जयन्ती पर
जयन्ती पर विशेष। सेकेंड लेफ़्टीनेंट राम राघोबा राणे परमवीर चक्र से सम्मानित सैनिक थे। इन्हें यह सम्मान 1948 मे मिला था। श्री राणे द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश भारतीय सेना में कार्यरत थे। युद्ध के बाद की अवधि के दौरान वह सेना में रहे और 15 दिसंबर 1947 को भारतीय सेना के कोर ऑफ इंजीनियर्स के बॉम्बे सैपर्स रेजिमेंट में नियुक्त किये गये। भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान श्री राणे ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कई बाधाओं और खनन क्षेत्रों को साफ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर भारतीय सेना द्वारा राजौरी का कब्जा कर उनके कार्यों ने भारतीय टैंकों को आगे बढ़ाने के लिए रास्ता स्पष्ट करने में मदद की। उनकी वीरता के लिए 8 अप्रैल 1948 को उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। वे 1968 में भारतीय सेना से एक प्रमुख के रूप में सेवानिवृत्त हुए। सेना के साथ अपनी 28 साल की सेवा के दौरान, उन्हें पांच बार डेस्पैप्स में वर्णित किया गया था।
श्री राम राघोबा राणे का जन्म 26 जून 1918 को करवार जिले में हावेरी गांव में हुआ था। उनके पिता राघोबा पी राणे कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ जिले के चंदिया गांव से पुलिस कांस्टेबल थे। श्री राणे की प्रारंभिक शिक्षा, ज्यादातर जिला स्कूल में हुई, क्योंकी उनके पिता का लगातार स्थानान्तरण होता रहता था। 1930 में, वह असहयोग आंदोलन से प्रभावित हुए। आंदोलन के साथ उनकी भागीदारी ने उनके पिता को चिंतित कर दिया, और उनके पिता, चंदिया में अपने पैतृक गांव में अपने परिवार को वापस ले गये।
1940 में दूसरा विश्व युद्ध तेज़ी पर था। राघोबा के भीतर भी कुछ जोश भरा जीवन जीने की चाह थी तो उन्होंने भारतीय सेना में जाने का मन बनाया। उनकी इच्छा रंग लाई और 10 जुलाई 1940 को वह बॉम्बे इंजीनियर्स में आ गए। वहाँ इनके उत्साह और दक्षता ने इनके लिए बेहतर मौक़े पैदा किए। यह अपने बैच के ‘सर्वोत्तम रिक्रूट’ चुने गए। इस पर इन्हें पदोन्नत करके नायक बना दिया गया तथा इन्हें कमांडेंट की छड़ी प्रदान की गई। ट्रेनिंग के बाद राघोबा 26 इंफेंट्री डिवीजन की 28 फील्ड कम्पनी में आ गए। यह कम्पनी बर्मा में जापानियों से लड़ रही थी। बर्मा से लौटते समय राघोषा राणे को दो टुकड़ियों के साथ ही रोक लिया गया और उन्हें यह काम सौंपा गया कि वह बुथिडांग में दुश्मन के गोला बारूद के जखीरे को नष्ट करें और उनकी गाड़ियों को बरबाद कर दें। राघोबा और उनके साथी इस काम को करने में कामयाब हो गए। योजना थी कि इसके बार नेवी के जहाज इन्हें लेकर आगे जाएंगे। दुर्भाग्य से यह योजना सफल नहीं हो पाई और उन लोगों को नदी खुद पार करनी पड़ी। यह एक जोखिम भरा काम था क्योंकि उस नदी पर जापान की जबरदस्त गश्त और चौकसी लगी हुई थी। इसके बावजूद राघोबा और उनके साथी, जापानी दुश्मनों की नज़र से बचते हुए उनको मात देते हुए इस पार आए और इन लोगों ने बाहरी बाज़ार में अपने डिवीजन के पास अपनी हाजिरी दर्ज की। यह एक बेहद हिम्मत तथा सूझबूझ का काम था, जिसके लिए इन्हें तुरंत हवलदार बना दिया गया।
