मैकमोहन का सिर्फ चार शब्दों का डायलाग था-सरदार सिर्फ 2 आदमी थे। और इन चार शब्दों ने मैक मोहन को देशभर में सांभा नाम से अमर कर दिया। सिर्फ चार शब्दों के डायलाग पर इतनी ख्याति मिलना उल्लेखनीय घटना है फिल्मी इतिहास में। ‘शोले’ में सांभा में निभाए गए किरदार ने उन्हें अमर कर दिया। इस फिल्म में गब्बर बने अमजद खान उनसे पूछते हैं ‘अरे ओ सांभा, कितना इनाम रखा है सरकार हम पर? और सांभा बने मैकमोहन जवाब देते हैं ‘पूरे पचास हजार।‘ ये संवाद आज भी प्रसिद्ध हैं। गौरतलब है जब रमेश सिप्पी ने उन्हें ‘शोले’ में सांभा की भूमिका ऑफर की थी तो वे सोच में पड़ गए थे क्योंकि इसमें उनके खास संवाद नहीं थे। सिप्पी ने कहा कि यह भूमिका तुम्हें लोकप्रिय कर देगी और उनकी बात सही निकली।
मैक मोहन मूलत चरित्र अभिनेता थे। उन्होंने 200 के लगभग फिल्में की थीं। मैक मोहन की पहली फिल्म हकीकत थीं। जो 1962 के भारत-चीन युद्ध पर बनी चेतन आनंद की प्रसिद्ध फिल्म थीं। 1964 में प्रदर्शित इस फिल्म में मैक मोहन ने राम स्वरुप के छोटे भाई की भूमिका अभिनित की थीं. फिल्म में मैक मोहन की भूमिका सभी ने सराही थीं।
मैक मोहन का पसंदीदा रोल फिल्म आया सावन झूम के का है। इस फिल्म में उन्होंने पागल प्रेमी का रोल निभाया था जो प्रेमिका के धोखा देने के बाद सुध-बुध खो बैठता है। इस रोल के निभाने से पहले मैक मोहन 2 दिन तक पागलखाने में रहे थे। मैक मोहन कभी भी लीडिंग विलेन नहीं बन पाए क्या इसका उनको मलाल था तो जवाब है बिल्कुल नहीं क्योंकि वे खुद को कदकाठी के कारण इस लायक नहीं समझते थे।
उन्होंने हालीवुड की कुछ फिल्में भी की थीं। मशहूर निर्देशक केविन की फिल्म मिस्ट्री आफ डार्क जंगल में मैक मोहन थे।
बात है 1947 की सरहद के उस पार से बहुत से लोग एक नए मुल्क में आये और सिनेमा को अपनाया। ऐसे ही दो लोग थे सुधीर उर्फ भगवान दास मूलचंद लुथरिया और मैक मोहन।
10 मई 2011 को 71 वर्षीय अभिनेता मैकमोहन का कैंसर से निधन हो गया था। उनके दोस्त सुधीर ने 10 मई 2014 को इस दुनिया को अलविदा कहा। मैक मोहन की पत्नी डाक्टर है। वे अपने पीछे 2 लड़कियां और 1 सुपुत्र छोड़ गए हैं
46 वर्ष लंबे करियर में उन्होंने लगभग दो सौ फिल्मों में काम किया। शोले, डॉन, खून पसीना, सत्ते पे सत्ता, रफू चक्कर, मैक मोहन की मशहूर फिल्मों में शोले, जंजीर, मजबूर, दीवार, मेमसाब, सुहाना सफर, कसौटी, सलाखें, प्रेम रोग, डॉन, खून पसीना, हेरा फेरी, जानी दुश्मन, काला पत्थर, कर्ज, टक्कर, कुर्बानी, अलीबाबा और चालीस चोर, लक बाई चांस, कर्ज उनकी प्रमुख फिल्मों में गिनी जाती हैं। ज्यादातर फिल्मों में उन्होंने खलनायक की भूमिका निभाई। उन्होने कई भारतीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों में भी काम किया। एजेन्सी।