15 सितम्बर 1919 को जन्मे खुमार बाराबंकवी का नाम “मोहम्मद हैदर खान” था। बाराबंकी जिले को अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर पहचान दिलाने वाले अजीम शायर खुमार बाराबंकवी को प्यार से बेहद करीबी लोग ‘दुल्लन’ भी बुलाते थे। “खुमार” ने बाराबंकी के सिटी इंटर कालेज से आठवीं तक शिक्षा ग्रहण की। इसके पश्चात वह राजकीय इंटर कालेज बाराबंकी जिसकी मान्यता उस समय हाईस्कूल तक ही थी वहां से कक्षा 10 की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके पश्चात लखनऊ के जुबली इंटर कालेज में उन्होंने दाखिला लिया लेकिन उनका मन पढ़ाई में नहीं लगा।
1938 से ही उन्होंने मुशायरों में भाग लेना शुरू कर दिया। खुमार ने अपना पहला मुशायरा बरेली में पढ़ा। उनका प्रथम शेर ‘वाकिफ नहीं तुम अपनी निगाहों के असर से, इस राज को पूछो किसी बरबाद नजर से’ था। ढाई वर्ष के अंतराल में ही वे पूरे मुल्क में प्रसिद्ध हो गये। उस दौर में जिगर मुरादाबादी उच्च कोटि के शायर माने जाते थे चूंकि खुमार ने ‘तरन्नुम’ से ही शुरूआत की, इसलिये शीघ्र ही वे जिगर मुरादाबादी के समकक्ष पहुंच गये। मुशायरों में अगर मजरूह सुलतानपुरी साहब के बाद अगर किसी को तवज्जो दी जाती थी तो वो “खुमार साहब” ही थे।
महान शायर और गीतकार मजरूह सुलतानपुरी आपके अज़ीज़ दोस्त थे। जितना बड़ा क़द विनम्रता की उतनी ही बड़ी मूरत, कभी-कभी तो मुशायरों में आपको घंटों तक ग़ज़ल पढ़नी पड़ती थी, लोग उठने ही नहीं देते थे। हर मिसरे के बाद “आदाब” कहने की इनकी अदा इन्हें बाकियों से मुख्तलिफ़ करती है। आपका अंदाजे बयां भी औरों से अलग था जो इनकी ख़ूबसूरत ग़ज़लों में और भी चार-चाँद लगाता था।
वैसे तो खुमार साहब मुशायरों को ही तवज्जो देते थे, लेकिन फिर भी उन्होंने कुछ फ़िल्मों के गीत भी लिखे, जो उनकी ग़ज़लों की तरह ही उम्दा हैं । हर दिल अजीज ‘खुमार बाराबंकवी’ को 1942-43 में प्रख्यात फिल्म निर्देशक एआर अख्तर ने बम्बई अब मुम्बई बुला लिया। यहाँ से शुरू हुआ उनका फ़िल्मी सफ़र और वे फ़िल्मी दुनिया में एक सफल गीतकार के रूप में जुड़ गए।
आपने 1955 में फिल्म “रुख़साना” के लिये ” शकील बदायूँनी ” के साथ गाने लिखे थे। उससे पहले 1946 में फ़िल्म “शहंशाह ” के एक गीत “चाह बरबाद करेगी” को “खुमार” साहब ने हीं लिखा था, जिसे संगीत से सजाया था “नौशाद” ने और अपनी आवाज़ दी थी गायकी के बेताज बादशाह “के०एल०सहगल” साहब ने ।
फ़िल्म ‘बारादरी’ के लिये लिखा गया उनका यह गीत ‘तस्वीर बनाता हूँ, तस्वीर नहीं बनती’ आज भी लोगों के दिलों में बसा है। उन्होंने तमाम फ़िल्मों के लिये ‘अपने किये पे कोई परेशान हो गया’, ‘एक दिल और तलबगार है बहुत’, ‘दिल की महफ़िल सजी है चले आइए’, ‘साज हो तुम आवाज़ हूँ मैं’,’भुला नहीं देना’, ‘दर्द भरा दिल भर-भर आए’, ‘आग लग जाए इस ज़िन्दगी को, मोहब्बत की बस इतनी दास्ताँ है’, ‘आई बैरन बयार, कियो सोलह सिंगार’, जैसे गीत लिखे जो खासे लोकप्रिय हए। खुमार के ये गीत आज भी हमारी ज़िन्दगी में रस घोल देते हैं।
खुमार साहब ने चार पुस्तकें भी लिखीं ये पुस्तकें शब-ए-ताब, हदीस-ए-दीगर, आतिश-ए-तर और रख्स-ए-मचा है।
खुमार की पुस्तकें कई विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में शामिल की गई। उन्हें उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी, जिगर मुरादाबादी, उर्दू अवार्ड, उर्दू सेंटर कीनिया और अकादमी नवाये मीर उस्मानिया विश्वविद्यालय हैदराबाद, मल्टी कल्चरल सेंटर ओसो कनाडा, अदबी संगम न्यूयार्क, दीन दयाल जालान सम्मान वाराणसी, कमर जलालवी एलाइड्स कालेज पाकिस्तान आदि ने सम्मानित किया।
1992 में दुबई में खुमार की प्रसिद्धि और कामयाबी के लिये जश्न मनाया गया। 25 सितम्बर 1993 को बाराबंकी जिले में जश्न-ए-खुमार का आयोजन किया गया। जिसमें तत्कालीन गवर्नर मोतीलाल वोरा ने एक लाख की धनराशि व प्रशस्ति पत्र उन्हें देकर सम्मानित किया।
खुमार का अंतिम समय काफी कष्टप्रद रहा। मृत्यु के एक वर्ष पूर्व से ही उन्होंने खाना पीना छोड़ दिया था। 13 फ़रवरी 99 को उनकी हालत गंभीर हो गई। उन्हें लखनऊ के मेडिकल कालेज में भर्ती कराया गया। जहाँ 19 फ़रवरी की रात उन्होंने आखिरी साँस ली। डा आलोक रंजन, द्वारा संरक्षित। अब (स्व .गोपाल कॉल जी की डायरी से)