दिसम्बर 1947 में दुश्मन ने झंगर पर कब्ज़ा कर लिया था। 18 मार्च 1948 को देश की आर्मी ने फिर से झंगर पर अपना काबू पा लिया। (मेजर आत्म सिंह की टुकड़ी के राजौरी पहुचने से पहले उन्होंने झंगर को पाकिस्तानी सेना को खदेड़ कर कब्ज़ा कर लिया) इसी दौरान पाकिस्तानी सेना पीछे हटते हुए राजौरी और पूँछ के बीच के नेशनल हाईवे को नष्ट कर दिया। रास्ता ना होने के कारण मेजर आत्म सिंह की आर्मी टुकड़ी ने नौशहरा से होकर राजौरी पहुचने की कोशिश की। यह बहुत ही पुराना मुग़ल काल का रास्ता था। 4th डोगरा रेजिमेंट की टुकड़ी ने 8 अप्रैल 1948 को राजौरी में बरवाली रिज पर हमला कर दिया और दुश्मनों को और पीछे खदेड़ दिया। यह जगह नौशहरा से 11 किलो मीटर दूर थी। परन्तु बरवाली के आगे काफ़ी ज्यादा रोड खराब थी साथ ही पाकिस्तानी सेना ने माइन फ़ील्ड्स (बारूदी सुरंग) भी काफ़ी थी, इस कारण भारतीय सेना के वाहनों और टैंक आगे बड़ने में काफ़ी परेशानी हो रही थी।
इस मुश्किल की घड़ी में 2nd लेफ्टिनेंट रमा राघोबा राणे और उनकी 37 असाल्ट फील्ड कंपनी साथ ही 4th डोगरा रेजिमेंट की टुकड़ी ने अधम्ये साहस का परिचय देते हुए 8 अप्रैल को पाकिस्तानी सेना द्वारा लगाई गई माइन फ़ील्ड्स (बारूदी सुरंग) को हटाने का काम शुरू किया। इधर पाकिस्तानी सेना इन पर फायरिंग भी लगातार कर रहे थे। इसमें अपनी सेना के दो सप्पेर्स (combat engineer / a military engineer who lays or detects and disarms mines) मरे गये और रामा राघोबा राणे सहित 5 जने बुरी तरह घायल हो गये। घायल होने के बाद भी राणे अपने साथियों के साथ मिल कर उस दिन शाम तक बारूदी सुरंगों को हटाने का काम खत्म कर दिया, और सेना के वाहन व टैंकों के लिए आगे बड़ने का रास्ता बना दिया।
युद्ध के बाद, 25 जून 1958 को राणे प्रमुख पद के साथ, उनकी सेवानिवृत्ति तक भारतीय सेना में बने रहे। उनके सैन्य कैरियर के दौरान, राणे का पांच बार नामकरण में उल्लेख किया गया था। वह बाद में भारतीय सेना के नागरिक कर्मचारियों के सदस्य के रूप में कार्यरत थे। वह 7 अप्रैल 1 9711 तक सेना में बने रहे ।
भारत सरकार के शिपमेंट मंत्रालय के तत्वावधान में, भारतीय नौवहन निगम ने परम वीर चक्र प्राप्तकर्ताओं के सम्मान में एस.सी.आय. के 15 कच्चे तेल टैंकरों को नामित किया गया। एम.टी. लेफ्टिनेंट राम राघोबा राणे कच्चे तेल के टैंकर को पीवीसी को 8 अगस्त 1984 को एससीआई को सौंप दिया गया था। 25 साल की सेवा के बाद टैंकर को समाप्त किया गया था।
7 नवंबर 2006 को कर्नाटक के रबिंद्रनाथ टैगोर समुद्रतट में अपने गृहनगर कारवार में आईएनएस चैपल युद्धपोत संग्रहालय के साथ एक समारोह में श्री राणे की स्मृति में एक प्रतिमा का अनावरण किया गया। इसका उद्घाटन स्मॉल इंडस्ट्रीज के पूर्व मंत्री शिवानंद नाइक ने किया, और यह पश्चिमी कमांड के वाइस एडमिरल संग्राम सिंह बायस के फ्लैग आफिसर कमांडर-इन-चीफ की अध्यक्षता में हुआ।11 जुलाई 1994 को पुणे में दक्षिणी कमान अस्पताल में मृत्यु हो गई थी थे। एजेन्सी
