आगरा की जेल में तैनात ललितपुर के हाफ़िज़ मोहम्मद वज़ीरुद्दीन का बेटा मुंशी हाफिज मोहम्मद अब्दुल करीम और इंग्लैण्ड की महारानी क्वीन विक्टोरिया, जिनकी अंतरंगता ने उस समय इंग्लैण्ड के राजघराने में भूचाल ला दिया था और क्वीन विक्टोरिया का समूचा परिवार उनके ही विरुद्ध खडा हो गया था। इस कहानी पर फिल्म भी बनी है जिसका नाम है ‘विक्टोरिया एंड अब्दुल – द मुंशी’ ।
1857 के ग़दर के कुछ सालों बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का ब्रिटेन राज में विलय हो गया और भारत पर इंग्लैण्ड का आधिपत्य हो गया । उन दिनों इंग्लैण्ड में क्वीन विक्टोरिया का राज था जिन्होंने बड़ी सहृदयता के साथ भारत की स्थिति का आकलन किया और अंग्रेजों के द्वारा किये गए अन्याय एवं अत्याचारों का भी सूक्ष्म दृष्टि से विश्लेषण किया। 1 मई 1876 को महारानी विक्टोरिया ने ‘एम्प्रेस ऑफ़ इंडिया’ की उपाधि को विधिवत अपनाया। अब इन्हें भारत देश की संस्कृति, जीवन शैली और भाषा भूषा में दिलचस्पी होने लगी और इसके बारे में और अधिक गहनता से जानकारी प्राप्त करने की उन्हें इच्छा जागृत हुई ।
1887 में इंग्लॅण्ड में महारानी विक्टोरिया के शासनकाल का जुबिली सेलीब्रेशन बड़ी धूमधाम से मनाया जाने वाला था। इस अवसर पर महारानी विक्टोरिया को उपहार देने के लिए भारत में एक सोने की मोहर को ढाला गया और यह तोहफा उन तक पहुँचाने के लिए बड़ी सरगर्मी के साथ लम्बे छरहरे बाँके जवान की तलाश की जाने लगी। यह तलाश आगरा में समाप्त हुई जहाँ की जेल में लंबा खूबसूरत नौजवान मुलाज़िम की तौर पर काम करता था और जिसका नाम था अब्दुल करीम। उन दिनों भारत में तैनात गवर्नर जनरल ने इस काम के लिये अब्दुल करीम को मोहम्मद के साथ समुद्र के रास्ते इंग्लैण्ड के लिए रवाना कर दिया। यह घटना 1887 की है । इंग्लैण्ड के राजघराने के इतने विशिष्ट और भव्य उत्सव में महारानी के सामने जाना कोई साधारण बात नहीं थी। कुछ पलों की इस क्रिया को अंजाम देने के लिए अब्दुल करीम को शाही शिष्टाचार की औपचारिकताओं की हिदायतों, कठोर अनुशासन की बंदिशों और तनिक सी भी भूल न होने देने की चेतावनियों से गुज़रना पडा। उन्हें सख्त हिदायत दी गयी थी कि तोहफा देते समय वे अपनी निगाहें नीची ही रखें और भूल कर भी महारानी के चेहरे को देखने का प्रयास न करें। कार्यक्रम में भोज के उपरान्त जैसे ही वह प्रतीक्षित घड़ी आई और अब्दुल करीम ने उपहार देने के लिए महारानी के सामने मोहर का डिब्बा आगे बढ़ाया महारानी को उस समय शायद झपकी आ गयी थी। जब महारानी ने कोई प्रतिक्रया नहीं दी तो अब्दुल करीम खुद को रोक नहीं पाए और उन्होंने अपनी नज़रें उठा कर महारानी के चेहरे का दीदार कर लिया। जैसे ही उनकी नज़रें मिली और वो मुस्कुराए तो प्रत्युत्तर में महारानी भी मुस्कुरा दीं । अब्दुल करीम को तुरंत ही वहाँ से हटा दिया गया।
अगले दिन महारानी विक्टोरिया से जब भारत से आये उपहार के बारे में पूछा गया तो उन्होंने अब्दुल करीम के बारे में अपनी जिज्ञासा प्रकट की और उन्हें अगले दिन के भोज में बतौर वेटर काम पर बुलाने का फरमान जारी कर दिया।! अब्दुल करीम और मोहम्मद को तुरंत भारत जाने से रोका गया और उन्हें अगले दिन के भोज में रानी व उनके मेहमानों को पुडिंग सर्व करने का काम सौंपा गया। अब्दुक करीम सहर्ष इस कार्य के लिए तैयार हो गए। पार्टी में पुडिंग सर्व करने के समय उन्होंने बड़ी श्रद्धा के साथ महारानी विक्टोरिया के पैरों को चूम लिया। महारानी इस बात से बहुत प्रसन्न हुईं ।