विशेष। सेकेंड लेफ़्टीनेंट राम राघोबा राणे परमवीर चक्र से सम्मानित सैनिक थे। इन्हें यह सम्मान 1948 मे मिला था। श्री राणे द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश भारतीय सेना में कार्यरत थे। युद्ध के बाद की अवधि के दौरान वह सेना में रहे और 15 दिसंबर 1947 को भारतीय सेना के कोर ऑफ इंजीनियर्स के बॉम्बे सैपर्स रेजिमेंट में नियुक्त किये गये। भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान श्री राणे ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कई बाधाओं और खनन क्षेत्रों को साफ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर भारतीय सेना द्वारा राजौरी का कब्जा कर उनके कार्यों ने भारतीय टैंकों को आगे बढ़ाने के लिए रास्ता स्पष्ट करने में मदद की। उनकी वीरता के लिए 8 अप्रैल 1948 को उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। वे 1968 में भारतीय सेना से एक प्रमुख के रूप में सेवानिवृत्त हुए। सेना के साथ अपनी 28 साल की सेवा के दौरान, उन्हें पांच बार डेस्पैप्स में वर्णित किया गया था।
श्री राम राघोबा राणे का जन्म 26 जून 1918 को करवार जिले में हावेरी गांव में हुआ था। उनके पिता राघोबा पी राणे कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ जिले के चंदिया गांव से पुलिस कांस्टेबल थे। श्री राणे की प्रारंभिक शिक्षा, ज्यादातर जिला स्कूल में हुई, क्योंकी उनके पिता का लगातार स्थानान्तरण होता रहता था। 1930 में, वह असहयोग आंदोलन से प्रभावित हुए। आंदोलन के साथ उनकी भागीदारी ने उनके पिता को चिंतित कर दिया, और उनके पिता, चंदिया में अपने पैतृक गांव में अपने परिवार को वापस ले गये।
1940 में दूसरा विश्व युद्ध तेज़ी पर था। राघोबा के भीतर भी कुछ जोश भरा जीवन जीने की चाह थी तो उन्होंने भारतीय सेना में जाने का मन बनाया। उनकी इच्छा रंग लाई और 10 जुलाई 1940 को वह बॉम्बे इंजीनियर्स में आ गए। वहाँ इनके उत्साह और दक्षता ने इनके लिए बेहतर मौक़े पैदा किए। यह अपने बैच के ‘सर्वोत्तम रिक्रूट’ चुने गए। इस पर इन्हें पदोन्नत करके नायक बना दिया गया तथा इन्हें कमांडेंट की छड़ी प्रदान की गई। ट्रेनिंग के बाद राघोबा 26 इंफेंट्री डिवीजन की 28 फील्ड कम्पनी में आ गए। यह कम्पनी बर्मा में जापानियों से लड़ रही थी। बर्मा से लौटते समय राघोषा राणे को दो टुकड़ियों के साथ ही रोक लिया गया और उन्हें यह काम सौंपा गया कि वह बुथिडांग में दुश्मन के गोला बारूद के जखीरे को नष्ट करें और उनकी गाड़ियों को बरबाद कर दें। राघोबा और उनके साथी इस काम को करने में कामयाब हो गए। योजना थी कि इसके बार नेवी के जहाज इन्हें लेकर आगे जाएंगे। दुर्भाग्य से यह योजना सफल नहीं हो पाई और उन लोगों को नदी खुद पार करनी पड़ी। यह एक जोखिम भरा काम था क्योंकि उस नदी पर जापान की जबरदस्त गश्त और चौकसी लगी हुई थी। इसके बावजूद राघोबा और उनके साथी, जापानी दुश्मनों की नज़र से बचते हुए उनको मात देते हुए इस पार आए और इन लोगों ने बाहरी बाज़ार में अपने डिवीजन के पास अपनी हाजिरी दर्ज की। यह एक बेहद हिम्मत तथा सूझबूझ का काम था, जिसके लिए इन्हें तुरंत हवलदार बना दिया गया।
दिसम्बर 1947 में दुश्मन ने झंगर पर कब्ज़ा कर लिया था। 18 मार्च 1948 को देश की आर्मी ने फिर से झंगर पर अपना काबू पा लिया। (मेजर आत्म सिंह की टुकड़ी के राजौरी पहुचने से पहले उन्होंने झंगर को पाकिस्तानी सेना को खदेड़ कर कब्ज़ा कर लिया) इसी दौरान पाकिस्तानी सेना पीछे हटते हुए राजौरी और पूँछ के बीच के नेशनल हाईवे को नष्ट कर दिया। रास्ता ना होने के कारण मेजर आत्म सिंह की आर्मी टुकड़ी ने नौशहरा से होकर राजौरी पहुचने की कोशिश की। यह बहुत ही पुराना मुग़ल काल का रास्ता था। 4th डोगरा रेजिमेंट की टुकड़ी ने 8 अप्रैल 1948 को राजौरी में बरवाली रिज पर हमला कर दिया और दुश्मनों को और पीछे खदेड़ दिया। यह जगह नौशहरा से 11 किलो मीटर दूर थी। परन्तु बरवाली के आगे काफ़ी ज्यादा रोड खराब थी साथ ही पाकिस्तानी सेना ने माइन फ़ील्ड्स (बारूदी सुरंग) भी काफ़ी थी, इस कारण भारतीय सेना के वाहनों और टैंक आगे बड़ने में काफ़ी परेशानी हो रही थी।
इस मुश्किल की घड़ी में 2nd लेफ्टिनेंट रमा राघोबा राणे और उनकी 37 असाल्ट फील्ड कंपनी साथ ही 4th डोगरा रेजिमेंट की टुकड़ी ने अधम्ये साहस का परिचय देते हुए 8 अप्रैल को पाकिस्तानी सेना द्वारा लगाई गई माइन फ़ील्ड्स (बारूदी सुरंग) को हटाने का काम शुरू किया। इधर पाकिस्तानी सेना इन पर फायरिंग भी लगातार कर रहे थे। इसमें अपनी सेना के दो सप्पेर्स (combat engineer / a military engineer who lays or detects and disarms mines) मरे गये और रामा राघोबा राणे सहित 5 जने बुरी तरह घायल हो गये। घायल होने के बाद भी राणे अपने साथियों के साथ मिल कर उस दिन शाम तक बारूदी सुरंगों को हटाने का काम खत्म कर दिया, और सेना के वाहन व टैंकों के लिए आगे बड़ने का रास्ता बना दिया।
युद्ध के बाद, 25 जून 1958 को राणे प्रमुख पद के साथ, उनकी सेवानिवृत्ति तक भारतीय सेना में बने रहे। उनके सैन्य कैरियर के दौरान, राणे का पांच बार नामकरण में उल्लेख किया गया था। वह बाद में भारतीय सेना के नागरिक कर्मचारियों के सदस्य के रूप में कार्यरत थे। वह 7 अप्रैल 1 9711 तक सेना में बने रहे ।
भारत सरकार के शिपमेंट मंत्रालय के तत्वावधान में, भारतीय नौवहन निगम ने परम वीर चक्र प्राप्तकर्ताओं के सम्मान में एस.सी.आय. के 15 कच्चे तेल टैंकरों को नामित किया गया। एम.टी. लेफ्टिनेंट राम राघोबा राणे कच्चे तेल के टैंकर को पीवीसी को 8 अगस्त 1984 को एससीआई को सौंप दिया गया था। 25 साल की सेवा के बाद टैंकर को समाप्त किया गया था।
7 नवंबर 2006 को कर्नाटक के रबिंद्रनाथ टैगोर समुद्रतट में अपने गृहनगर कारवार में आईएनएस चैपल युद्धपोत संग्रहालय के साथ एक समारोह में श्री राणे की स्मृति में एक प्रतिमा का अनावरण किया गया। इसका उद्घाटन स्मॉल इंडस्ट्रीज के पूर्व मंत्री शिवानंद नाइक ने किया, और यह पश्चिमी कमांड के वाइस एडमिरल संग्राम सिंह बायस के फ्लैग आफिसर कमांडर-इन-चीफ की अध्यक्षता में हुआ।11 जुलाई 1994 को पुणे में दक्षिणी कमान अस्पताल में मृत्यु हो गई थी थे। एजेन्सी