धीरे धीरे अब्दुल करीम के प्रति महारानी विक्टोरिया की दिलचस्पी और रुझान बढ़ता जा रहा था। अब्दुल करीम पढ़े लिखे नौजवान थे ।उन्हें कुरआन की सारी आयतें कंठस्थ थीं और वह हिन्दी के भी बहुत अच्छे अच्छा जानकार थे रानी की दिलचस्पी भारतीय भाषाओं को सीखने में पहले से ही थी। अत: यह दायित्व भी अब्दुल करीम को ही दे दिया गया और अब वह महारानी विक्टोरिया को हिन्दी व उर्दू भी सिखाने लगा। ‘मुंशी’ की उपाधि भी महारानी विक्टोरिया ने ही उन्हें दी थी ।
अपने पति अलबर्ट की मृत्यु के बाद महारानी विक्टोरिया एकाकी हो गयी थीं । वो नर्म दिल और भावुक प्रकृति की महिला थीं । लेकिन शाही राजघराने के कठोर नीति नियमों ने उन्हें और एकाकी बना दिया था जहाँ उनका जीवन बिलकुल मशीनी और संवेदनहीन सा हो गया था। ऐसे में अब्दुल करीम के साथ बिताये गए पल उन्हें बहुत सुख दे जाते थे जिनमें वे सामान्य मानवी की तरह स्वयं को अनुभव कर पाती थीं। उनके बेटे एडवर्ड और राजघराने के अन्य लोगों को अब्दुल करीम के साथ महारानी की यह निकटता ज़रा भी रास नहीं आती थी। कई बार इन बातों को लेकर महल में अनबन भी हुई लेकिन अब्दुल करीम पर महारानी की कृपा बनी रही। उन्होंने अब्दुल करीम को लॉकेट भी उपहार में दिया जिसमें उनकी तस्वीर लगी हुई थी । महारानी की अब्दुल करीम पर इस कृपा के कारण स्थिति इतनी विस्फोटक हो गयी थी कि राजघराने के लोग महारानी को मानसिक रूप से अस्वस्थ घोषित करने पर आमादा हो गए थे। इस पर एक बार महारानी ने इस आशय का स्टेटमेंट भी दिया था कि वे बूढी हो सकती हैं, बीमार हो सकती हैं, लालची हो सकती हैं लेकिन पागल कभी नहीं । महारानी को अपने गिरते स्वास्थ्य के साथ साथ अब्दुल करीम के भविष्य की भी चिंता हो गयी थी । वे समझ रही थीं कि उनकी मृत्यु के बाद उनके परिवार के लोग अब्दुल करीम के साथ बहुत कठोरता से पेश आयेंगे । इसीलिये उन्होंने करीम को भारत में कोई ज़मीन दिलाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। अब्दुल करीम ने भी महारानी का साथ कभी नहीं छोड़ा और 22 जनवरी 1901 में महारानी ने 81 वर्ष की अवस्था में इस संसार से विदा ली उसके बाद ही वे भारत वापिस लौटे । महारानी के बेटे एडवर्ड ने अब्दुल करीम पर बस इतनी मेहरबानी की कि सुपुर्दे ख़ाक करने से पहले सबसे आखिर में उन्होंने अब्दुल करीम कोमहारानी के अंतिम दर्शन करने की अनुमति दे दी और शव यात्रा में उन्हें भी शरीक होने की इजाज़त दे दी ।
महारानी विक्टोरिया ने उन्हें समय समय पर जो उपहार दिये थे वो सब भी इंग्लैण्ड से भारत आते समय विक्टोरिया के बेटे और महल के पदाधिकारियों ने उनसे छीन लिये। बस वही लॉकेट मुंशी हाफिज मोहम्मद अब्दुल करीम की पत्नी किसी तरह से अपने साथ बचा कर ले आईं थीं जिसमें विक्टोरिया की तस्वीर लगी हुई थी । भारत आने के बाद 20 अप्रेल 1901 को अब्दुल करीम का भी स्वर्गवास हो गया । उनके परिवार के लोगों ने उन्हें आगरा में ही पंचकुइया कब्रिस्तान में उनकी पिता की कब्र के पास दफना दिया। साधना वैद